उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मिथिला में विवाह के बाद महिलाओं
की स्थिति में हो रहे ह्रास की चिन्ता समाज में व्याप्त थी। बंगाल की कुलीन विवाह व्यवस्था का कुप्रभाव मिथिला पर कम से कम पड़े इसके लिए उपाय ढूंढने थे। समाज में जो व्यवस्था प्रचलित थी, उसमें ही और सुधार करना श्रेयस्कर माना गया। 1876 में दरभंगा में समिति गठन होने के बाद मधुबनी के एस.डी.ओ. ग्रियर्सन, आरा के पियारे लाल और दरभंगा महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह सौराठ सभा का भ्रमण किए। महाराजा ने अपनी ओर से इस सभा स्थल के विकास के लिए निधि का आवंटन भी किया। इसके पीछे उद्देश्य था कि जब समाज के लोगों के समक्ष, बिलकुल खुले ढंग से, शादी की बात तय होगी तो इसमें भ्रष्टाचार की कम से कम गुंजाइश रहेगी। सौराठ सभा गाछी में प्रत्येक मूल या गांव के लोगों के लिए अलग-अलग वासा बनाया गया जहां लड़का पक्ष के लोग अपने वर को लेकर सभा गाछी पहुंचते थे। लड़की वालों का अलग वासा होता था। दोनों के बीच में समन्वय कराने की जिम्मेदारी 'घटक' की होती थी और अंतिम निर्णय 'पंजीकार' का होता था जो अपनी पंजी के आधार पर, तार के पत्ते पर अश्वजन लिखकर देता था कि लड़का और लड़की के बीच, पिता के संबंधों के आधार पर सात पीढ़ी और मॉं के संबंधों के आधार पर पांच पीढ़ी तक कोई सम्बन्ध नहीं है। विवाह की बात तय होने के बाद शादी के रस्म के बारे में विमर्श होता था। मिथिला में इस परिपाटी को बढ़ावा देने के लिए अन्य 14 गांवों को चिन्हित किया गया और वहां पर भी सभा की स्थापना की गई। इन गांवों में सौराठ, कर्णगढ़ी, परतापुर, शिवहर
, गोविन्दपुर, फत्तेपुर, सझौल, सुखसैना, अखराही, हेमनगर, बलुआ, बरौली, समौल, सहसौला हैं। इसके अतिरिक्त पूर्णिया जिला में भी कई
स्थानों पर सभा गाछी लगने का संदर्भ मिल रहा है। सौराठ में सभा लगने की परंपरा कायम रही जबकि बाकी गांवों में धीरे-धीरे यह परंपरा समाप्त हो गई। सौराठ गांव में आरंभ में पंजिकार के पांच परिवार रहते थे। नीति निर्माताओं का मूल उद्देश्य था कि अधिक से अधिक लड़कियों की शादी कम से कम खर्च में हो जाए ताकि सामाजिक रूप से महिलाओं की स्थिति
में सुधार हो। इधर, लड़की की मॉं अपने पति/परिवार के लोगों को सभा गाछी भेजती थी और अपने घर में चुड़ा-दही का इंतजाम करके रखती थी। पता नहीं, किस दिन सभा गाछी से 'वर' लेकर उनके पतिदेव आ पहुंचे। बहुत ही सादगी से, परन्तु वैदिक मंत्र के साथ विवाह की रस्म संपन्न होती थी। जो विस्तार करना हो, कोजागरा में होता था। उस दिन सभी सगे-सम्बन्धियों को आमंत्रण दिया जाता था। नटुआ-गवैया आदि का भी
इंतजाम होता था। भोज वगैरह भी होता था। लेकिन घटक, पंजिकार और दहेज व्यवस्था ने सौराठ सभा की सारी व्यवस्था को अपने ढंग से 'नियंत्रित' कर लिया। अब यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है कि सभा गाछी में
बिना दहेज की शादी तय होती है। जब मिथिला में दहेज व्यवस्था रहेगी तो फिर बिकौआ विवाह, बाल विवाह, बेमेल विवाह या बहु विवाह किसी न किसी स्वरूप में कैसे नहीं रहेगी। हॉं, समय के साथ इसमें परिवर्तन तो होता ही है।
(फेसबुक पर दर्ज भैरव लाल दास की टिपण्णी )
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