22 दिसंबर 2019
आज राजगीर जाने की तैयारी है. इससे पहले 15 दिसंबर को कार्यक्रम निर्धारित किया गया था, पर बे-मौसम बरसात और अचानक बढ गई ठंढ के कारण तिथि बढा दी गई थी. मै दोपहर 12.30 बजे ब्रह्मकुंड पहुंच गया, साथ में लाल बाबू सिंह, विलास जी और ऋतुराज जी भी थे. हमलोग दो घंटे बिलंब से पहुंचे थे सो गर्म कुंड मे स्नान की हसरत मन में ही रह गई. ब्रह्मकुंड के सीढियों चबुतरों और मंदिरों को पारकर वैभारगिरी की ओर बढ गये. यह मार्ग पर्वत शिखर पर जैन मंदिरों की श्रृंखला की ओर जाता है. दिसंबर की गुनगुनी धुप और रमणीक हरियाली एक मोहक आवरण के साथ, निहारते रहने को लुभा रहा था. मार्ग में ज्यादातर पर्यटक जैन तिर्थयात्री थे. कुछ वृद्ध यात्री खटोले (चार व्यक्तियों द्वारा कंधे पर ढोयी जानेवाली सवारी). साहित्यिक आयोजन के हिसाब से वैभारगिरी पर्वत पर सप्तपर्णी गुफा के समीप बेल्वाडोव एक दुर्गम स्थल है.
वैभारगिरी चढने के लिये सीढियाँ बनी थी जो जैन मँदिरों की श्रृँखला तक जाती है, मै दल-बल के साथ पर्वतारोहण का आनंद ले रहा था, तभी मेरा ध्यान आस-पास की चट्टानों पर गयी . मै कुछ चट्टानो को देख आश्चर्य में पड़ गया.
glossopteris के वृक्ष आज से लगभग 300 मिलियन वर्ष पहले super continent पैंजियाना के दक्षिणी भाग में पाये जाते थे.पैंजियाना का दक्षिणी भाग जो भूगर्भिक आंतरिक प्रक्रियाओं के कारण धीरे-धीरे अलग हुआ, गोंडवाना कहलाता है.
राजगीर के वैभारगिरी पर्वत पर इसकी भरमार है, परन्तु यह अबतक कहीं रिपोर्टेड नहीं है. किसी पुराजिवाश्मशास्त्री (PALAEONTOLOGIST) ने राजगीर की पहाङियों पर बिखरे जिवाश्मों का अध्ययन नही किया है. इस तरह के जिवाश्म अफ्रिका और दक्षीण अमेरिका मे 1995 ई0 मे भी मिले हैं. दक्षिणी गोलार्द्ध के सभी महाद्विपों पर glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म पाये जाते हैं. भारत मे बहुत कम स्थानों से इसके मिलने की सूचना है. इस प्रकार राजगीर पुरातत्व के साथ पुराजिवाश्म का भी खुला संग्रहालय है , जिसे हमे संरक्षित करना है.
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