बंगाल से अलग होने के बाद सन् १९१५ इस्वी में बिहार में एक Indological research society का गठन किया गया बिहार रिसर्च सोसायटी . बीसवीं सदी का एक महत्वपूर्ण शोध संस्थान बना. एशियाटिक रिसर्च सोसाइटी के बाद बिहार रिसर्च सोसाइटी ही भारत का सबसे अहम indological research institute है . यह विश्व के कुछ एक शोध संस्थानों में से है जो अपनी पत्रिकाओं (journals) के लिए जाने जाते है.
इस सोसाइटी की पहली बैठक में ही यह निर्णय लिया गया था कि बिहार में संग्रहालय भवन निर्माण के लिए स्थानीय सरकार से अनुरोध किया जाये . इस भवन के दो कमरे बिहार रिसर्च सोसायटी के लिए होंगें. पहली बैठक आयुक्त पटना के कार्यालय कक्ष में हुई थी.इस बैठक में स्थानीय सरकार से ३००० रूपये वार्षिक अनुदान देने का भी अनुरोध किया गया था , क्योंकि बंगाल रिसर्च सोसाइटी को ३६०० रूपये का सालाना अनुदान मिल रहा था.
१ फ़रवरी १९२९ को पटना संग्रहालय का अपना भवन तैयार हुआ जिसे अभी बुद्ध मार्ग पर देखा जा सकता है .
निर्णय के अनुसार राजपूत शैली में नवनिर्मित संग्रहालय भवन के उत्तर-पश्चिम भाग के दो कमरे बिहार रिसर्च सोसायटी को मिले जिसमे यह आज भी चल रहा है.
संग्रहालय भवन में आने के बाद इस संसथान को एक घुमक्कड़ संत का सहयोग मिला. उनके द्वारा कई सामग्रियां इस संस्थान को दी गयी. इन सामग्रियों ने इसे २०वीं शताब्दी में सृजित विश्व के शीर्षस्थ धरोहरों में से एक बना दिया .
ये महान संत राहुल संकृत्यायन थे . उनके द्वारा तिब्बत से लाई गयी लगभग दस हज़ार तिब्बती पांडुलिपियाँ यंहा संरक्षित है . ये सभी बौद्ध धर्म से सम्बंधित ग्रंथों की पांडुलिपियाँ हैं.
नालंदा , विक्रमशिला विश्वविद्यालय से जो संस्कृत, पाली के ग्रन्थ यंहा अध्यनरत तिब्बती बौद्ध भिक्षु द्वारा ७वीं शताब्दी से १८वीं शताब्दी तक लाये गाये थे , उन्ही का तिब्बती रूपांतरण था. ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में अब न भारत में है न ही तिब्बत में
.
वे १९२९ से १९३८ के बीच वे चार बार तिब्बत गये . इन पांडुलिपियों को खच्चरों पर लादकर कठिन मार्ग से लाया. ठीक वैसे ही जैसे हान्शांग भारत से बौद्ध ग्रंथों को चीन ले गये थे.
आज मै सन १९७३ में संस्थान के जर्नल में प्रकाशित एक लेख की तलाश में यंहा आया था,
जो मुझे मिल गया .मैंने इन संरक्षित पांडुलिपियों को देखा जो कीटनाशक उपचारित डब्बे के अन्दर लाल कपडे में सहेज कर रखे गये हैं , इन पांडुलिपियों के साथ कुछ थंका पेंटिंग भी उनके द्वारा लाई गयी थी जो यंहा संरक्षित है .
मैंने वह कुर्सी भी देखी जिसपर बैठकर राहुल संकृत्यायन काम करते थे . इन तिब्बती पांडुलिपियों के अतिरिक्त
बिहार रिसर्च सोसायटी में लगभग ३०० फारसी (persian ) पांडुलिपियाँ भी सुरक्षित है. वर्ष २००२ में बिहार सरकार ने इसे अपने अधीन ले लिया , अब यह पटना संग्रहालय का अंग है. बिहार सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग के अधीन . अब इन संरक्षित पांडुलिपियों के शिघ्र प्रकाशन और अनुवाद की संभावना है.
इस सोसाइटी की पहली बैठक में ही यह निर्णय लिया गया था कि बिहार में संग्रहालय भवन निर्माण के लिए स्थानीय सरकार से अनुरोध किया जाये . इस भवन के दो कमरे बिहार रिसर्च सोसायटी के लिए होंगें. पहली बैठक आयुक्त पटना के कार्यालय कक्ष में हुई थी.इस बैठक में स्थानीय सरकार से ३००० रूपये वार्षिक अनुदान देने का भी अनुरोध किया गया था , क्योंकि बंगाल रिसर्च सोसाइटी को ३६०० रूपये का सालाना अनुदान मिल रहा था.
१ फ़रवरी १९२९ को पटना संग्रहालय का अपना भवन तैयार हुआ जिसे अभी बुद्ध मार्ग पर देखा जा सकता है .
निर्णय के अनुसार राजपूत शैली में नवनिर्मित संग्रहालय भवन के उत्तर-पश्चिम भाग के दो कमरे बिहार रिसर्च सोसायटी को मिले जिसमे यह आज भी चल रहा है.
संग्रहालय भवन में आने के बाद इस संसथान को एक घुमक्कड़ संत का सहयोग मिला. उनके द्वारा कई सामग्रियां इस संस्थान को दी गयी. इन सामग्रियों ने इसे २०वीं शताब्दी में सृजित विश्व के शीर्षस्थ धरोहरों में से एक बना दिया .
ये महान संत राहुल संकृत्यायन थे . उनके द्वारा तिब्बत से लाई गयी लगभग दस हज़ार तिब्बती पांडुलिपियाँ यंहा संरक्षित है . ये सभी बौद्ध धर्म से सम्बंधित ग्रंथों की पांडुलिपियाँ हैं.
नालंदा , विक्रमशिला विश्वविद्यालय से जो संस्कृत, पाली के ग्रन्थ यंहा अध्यनरत तिब्बती बौद्ध भिक्षु द्वारा ७वीं शताब्दी से १८वीं शताब्दी तक लाये गाये थे , उन्ही का तिब्बती रूपांतरण था. ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में अब न भारत में है न ही तिब्बत में
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वे १९२९ से १९३८ के बीच वे चार बार तिब्बत गये . इन पांडुलिपियों को खच्चरों पर लादकर कठिन मार्ग से लाया. ठीक वैसे ही जैसे हान्शांग भारत से बौद्ध ग्रंथों को चीन ले गये थे.
आज मै सन १९७३ में संस्थान के जर्नल में प्रकाशित एक लेख की तलाश में यंहा आया था,
जो मुझे मिल गया .मैंने इन संरक्षित पांडुलिपियों को देखा जो कीटनाशक उपचारित डब्बे के अन्दर लाल कपडे में सहेज कर रखे गये हैं , इन पांडुलिपियों के साथ कुछ थंका पेंटिंग भी उनके द्वारा लाई गयी थी जो यंहा संरक्षित है .
मैंने वह कुर्सी भी देखी जिसपर बैठकर राहुल संकृत्यायन काम करते थे . इन तिब्बती पांडुलिपियों के अतिरिक्त
बिहार रिसर्च सोसायटी में लगभग ३०० फारसी (persian ) पांडुलिपियाँ भी सुरक्षित है. वर्ष २००२ में बिहार सरकार ने इसे अपने अधीन ले लिया , अब यह पटना संग्रहालय का अंग है. बिहार सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग के अधीन . अब इन संरक्षित पांडुलिपियों के शिघ्र प्रकाशन और अनुवाद की संभावना है.
Sir please contact number early as possible
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