पूर्णिया डायरी-16 से आगे ......
पूर्णिया 1887 ईस्वी
महामारी के दौरान की घटना की एक जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. इस घटना ने पूर्णिया को कलंकित किया है. इतिहास केवल गौरव गाथा नहीं. विफलता लाचारी और कुंठा के कारण घटित घटनाएँ जो जन -जीवन को प्रभावित करती है वह भी इसका अंग है.
आकस्मिक हालत में फोर्ब्स एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जा रहे थे जिसकी दूरी दो मील थी. रास्ते में खुले स्थान पर कोंड जनजातियों का एक समूह मिला, ये जनजाति मुख्य रूप से कोंड-महाल ओड़िसा के थे. जो मजदूरी के लिए पूर्णिया लाये गये थे, और यहीं बस गये थे. भीड़ में से आ रही पैशाचिक चिल्लाहट तेज होती जा रही थी. उन लोगों का उत्साह चरम पर था. फोर्ब्स समीप पंहुंचे, एक को बुलाकर पूछा कि क्या हो रहा है. उसने एक ही उत्तर दिया की सब ठीक है. वे उत्सुकतावश उस भीड़ में घुस गये. भीड़ के बीच में लकड़ी की ऊँची वेदी थी, जिसपर चार-पांच साल के बच्चे को लिटाया गया था. वेदी के पास एक कोंड पूजारी बड़ा सा चाकू लिए खड़ा था. फोर्ब्स समझ पाते की यंहा क्या हो रहा है इससे पहले ही उसने चाकू बच्चे के सीने में उतार दिया . भीड़ और हत्यारे पूजारी पर पैशाचिक प्रवृती इस कदर हावी थी की वंहा एक भी शब्द कहना खतरे से खाली नहीं था.ऐसा फोर्ब्स ने लिखा है. यदि Ducarel जैसा साहस वे दिखाते तो बच्चे को बचा सकते थे , पूर्णिया की धरती कलंकित नहीं होती .
खैर फोर्ब्स ने उस भीड़ में से एक को पहचान लिया जो पास के नील की फैक्ट्री में कुली का काम करता था.अगले दिन उससे पूछ-ताछ की गयी. उसने स्वीकार किया कि महामारी और मृत्यु से भयभीत कोंडो ने अपने भगवान को खुश करने के लिए उस बच्चे की बलि दी थी. बच्चे की माँ उसी दिन सुबह में महामारी से मरी थी, उसे चुराकर लाया गया था. इस कांड का मुख्य कर्ता कभी गिरफ्तार नहीं किया जा सका. सड़े मांस खाने की आदत के कारण दो-तीन दिनों के अन्दर महामारी की चपेट में आ काल के गाल में समां गये.
क्रमशः......
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