ग्रियर्सन की शादी उसी समय हुई जब वे मधुबनी के एस.डी.ओ. थे। शादी के लिए
छुट्टी लेकर वे अपने देश गए। उनके मन में सौराठ सभा, आरा के पियारे लाल और
दरभंगा महाराज द्वारा उठाए गए कदमों की छाप पड़ी हुई थी। उन्होंने मिथिला
की शादी एवं भोज की व्यवस्था का जिक्र अपने कई मित्रों से किया। उनकी इस
सोच के कारण अंग्रेजों के मन में मिथिला को लेकर जिज्ञासा उत्पन्न हुई।
ग्रियर्सन की इस मशाल ने आखिर काम ही किया। टाईम्स ऑफ लंदन के पृष्ठ
मिथिला की शादी के किस्सों से भरे हैं। हालांकि बंगाल में 1855 के बाद ही
कुलीन बहुविवाह को लेकर सामाजिक क्रांति आरंभ हो गई थी। अखबारों में पत्र
लिखकर विरोध करना, हस्ताक्षर अभियान चलाना, सभा गोष्ठियां, विधान परिषद्
में याचिका देना आदि कार्यक्रम चलते रहते थे। 1866 में सी.पी.हॉबहाऊस और
एच.टी.प्रिंसेप (मंत्री), आई.सी.विद्यासागर, एस.सी.घोषाल, रामनाथ टैगोर, जय
कृष्ण मुखजी, दिगम्बर मित्रा जैसे भारतीय सदस्य को लेकर एक समिति का
गठन किया गया। इस समिति ने कठोर शब्दों में ऐसी शादियों की भर्त्सना की
और सरकार से आग्रह किया कि इसे रोकने के लिए कड़े कानून का निर्माण किया
जाना चाहिए। दरभंगा राज उस समय कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत था। लेकिन ऐसा
नहीं है कि दरभंगा राज में संवेदनशीलता विलम्ब से आई। राजा प्रताप सिंह
एवं राजा माधव सिंह के कार्यकाल में ही इस विषय को लेकर महाराजाओं की
त्योरियां चढ़ने लगी थी। इसलिए इस विषय पर यदि बहस हो कि शादी की बुराई को
लेकर जन अभियान पहले बंगाल में आरंभ हुआ कि मिथिला में, तो बाजी मिथिला के
हाथ ही लगेगी। दूसरी बात, बाल विवाह, विवाह में दहेज, शादी में दिखावा,
फिजुलखर्ची, पंजी प्रबन्ध को लेकर अत्यधिक दकियानुसी आदि चीजों को यदि
दूर करने का संकल्प लेना है तो इतिहास के पन्ने रोडमैप बनाने के लिए
पर्याप्त साधन जुटाते हैं।
(साभार : फेसबुक पर भैरव लाल दास जी की टिप्पणी से )
(साभार : फेसबुक पर भैरव लाल दास जी की टिप्पणी से )