गुरुवार, 14 नवंबर 2024

किताब-ए-बिहार(बिहार से जुड़ी किताबों की महफिल)-3

 'वर्चस्व' राजेश पांडे की पुस्तक का नाम है, जो वर्ष 2004 में प्रकाशित हुई है. इसी वर्ष पुस्तक के तीन संस्करण आ चुके हैं.पुस्तक के फ्लैप पर एक ओर "सत्य कथा'


अंकित है और दूसरी ओर 'उत्तर प्रदेश के एक आपराधिक कालखंड की सच्ची दास्तान' . लेखक 1996 बैच के यूपी पुलिस प्रांतीय सेवा के अधिकारी हैं, जिन्हें भारतीय पुलिस सेवा में वर्ष 2005 में प्रोन्नति दी गई है . यह वर्ष 2021 मे सेवानिवृत्ति हुए. 35 वर्ष की पुलिस सेवा के बाद कोविड काल में पुस्तक को लिखने का ख्याल आया.

    इसी तरह के एक पुस्तक की रचना बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी (1998 बैच) अमित लोढ़ा ने 'बिहार डायरीज' नाम से की है, जिस पर वेब सीरीज  'खाकी' बना, जो पुस्तक से कहीं ज्यादा लोकप्रिय हुई . य़ह पुस्तक 2018 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई , इसकी भूमिका न जाने क्यों टिंकल खन्ना से लिखवाई गई .

अपराधिक कालखंड की चर्चा करते हुए लेखक ने लिखा कि इसकी शुरुआत 1975 में भारत के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या (जो उनके गृह नगर समस्तीपुर में हुई थी) के साथ हुई. परंतु इसका अंत कब हुआ सो नहीं लिखा है.  न हीं यह लिखा कि आपराधिक कालखंड अभी चल रहा है.

         यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के दूर्दांत अपराधी को केंद्र में रखकर लिखी गई है. उसके एनकाउंटर के साथ ही पुस्तक समाप्त हो जाती है. 295 पृष्ठ के पुस्तक से गुजरते हुए पाठक हत्या दर हत्या अपराध की दुनिया से रूबरू होता है. पुलिसिया कार्रवाई एसoटीoएफo का गठन उसे उबाउ लगने लगता है  और वह उन पन्नों से सरसरी तौर पर आगे बढ़ते हुए एक जासूसी उपन्यास की तरह नए संभावित घटनाओं को तलाशता है.  इस पुस्तक में 'पल्प फिक्शन' सा आकर्षण तो है, पर कहीं से साहित्य की श्रेणी में रख पाना मुश्किल है . यदि इसमें साहित्य के किसी रस की तलाश की जाए तो 'वीभत्स रस' के अलावा और कोई रास नहीं मिलता है . 

. लेखक ने बेबाकी से कुछ ऐसी शख्सियत का उल्लेख किया है जो अपराध की दुनिया से राजनीति में आए और कई अपराधी घटनाओं के षड्यंत्र कर्ता रहे. एक दो मामला तो बिहार से जुड़ा है . बिहार की अब तक चर्चित राजनीतिक हत्या में दूसरे नंबर पर इसका जिक्र करते हुए उनकी स्पष्ट भागीदारी बताई गई सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद यह पुस्तक और पात्र पुनः चर्चा में आए. इस परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं पुस्तक के विवरण में विरोधाभास है. लेखक का दायित्व बनता है कि एक बार फिर न्याय निर्णय का अध्ययन बताएं कि चूक किस स्तर पर हुई है.

      पुस्तक जो जुगुप्सा का भाव पैदा करता है. कहीं-कहीं लगता है कि यह अपराध के रास्ते राजनीतिक सत्ता हासिल करने की प्रक्रिया का महिमा मंडल कर रहा है. यद्यपि लेखक का उद्देश्य यह नहीं है.  पाठक पुस्तक के उन पन्नों से तेजी से आगे बढ़ना चाहता है जिसमें एसoटीoएफo का गठन पुलिसिया तैयारी का ब्यौरा है. एक डर यह भी है कि अपराध जगत में प्रवेश कर गए युवा इस पुस्तक से सबक लेकर वह गलतियां ना करें जो इसके मुख्य पात्र ने की ,व्यभिचार में लिप्त होने और मोबाइल के प्रयोग के चलते ही वह पकड़ में आया और मारा गया.

           मैं यह सलाह दूंगा की 16 से 18 वर्ष के बच्चों को पढ़ने के लिए इस पुस्तक को अनुशंसित ना की जाए. हताशा निराशा या प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता उन्हें सत्ता की ओर जाने के लिए बंदूक का सहारा लेने की प्रेरणा ना दे दे. पुस्तक के अंत के पहले तक माओ की पंक्तियां इस पर लागू होती है की 'राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है' परंतु मुख्य पात्र के एनकाउंटर के बाद इस धारणा को विराम लगता है .जिसका विवरण पुस्तक के अंतिम 10 प्रस्तों पर है. डर यह है कि 295 पृष्ठ की पुस्तक का तरुण पाठक के मन पर यदि पहले के 285 पन्ने ना हावी हो जाए.

     एक अपराधी के एनकाउंटर की सूचना मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में दी जाने एवं विधायकों द्वारा मेज थप-थपा कर स्वागत करना और एक दूसरे को बधाइयां देना कहीं ना कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षा लिए दुर्दांत अपराधी का महिमा मंडन ही है. खैर जो भी हो इस पुस्तक में इतना माद्दा था कि मुझसे दो दिन में पढवा लिया.  मेरे पुत्र ने इतनी तन्मयता से पढ़ते देखा तो पुस्तक समाप्त होने के बाद मुझसे मांगा पर मैंने कहा कि नहीं, यह पुस्तक मैं बंटी जी से मांग कर लाया उन्हें आज ही लौटना है.

शनिवार, 4 मई 2024

वाणावर डायरी - 8 (पेड़ की पैरवी)

 20.5.2023

श्री श्याम जी चौहान को मैं वर्ष 2013 से जानता हूं । तब मैं जहानाबाद में था वाणावर की यात्राओं के क्रम में सोमवार को यह मुझे प्रायः मिल जाते थे, हथियाबोर भागीरथ धर्मशाला की ओर से जाने वाले रास्ते को बनाते हुए । स्थानीय लोग और सोमवारिया इन्हें इंजीनियर साहब के नाम से जानते हैं ।

पटना में मुझसे मिलने ये दूसरी बार आए हैं। मुझे सुबह उन्होंने फोन किया था कि वे कोईलवर आए हुए हैं वहां से पटना होते हुए अपने गांव भलुआ (बेला-गया )लौटेंगे । मुझसे मिलने की इच्छा व्यक्त की मैंने विनम्रता पूर्वक उन्हें बुलाया । पहली बार आज से दो-ढाई वर्ष पूर्व आए थे  पत्नी की दवा लेने, बताया था कि 3 महीने में एक बार आते हैं और दवा लेकर चले जाते हैं। पत्नी हृदय रोग की मरीज है । इस बार कोईलवर में रामायण यज्ञ से लौट रहे थे। प्रारंभिक बातचीत के बाद मैंने उनकी पत्नी का हाल-चाल पूछ, अपने पांव के अंगूठे की ओर देखते हुए कहा की वह इस दुनिया में नहीं रहीं। मैं हतप्रभ हो गया मैंने कहा कि आपने मुझे सूचना क्यों नहीं दी । फिर एक क्षण रुक कर सोचा की सूचना पाकर भी मैं क्या करता बहुत होता तो उनके गांव जाकर संवेदना व्यक्त कर आता।

           चौहान जी के पांच पुत्र हैं पर पति-पत्नी का अलग चूल्हा जलता है । पुत्रों या बहूओ में उतनी संवेदना नहीं थी कि वह उन्हें अपने साथ रख सके । हृदय रोग के कारण पत्नी को शौचकर्म में दिक्कत थी । आसपास कई घर बन गए थे जिस कारण वहां खेतों में जाना संभव नहीं होता। इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने बस्ती से थोड़ी दूरी पर पईन के किनारे मिट्टी का एक कमरा बनाया और वही पत्नी के साथ रहने लगे। उद्देश्य था कि पत्नी को शौचकर्म में कोई दिक्कत ना आए। मैं सरकार के संपूर्ण स्वच्छता अभियान ओ0 डी0 एफ0 और इसके तहत खर्च किए जा रहे हैं अरबों रुपए के बारे में सोचने लगा। उन्होंने आगे बताया कि कुछ दिनों बाद शौचालय बनाने का जुगाड़ लग गया मैं समझा कि उन्हें संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत शौचालय बनाने की राशि मिल गई होगी। परंतु ऐसा नहीं था। बताया कि एक खेत को ईट भट्ठा लगाने के लिए लीज पर दिया था। उससे पैसा ना लेकर ईट ही ले लिया और शौचालय बनवा दिया।

     पत्नी नहीं रही तो आपका खाना-पीना कैसे होता है, रसोई कौन बनाता है, क्या बेटे खाना बना कर दे जाते हैं मैंनै जिज्ञासा प्रकट की तब उन्होंने बताया कि एक पोती है जो आकर खाना बना देती है । बेटों के बीच जमीन बंटवारे के बाद जमीन का एक टुकड़ा उनके हिस्से भी आया, जिसकी उपज से जीवन यापन चल रहा है पोते पोतियो की जब मैंने गणना की तो कुल संख्या 19 थी।

              अभी भी प्रत्येक सोमवार को प्रातः 3:30 बजे प्रातः उठकर पूजा पाठ कर, वाणावर पर्वत की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। कोई गाड़ी वाला मिला तो उन्हें हथियाबोर तक छोड़ देता है, अन्यथा पैदल ही निकल पड़ते हैं । पर्वत के शिखर पर स्थित बाबा सिद्धनाथ मंदिर में भगवान शिव को जलाभिषेक कर अपने काम में लग जाते हैं। बड़े चट्टानों को खंती के सहारे लाना उन्हें उचित तरीके से सही जगह पर रखना, ताकि श्रद्धालुओं को चढ़ने उतरने में सुविधा हो फिर सीमेंट से जोड़ना। दोपहर का भोजन वे लेकर आते हैं यदि कोई भक्त इस कार्य में उनका हाथ बॅटाता है तो वह उसे भी भोजन करवाते हैं। आते-जाते भक्तजन उनकी इस श्रद्धा भक्ति को देखकर काम में मदद करते हैं। मैं भी कभी सोमवार को अपने पुत्र के साथ जाता हूं तो थोड़ा श्रमदान आवश्यक कर देता हूं । वे रास्ता बनाने का कर लगभग 20 वर्षों से कर रहे हैं 4 किलोमीटर रास्ता लगभग तैयार हो गया। 

                      10 वर्षों से आत्मीयता रहने के बावजूद श्री चौहान ने कभी मुझसे कोई मदद नहीं मांगी। सरकारी पदाधिकारी होने के 23 वर्षों के अनुभव से मैंने जाना है कि लोग किसी मदद या पैरवी के उद्देश्य से ही नजदीकियां बढ़ाते हैं।

      हां एक बार श्याम जी चौहान ने मुझे एक काम की पैरवी करने के लिए कहा था । यह वाणावर पर्वत पर सिद्धनाथ मंदिर जाने के मार्ग के किनारे लगाए गए नन्हे बरगद के पेड़ को बचाने के लिए था। अपने बनाए रास्ते के किनारे राहगिरों को छाया के लिए बरगद का पेड़ लगाया था इस उम्मीद से की एक दिन दरख्त बनकर छाया देगा। श्रावणी मेले के ठेकेदारों ने जब बिजली के तार और ट्यूबलाइट से जकड़ कर इसकी इसकी कोपलों को तोड़ दिया तो दुखी मन से उन्होंने रात 10:00 बजे मुझे फोन कर इस पेड़ को बचाने की गुहार लगाते हुए मुझसे यह उम्मीद की कि मैं जिले के कलेक्टर को फोन कर दूॅ । मैं स्तब्ध था कि इस पेड़ की पैरवी इतनी रात को मैं किससे करूं। यदि नहीं करता तो न जाने कब तक मेरी अंतरात्मा मेरे पर्यावरण प्रेमी मन को धिक्कारती रहती, शायद जीवन भर। मैंने तत्काल जिले के उपविकास आयुक्त परितोष जी को रात्रि फोन कर कहा कि मैं एक बरगद के पेड़ की पैरवी के लिए फोन किया है, जो इसे लगवाने वाले श्याम जी चौहान के माध्यम से मुझ तक पहुंची है । परितोष जी ने व्यक्तिगत अभिरुचि लेकर बरगद पर लगा बिजली का तार और ट्यूब लाइट्स को हटवा कर पेड़ को संरक्षित करवाया ।आज श्याम जी चौहान का आना अच्छा लगा परंतु उनकी पत्नी की मृत्यु की सूचना ने मुझे आहत किया। मैंने भारी मन से उन्हें 1:30 बजे विदा किया उनकी गाड़ी 3:00 बजे थी।