''दुनिया सब बौरी होक, घर-घर बाघिन पोसे''
चन्द्रकिशोर जायसवाल जी की आठ वर्ष पूर्व प्रकाशित कहानी 'बाघिन की सवारी ' एक वैविध्य्पूर्ण रोचक कहानी है.
इसका पूर्वार्द्ध तो अदभुत है. आध्यात्मिक झुकाव के बाद एक व्यक्ति के साधु बनने और समाज में वापस लौटने की कहानी है. उतरार्ध भी कम रोचक नहीं है . इसमें पंचायती राज व्यवस्था से उत्पन परिस्थितियों के बाद सामाजिक ताने-बाने में बदलाब कि भी कहानी है. यह जायसवाल जी कि पैनी दृष्टि और गहन शोध का परिणाम है.
बीस साल बाद हरिलाल जब साधु चरणदास बनकर लौटता है तो उसका बाल-सखा रामबदन उससे घर बसाने की बात करता है तो चरणदास कहता है
' दिन का मोहिनी रात कि बाघिन
पलक पलक लहू चूसे
दुनिया सब बौरी होक
घर-घर बाघिन पोसे '
तब रामबदन गुस्से में कहता है कि 'हम सब बाघिन पोसे हुए है.'
हरिलाल समझता है कि यह साधु के लिए है. साधु समाज का आदर्श बताते हुए कहता है
नारी निरखि न देखिये
निरखि न कीजे दौर
देखे ही ते बीस चढ़े
मन आवे कछु और
नयनों काजर लाईके
गाढे बांधे केश
हाथ मेहँदी लाईके
बाघिन खाया देश
यह जानना रोचक है की साधु समाज के उक्त आदर्श का पालन करने वाले चरणदास किन परिस्थितियों में बाघिन की सवारी का निर्णय लेते है.
जायसवाल जी ने इस कहानी के माध्यम से पाठकों को मठ, आश्रम और आखाड़ो कि दुनिया की यात्रा भी कराते है. नब्बे के दशक के बाद के कथाकारों के लिए यह लगभग अछूता विषय है. समालोचको द्वरा अच्छी कहनी की कई विशेषतायें निर्धारित की गयी है, पर मेरे दृष्टीकोण से अच्छी कहानी वह है, जो पाठकों को वर्षो याद रहे . यह कहानी आठ वर्षों बाद मुझे अभी भी याद है.
श्री चन्द्रकिशोर जायसवाल जी पूर्णिया के ही है, उनकी यह कहानी 'बया' के जून २००७ अंक में छपी थी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें