'वर्चस्व' राजेश पांडे की पुस्तक का नाम है, जो वर्ष 2004 में प्रकाशित हुई है. इसी वर्ष पुस्तक के तीन संस्करण आ चुके हैं.पुस्तक के फ्लैप पर एक ओर "सत्य कथा'
अंकित है और दूसरी ओर 'उत्तर प्रदेश के एक आपराधिक कालखंड की सच्ची दास्तान' . लेखक 1996 बैच के यूपी पुलिस प्रांतीय सेवा के अधिकारी हैं, जिन्हें भारतीय पुलिस सेवा में वर्ष 2005 में प्रोन्नति दी गई है . यह वर्ष 2021 मे सेवानिवृत्ति हुए. 35 वर्ष की पुलिस सेवा के बाद कोविड काल में पुस्तक को लिखने का ख्याल आया.
इसी तरह के एक पुस्तक की रचना बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी (1998 बैच) अमित लोढ़ा ने 'बिहार डायरीज' नाम से की है, जिस पर वेब सीरीज 'खाकी' बना, जो पुस्तक से कहीं ज्यादा लोकप्रिय हुई . य़ह पुस्तक 2018 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई , इसकी भूमिका न जाने क्यों टिंकल खन्ना से लिखवाई गई .
अपराधिक कालखंड की चर्चा करते हुए लेखक ने लिखा कि इसकी शुरुआत 1975 में भारत के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या (जो उनके गृह नगर समस्तीपुर में हुई थी) के साथ हुई. परंतु इसका अंत कब हुआ सो नहीं लिखा है. न हीं यह लिखा कि आपराधिक कालखंड अभी चल रहा है.
यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के दूर्दांत अपराधी को केंद्र में रखकर लिखी गई है. उसके एनकाउंटर के साथ ही पुस्तक समाप्त हो जाती है. 295 पृष्ठ के पुस्तक से गुजरते हुए पाठक हत्या दर हत्या अपराध की दुनिया से रूबरू होता है. पुलिसिया कार्रवाई एसoटीoएफo का गठन उसे उबाउ लगने लगता है और वह उन पन्नों से सरसरी तौर पर आगे बढ़ते हुए एक जासूसी उपन्यास की तरह नए संभावित घटनाओं को तलाशता है. इस पुस्तक में 'पल्प फिक्शन' सा आकर्षण तो है, पर कहीं से साहित्य की श्रेणी में रख पाना मुश्किल है . यदि इसमें साहित्य के किसी रस की तलाश की जाए तो 'वीभत्स रस' के अलावा और कोई रास नहीं मिलता है .
. लेखक ने बेबाकी से कुछ ऐसी शख्सियत का उल्लेख किया है जो अपराध की दुनिया से राजनीति में आए और कई अपराधी घटनाओं के षड्यंत्र कर्ता रहे. एक दो मामला तो बिहार से जुड़ा है . बिहार की अब तक चर्चित राजनीतिक हत्या में दूसरे नंबर पर इसका जिक्र करते हुए उनकी स्पष्ट भागीदारी बताई गई सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद यह पुस्तक और पात्र पुनः चर्चा में आए. इस परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं पुस्तक के विवरण में विरोधाभास है. लेखक का दायित्व बनता है कि एक बार फिर न्याय निर्णय का अध्ययन बताएं कि चूक किस स्तर पर हुई है.
पुस्तक जो जुगुप्सा का भाव पैदा करता है. कहीं-कहीं लगता है कि यह अपराध के रास्ते राजनीतिक सत्ता हासिल करने की प्रक्रिया का महिमा मंडल कर रहा है. यद्यपि लेखक का उद्देश्य यह नहीं है. पाठक पुस्तक के उन पन्नों से तेजी से आगे बढ़ना चाहता है जिसमें एसoटीoएफo का गठन पुलिसिया तैयारी का ब्यौरा है. एक डर यह भी है कि अपराध जगत में प्रवेश कर गए युवा इस पुस्तक से सबक लेकर वह गलतियां ना करें जो इसके मुख्य पात्र ने की ,व्यभिचार में लिप्त होने और मोबाइल के प्रयोग के चलते ही वह पकड़ में आया और मारा गया.
मैं यह सलाह दूंगा की 16 से 18 वर्ष के बच्चों को पढ़ने के लिए इस पुस्तक को अनुशंसित ना की जाए. हताशा निराशा या प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता उन्हें सत्ता की ओर जाने के लिए बंदूक का सहारा लेने की प्रेरणा ना दे दे. पुस्तक के अंत के पहले तक माओ की पंक्तियां इस पर लागू होती है की 'राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है' परंतु मुख्य पात्र के एनकाउंटर के बाद इस धारणा को विराम लगता है .जिसका विवरण पुस्तक के अंतिम 10 प्रस्तों पर है. डर यह है कि 295 पृष्ठ की पुस्तक का तरुण पाठक के मन पर यदि पहले के 285 पन्ने ना हावी हो जाए.
एक अपराधी के एनकाउंटर की सूचना मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में दी जाने एवं विधायकों द्वारा मेज थप-थपा कर स्वागत करना और एक दूसरे को बधाइयां देना कहीं ना कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षा लिए दुर्दांत अपराधी का महिमा मंडन ही है. खैर जो भी हो इस पुस्तक में इतना माद्दा था कि मुझसे दो दिन में पढवा लिया. मेरे पुत्र ने इतनी तन्मयता से पढ़ते देखा तो पुस्तक समाप्त होने के बाद मुझसे मांगा पर मैंने कहा कि नहीं, यह पुस्तक मैं बंटी जी से मांग कर लाया उन्हें आज ही लौटना है.