मंगलवार, 4 सितंबर 2018

वाणावर डायरी-४(बराबर पहाड़ /प्रचीन मंदिर के ध्वंसावशेष )

 वनावर सिद्धनाथ मंदिर, प्राचीन मंदिर के ध्वन्सावशेशों पर बना है वर्तमान मंदिर का गर्भगृह और मण्डप प्राचीन है . परिक्रमा पथ बरामदा एवं गुम्बद का निर्माण हाल के वर्षों में कराया गया है.
यंहा बिखरी मूर्तियाें और अन्य अवशेषों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में एक भव्य मंदिर रहा होगा . मंदिर के पश्चिम आहाते में एक पत्थर पर प्राचीन मंदिर की अनुकृति तैयार की गयी है.
इसका शीर्ष भाग त्रिस्तरीय था. सम्पूर्ण मंदिर बराबर पहाड़ के ग्रेनाईट पत्थर का बना था.


निर्माण कार्य हेतु बड़े चट्टनों को प्राचीन विधि से तोड़ने का साक्ष्य ऊपर के छायाचित्रों में देखा जा सकता है. कुछ लोगों का मत है कि इस मंदिर का निर्माण हर्षवर्धन (मौखरी वंश) के शासन काल में हुआ था. मंदिर बनने से पूर्व पर्वत के शिखर पर  एक बौद्ध स्तूप था.बौद्ध परम्परा के अनुसार भगवान बुद्ध बोधगया जाने से पूर्व बरावर की पहाड़ियों  का भ्रमण किया था, एवं एक वर्ष तक यहीं रहे थे. इसी के शिखर पर से पहली बार मगध क्षेत्र का सिंहावलोकन किया था. इस काल खंड में बौद्धों और सनातन धर्मावलम्बी के बीच  वर्चस्व की लडाई आम थी. शासक वर्ग भी अपनी आस्था के अनुसार इस लडाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे.  सातवीं शताब्दी से अबतक शिव भक्तो का लगातार यंहा आना  लगा  हुआ है, जो बराबर को विशेष दर्जा प्रदान करता है.




         यहाँ मंदिर के आसपास बड़ी संख्या में पत्थर के स्तंभ बिखरे  हैं .






 इन स्तंभों पर ही मंदिर का ढाँचा खड़ा रहा होगा . इस समय मेहराब शैली का प्रवेश भारत में नहीं हुआ था.पूरी संरचना स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पत्थरों से ही बनाया गया था. इतने बड़े पैमाने पर अवशेषों को देखकर कहा जा सकता है कि किसी शासक ने ही इसका निर्माण कराया होगा.
कुछ शिलाखंडों पर अच्छी नक्काशी भी की गयी है.
                      यह किसी बड़े द्वार का उपरी हिस्सा लगता है.
मंदिर ध्वन्श्वशेसों से ही यंहा रहने वाले साधुओं ने मंदिर के ठीक सामने एक विश्रामालय बनाया है .
इसकी बाहरी दीवारों पर आसपास बिखरी मूर्तियों को लगाकर इन्हे संरक्षित करने की कोशिश की गयी थी. बुकानन ने इसका जिक्र करते हुआ लिखा है की कुछ साधु यहाँ रहते है जिन्होंने इस विश्रामालय का निर्माण अठारहवी शताब्दी के मध्य में किया था .वर्तमान में इसपर मंदिर के महंत जी का कब्ज़ा है. इसका निर्माण इस तरह किया गया है की कितनी भी आँधी,पानी, तुफान आये इसमें शरण लेनेवाला व्यक्ति सुरक्षित रहेगा.
 इसके सामने रक्खा चैकोर पत्थर का यह अलंकृत टुकड़ा सीढी के तौर पर इस्तेमाल होता है.


इन अवशेषों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है की, पत्थर के ढांचे को मजबूत पकड़ देने के लिए व्यापक पैमाने पर लोहे का प्रयोग हुआ था.
यह अवशेस मंदिर के प्रवेश द्वार पर है . इसमें लोहे या लकड़ी के विशाल फाटक लगाने का प्रमाण मिलता है.


कई स्थानों पर अलंकृत शिलाखंड इसके भव्य सौन्दर्य की गाथा कहते दीखते है.इस पोस्ट से पहले इस प्राचीन मंदिर के इन ध्वंसावशेषों का कहींं कोई डॉक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है, न ही पूर्व में किसी शोधकर्ता ने इसके पुरातात्विक महत्व पर प्रकाश डालने की कोशिश की है. प्राचीन भारत में उत्तर भारत के गिने चुने मंदिरों में से एक था. इसका विस्तृत अध्यन मंदिरों के स्थापत्य के संदर्भ में नए आयामों को उद्घाटित करेगा .



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