शनिवार, 16 दिसंबर 2017

इस्लामपुर डायरी (islampur diary) - 2

इस्लामपुर का लाल किला जिसे दिल्ली दरबार के नाम से भी जाना जाता है। इसके निर्माण की तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है । इसकी स्थापत्य शैली अद्भुत है ऐसा लगता है कि स्थापत्य कला इतिहासकारों का ध्यान इस ओर अभी तक नहीं गया है ।
दिल्ली के लाल किले से प्रेरित होकर इस का निर्माण किए जाने की बात सही प्रतीत होती है .हो भी क्यों ना लाल किला मुगलिया दौर में सत्ता का केंद्र था जो मनसबदारों, क्षेत्रीय राजाओं, प्रांतिय सूबेदारों की  महत्वाकांक्षा का प्रेरणा स्रोत था 
इस्लामपुर का चौधरी खानदान भी इससे अछूता नहीं था । इसमें कोई संदेह नहीं कि किले का निर्माण सैनिकों के रहने उनके रखरखाव और दैनिक कवायदात के लिए किया गया था। इन सबसे ऊपर इस्लामपुर की सुरक्षा और लगान वसूली में मदद जिस पर यह राजसी ठाठ चल रहा था।
स्थाई बंदोबस्त के कुछ सालों बाद जमींदारों से पुलिस प्रशासन का अधिकार वापस ले लिया गया । उसके बाद इस किले की उपयोगिता घट गई । फीलवक्त यह किला इंडो-इस्लामिक, गोथिक , के साथ पुनर्जागरण (Renascence) स्थापत्य शैली के सामंजस्य का नमूना है।
किले का मुख्य द्वार पूरब की ओर है । यह एक विशाल प्रवेश द्वार है जो इंडो-इस्लामिक शैली में बना है ।मुख्य द्वार उत्तर और दक्षिण की तरफ दो भूजाओं की तरह लंबे बरामदे हैं ।
इससे जुड़े मेहराबदार दरवाजों वाले कमरे  हैं जो सैनिकों के लिए बने थे । किले की सुरक्षा के लिए छत के उत्तरी और दक्षिणी छोर पर बनाअष्टकोणिय गुंबदनुमा प्रहरी छतरी है ।
                
इसके निर्माण में बड़े पैमाने पर पक्की ईटों का प्रयोग किया गया था ।ईटो को जोड़ने के लिए सूर्खी-  चूने का मिश्रण(lime mortar) प्रयुक्त होता था। यह मिश्रण एडहेसिव मीडियम है। इसमें ईटों को जोड़ने के लिए सूर्खी-  चूने के अतिरिक्त गज-ऐ-सरीन (gipsum), सिरीस(tred glue) उरद दाल और सन(जूट)का प्रयोग किया जाता था। सभी का मिश्रण तैयार कर 21 दिनों तक छोड दिया जाता थातब इसका प्रयोग ईटों को जोड़ने के लिए गारे(mortar) के रुप में किया जाता था । इससे ईटों के ऊपर प्लास्टर और उन पर अलंकृत डिजाइन तैयार किया जाता था । 21 दिन से ज्यादां समय इसे सेट होने में लगता था। एक बार सेट होने के बाद यह पत्थर से भी अधिक मजबूत हो जाता था ।
इस किले के बाहरी दीवारों पर प्लास्टर नहीं है लेकिन अंदर की दीवारों पर प्लास्टर है।
किले के उत्तरी एवं दक्षिणी छोर पर दो अष्टकोणिय बुर्ज बने थे , इनमें से एक किले का उतरी भाग के ध्वस्त हो जाने के कारण अस्तित्व में नहीं है । यह बुर्ज पर्सियन स्थापत्य शैली में निर्मित है ।अष्टकोणिय बुर्ज मुगलकालीन शासकीय और धार्मिक भावनों की अपरिहार्य विशेषता हैं । सासाराम मैं निर्मित शेरशाह का मकबर भी इसी तरह का एक वृहताकार अष्टकोणिय गुंबद है ।
यह सोलह बलुआ पत्थरों के स्तंभ पर  ईंटों का अष्टकोणिय गुंबद है , जिसे संभवतः किले के सुरक्षा के प्रहरियों के लिए बनाया गया था ।
यहां से चारों ओर देखा जा सकता था ।16 स्तंभों के कारण इसकी संरचना ऐसी है कि नीचे से कोई कितना भी बड़ा निशानेबाज क्यों ना हो वह ऊपर खड़े सैनिक पर सही निशाना नहीं लगा सकता था। इसके उलट यदि ऊपर से नीचे निशाना  लगाया जाए तो वह कभी नहीं चुकता था।
इस किले के पश्चिमी ओर मुख्य दरवाजे से दक्षिण की त्रिकोणीय शिर्ष संरचना पर रोमन गोथिक शैली का प्रभाव देखा जा सकता है । इसका तिकोना शिखर और उसके आगे बने कॉलम गोथिक शैली में बने पटना कॉलेज के मुख्य प्रशासनिक भवन की याद दिलाता है जिसे अंग्रेज से पहले डचों ने अफीम भंडारण के लिए बनाया था । इस तरह की संरचना पुनर्जागरण काल के पूर्व रोम के साथ पूरे यूरोप के स्थापत्य की विशेषता रही है ।
मुख्य दरवाजे के दोनों ओर बने दो लंबे पिलर पुनर्जागरण कालीन स्थापत्य शैली कोः  प्रतिबिंबित करता है जो यूरोप में पुनर्जागरण के उपरांत इटली में विकसित हुआ। कालांतर में संपूर्ण विश्व के स्थापत्य पर अपना प्रभाव डाला । मुख्य द्वार के दोनों ओर इस तरह के कॉलम बनाए जाने की विशेषता इंडो- इस्लामिक स्थापत्य में नहीं बल्कि भवन के चारों कोनों पर ऊंची मिनार बना जाता  है ,जो इस किले में नहीं है । मुझे ऐसा लगता है कि इंडो-इस्लामिक गोथिक और पुनर्जागरण कालीन स्थापत्य शैली की विशेषताएं समेट इस्लामपुर किला बिहार का अकेला उदाहरण है। इस किले के गुमनाम शिल्पकारों को मेरा नमन ।


गुरुवार, 31 अगस्त 2017

पूर्णिया डायरी-6( purnea diary-6) मैला आंचल :उत्तर कांड

    (  मधु सिंह के फेसबुक वॉल से )
                         
आदरणीय रेणु जी,
                  सादर प्रणाम
        आप मुझे नहीं जानते पर मैं आपको जानता हूँं  ।जब आपने लौकिक शरीर का त्याग किया तो मैं 3 वर्ष 4 महीने का था ।आप अल्पायु में चले गए ,यदि जानकी वल्लभ शास्त्री जी की तरह दीर्घायु होते तो शायद मैं आप से मिल पाता ।परंतु नियति का यह अघोषित विधान है कि जिसमें जितनी अधिक मात्रा में संवेदना और विद्वता जैसे गुण देता है उसी अनुपात में उम्र में कुछ कटौती कर लेता है ।चाहे स्वामी विवेकानंद हो या आप ।
          आपसे मेरी पहली मुलाकात सन् 1988 में वर्ग दशम की हिंदी शिक्षिका सुशीला टीचर ने कराई थी, 'ठेस ' कहानी पढ़ाते हुए। दूसरी मुलाकात दूरदर्शन ने सन् 1990 में करायी , जब उसने 'तीसरी कसम ' का प्रसारण किया । उसके बाद मैं आपको ढूंढता फिरता, कभी पटना कॉलेज के पुस्तकालय में, कभी तरुण सर के क्लास में ,कभी अशोक राज पथ के राजकमल प्रकाशन की दुकान में तो कभी गांधी मैदान के फुटपाथ पर फैले पुराने किताब की दुकानों पर, आप कहीं न कहीं मुझे मिल जाते ।
     ' मैला आँचल ' मैंने कई बार पढ़ा, जितनी बार पढ़ता उतनी बार नये पात्र मिलते और कथा रस के नए तत्व की अनुभूति होती ।
          संयोग से जीवन के कालचक्र ने मुझे सन् 2003 में पूर्णिया पहुंचा दिया, जिसने सुना कि मैं पूर्णिया जा रहा हूं वह दुःखी हुआ , मेरे प्रति संवेदना व्यक्त की , ब्रिटिश काल से ही पूर्णिया  ' काला पानी ' की सजा माना जाता रहा है। यह कहावत भी कई लोगों ने सुनाया "ज़हर खाउ न आमिल खाऊ , मरे के छै त पूर्णिया जाउ।"
              पर मेरे पास कोई चारा न था ,अपना सामान एक बैग में रखा और हार्डींग  पार्क से पूर्णिया जाने वाली बस 'राज रथ ' पकड़ लिया। बस ने सबेरे पूर्णिया उतार दिया। मैं रिक्शे पर बैठ, रिक्शे वाले को डी.एम. कार्यालय चलने को कहा, वह मुझे डी.एम. आवास लेकर चला गया। वहां से पूछते- पाछते डी.एम. कार्यालय पहुंचा, तब रिक्शेवाले ने मुझे बहुत डांटा कहा कि आपको कहना चाहिए था न कि कचहरी जाना है ।पूरा  शहर घुमा दिया ।मैं शर्मिंदा हुआ ।तब मुझे आपकी याद आई ,याद आए रामकिशन बाबू जो पूर्णिया कचहरी में वोकालत करते थे । ऐसी दमदार बहस करतेे कि पुरानी कचहरी की छत से प्लास्टर झड़ने लगता था।
      कुछ दिनों बाद मैं इस शहर में स्थापित हो गया। पूर्णिया आने के उपरांत मैं आपके पात्रों को ढूंढने लगा । रोज ढूंढता । कार्यालय में , बाजार में ,सड़क पर , कई मिल जाते कुछ नहीं मिले । जो नहीं मिले ढूंढते-ढूंढते उनका भी अता-पता ले लिया। सुनिए-
    *                          *                  *                                         
                        कमली से गंधर्व गंधर्व विवाह और नीलोत्पल के जन्म के बाद डॉ प्रशांत को मेरीगंज रहना रास नहीं आ रहा था । दबी जुबान से तहसीलदार साहब के बारे में लोग तरह तरह की बात करने लगे थे । वैसे भी डॉक्टर साहब पटना से दिल्ली तक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित आलेखों के कारण प्रसिद्ध हो गए थे । उनसे बड़ा मलेरिया और कालाजार का विशेषज्ञ बिहार में न था । डॉ साहब का शोध भी इस निष्कर्ष के साथ पूरा माना जा सकता था कि, रोग के दो ही कीटाणु है , गरीबी और जहालत ।फिलवक्त नीलोत्पल और कमली के साथ पटना लौटने का निर्णय लिया।
        कालीचरण मजदूर और मजलूमों का मसीहा बनकर उभरा , गरीबों की आवाज , उनके मुद्दे पर लाल झंडा लेकर धरना प्रदर्शन घेराव उसके रोज के कार्यक्रमों में शुमार था ।
            मंगला देवी मेरीगंज का चरखा सेंटर छोड़ पूर्णिया लौट आई थी । कालीचरण का ज्यादा समय पूर्णिया में ही बितता दिन पार्टी कार्यालय में , रात मंगला देवी के घर ।
        रामदास को कई असाध्य बीमारियां हो गयी है ।मठ लाल झंडे वालों का अघोषित कार्यालय हो गया है । रामदास कुछ दिन बाद ब्रम्हलीन हो गए ।दासी कोठारिन रामपड़ी को कालीचरण ने मठ की कुछ जमीन दे दी। शेष पर लाल झंडा गाड़ पार्टी के मूमिहीन सदस्यों के बीच बाँट दिया।
                                 तीन साल बाद कालीचरण और मंगला देवी को बेटा हुआ । उसका नाम उन्होंने लेनिन यादव रखा। पूर्णिया में पाँच एकड़ जमीन पर लाल झंडा गाड़ बीच मे पार्टी कार्यालय , इसके चारों ओर  जो कच्चे-पक्के मकान और झुग्गी-झोपड़ी का विस्तार हुआ उसका नाम मार्क्सवादी नगर रखा गया । इस पर बसे लोग को नियमित रूप से पार्टी कार्यालय में आन्दोलन के लिए चंदा देना पड़ता था। धरना पर्दशन मे हर परिवार से कम से कम दो व्यक्तियों को जाना अनिवार्य था।
                सुनते हैं की जमींदारी उन्मूलन के बाद सरकार ने बड़े भूतपूर्व जमींदारों की सूची विधानमंडल में रखी जिन पर भू-हदबंदी के मुकदमे में चल रहे थे । इसमें सबसे बड़ी जोतों के जमींदार पूर्णिया  के ही थे । कालीचरण अपने भाषणों में यह सूची को पढ़ता था,  इन्हे शोषण का प्रतीक बता गरीब मजदूरों में पैठ  बनाता ।
      मेरीगंज चरखा सेंटर बंद हो गया था । बालदेव जी लछमी के साथ ही रह रहे थे । तंत्रिमा टोला की बँसबाड़ी के पीछे एक नवजात बच्चा मिला । दोनों ने इसे गोद लिया । नाम रखा कबीर गांधी । लोगबाग कहते की यह बच्चा रामपड़िया का है । बालदेव जी के पास अब कोई आता-जाता नहीं था । कभी-कभार वही पूर्णिया कांग्रेस कार्यालय जाकर नए-पुराने नेताओं को दुआ सलाम कर आते थे । लछमी फिर कभी लौट कर मठ नहीं गई , रामदास ब्रम्हलीन हो गए तब भी नहीं । अभी भी सुबह शाम बालदेव जी को गुरुवाणी सुनाती है।
   डॉक्टर प्रशांत ने नाला रोड में किराए का मकान लेकर प्रैक्टिस शुरू किया ।पूरे बिहार यू०पी० में कालाजार मलेरिया के मरीज पहुंचने लगे ,एक क्षण की भी फुर्सत नहीं मिलती । तहसीलदार विश्वनाथ बाबू ही कभी-कभार मिलने चले आते थे । प्रशांत कभी लौट कर फिर मेरीगंज नहीं गए ।
                 डॉ ममता जो पटना मैं स्थापित समाज सेविका थी । उसे लगा कि शहर से ज्यादा गरीबी और जहालत गांव में है , वहां उसकी जरूरत है । वह गांव में काम करना चाहती थी । पिता डॉक्टर कालीप्रसाद श्रीवास्तव ने लाख समझाया पर नहीं मानी ।वह गांव जाकर रहना चाहती थी, वही गांव जिसने डॉक्टर प्रशांत को उससे छीन लिया । वह मेरीगंज चली गई । डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मलेरिया सेंटर के बगल में किराए का मकान लेकर लोगों का निःशुल्क इलाज करने लगी ।            
         संयोजक जी की काली टोपी वाली पार्टी का प्रभाव मेरीगंज तथा आसपास के इलाकों में बढ़ने लगा था, खासकर वहां , जहां मुसलमानों की आबादी अधिक थी ।
    इमरजेंसी और उसके एक-दो साल बाद तक की बातें जो आपको पता ही है । आगे का हाल मैं सुनाता हूं।
       सन् 1984 से शुरु करता जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई । मैं माँ के साथ अपने गांव पर था। मां कतकि छठ करने गांव गई थी ।पारन के दिन रह समाचार रेडियो पर प्रसारित हुई तो साहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ ।अगले दिन मां पिताजी के साथ पटना के लिए प्रस्थान कर गया । पटना पहुंचा शहर में कर्फ्यू लगा था। दस वर्ष की आयु की बहुत सारी स्मृतियां संरक्षित है कुछ धुँधली जरूर हो गई है । अच्छा है कि आप चले गए नहीं तो यह सब देख आपको दुःख होता । स्टेशन पर हमलोग इंतजार करते रहे , कुछ घंटो के लिए कर्फ्यू में ढ़ील दी गई तो रिक्शा से निकल पड़े । रास्ते में देखा कि कुछ दुकानों को लूटकर जला दिया गया है । बड़ा हुआ तो जाना कि उन दंगों में संप्रदाय विशेष के साथ ऐसा हुआ था । डेज़ी और रोजी पटना की दो प्रसिद्ध मिठाई की दुकान थी , उसका भी यही हश्र हुआ । आपने इन दुकानों का नाम सुना  होगा ।
                                                    इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुन बालदेव जी की तबीयत बिगड़ गई । एक दिन सोए सो सोए रह गए । लछ्मी दौड़ी-दौड़ी ममता के पास गई । ममता ने आकर नब्ज टटोला आंखों की पुतलियाँ  खोलकर देखी , पिंजरे का चिड़िया उड़ चुका था । ममता ने कहां हार्ट अटैक हुआ है  ।
  पूर्णिया से कई बड़े कांग्रेसी नेता बालदेव जी के श्राद्ध में आए  । सहानुभूति व्यक्त की । लक्ष्मी के कहने पर कांग्रेस अध्यक्ष ने फारबिसगंज के जिला खादी बोर्ड कार्यालय में कबीर गांधी को कल्र्की की अनुशंसा कर दी। कुछ दिन बाद उसे फारबिसगंज से नौकरी का बुलावा आ गया । लछमी भी अब फारबिसगंज में ही रहती है ।
                                                   इधर डॉक्टर प्रशांत के क्लीनिक पर मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है थी। राजेंदर नगर के डॉक्टर्स कॉलोनी में आठ कठ्ठे का बड़ा प्लॉट लेकर एक ख़ूबसूरत बँगला बनवाया  'नीलकमल' ।आगे पार्क और फाउंटेन भी बना । अब डा० प्रशांत का स्थायी पता हुआ डी-66 डॉक्टर्स कॉलोनी राजेंदर नगर पटना । क्लीनिक का प्रबंधन कमली ने अपने हाथ में ले लिया था । प्रशांत को पैसा से कोई मतलब नहीं था , पर वह पैसा कमाने की मशीन बन गए थे ।
   नीलोत्पल के बाद कमली को एक बेटी हुई कौशिकी । नीलोत्पल पी०एम०सी०एच० से डॉक्टरी पास कर एफ०आर०सी०एस०करने लंदन चला गया। कौशिकी दरभंगा मेडिकल कॉलेज मे डॉक्टरी पढ़ रही थी । प्रशांत पटना के एक अहम हस्ती हो गये थे। जिन्हे प्रायः सभी क्षेत्रों के नामचीन लोग जानते थे । मिलना चाहते थे ।अब प्रशांत कभी मेरीगंज की चर्चा नहीं करते । तहसीलदार साहब को मरे हुए 15 साल हो गए । उनका श्राद्ध भी पटना में ही किया गया।
                          कालीचरण के पदचिन्हों पर चलकर लेनिन यादव  गरीब -मजदूर का मसीहा बन गया। कालीचरण को मरे हुए पाँच साल हो गया ।लेनिनी यादव पटना से दिल्ली तक के नामी कामरेड है। पूर्णिया धमदाहा ,के० नगर, श्रीनगर, नरपतगंज , में भूतपूर्व जमींदारों के हजारों एकड़ जमीन पर लाल झंडा गाड़ भूमिहीन संथाल , अति पिछड़ी जाति एवं अनुसूचित जातियों के लोगों को दखल कब्जा दे  दिया ।
                    गत चुनाव में पार्टी ने उसे टिकट दिया था। वह अप्रत्याशित मतों के अंतर से जीता । उसकी लोकप्रिय दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। लाल झंडा वाली पार्टी में उसकी पहचान उग्र नेता के रुप में स्थापित हो गई थी। वह कालीचरण से आगे निकल गया था।
       डॉ ममता ने निशुल्क चिकित्सा केंद्र खोला, चिकित्सा केंद्र क्या था ,यह गरीब लाचार बेबस विधवा परित्यक्ता महिलाओं का आश्रय स्थल है। ममता के पास जो  कोई भी समस्या लेकर  आती है वह जी जान से उसके समाधान में लग जाती । चाहे कोर्ट- कचहरी का मामला हो या जमीन-जायदाद का झंझट घरेलू झगड़ा हो या पूर्णिया कलेक्टर-एसपी के ऑफिस में कोई काम । वह जिले की एक नामचीन हस्ती बन गई है ।कुछ अन्य महिलाएं भी उससे जुड़कर सदा उसके आज्ञापालन को तत्पर रहती है , इनमें वैसी महिलाएं सबसे आगे हैं जिनका जीवन ममता ने सँवार दिया है।
                                       मेरीगंज अब डॉक्टर प्रशांत को भूल चुका है ।ममता की लोकप्रियता अररिया कटिहार किशनगंज पूर्णिया के पार मधेपुरा सहरसा नवगछिया तक पहुंच गई है ।वहां की महिलाएं भी अपनी समस्याएं लेकर उनके पास आने लगी हैं। पटना में भी लोग डॉक्टर ममता को जानते हैं । ग्रामीण औरतों के चेहरे पर खुशी देखना ही उसके जीवन का उद्देश्य रह गया है । केवल एक व्यक्ति है जिन्हें वह खुशी नहीं दे सकी । वह थे उसके पिता डॉक्टर कालीचरण श्रीवास्तव । ममता उनकी इकलौती संतान थी । एक से एक अच्छे लड़कों का प्रस्ताव विवाह के लिए आया पर उसने स्वीकार नहीं किया । डॉक्टर श्रीवास्तव लाख समझाते रहे कि विवाह कर भी समाज सेवा की जा सकती पर वह ना मानी । मन में एक बड़ा बोझ लिए डॉक्टर श्रीवास्तव इस दुनिया से रुखसत हुए ।
                                   डॉक्टर ममता के क्लीनिक पर सभी छोटे-बड़े नेता चुनाव लड़ने से पहले उसका आशीर्वाद प्राप्त करने आते हैं , चाहे वह लाल झंडे वाले हो या चरखा वाले या फिर काली टोपी वाले , सभी अदब से पेश आते, कुछ राजनीतिक दलों ने ममता को टिकट दे चुनाव लड़ने का अनुरोध किया पर ममता ने स्वीकार नहीं किया । वह हमेशा लोगों से घिरी रहती जिसमें बहुताय अनपढ़ ग्रामीण महिलाएं होती । कुछ तो ऐच्छिक सेवादार थी । उनके व्यक्तिगत काम करके उन्हें अपार हर्ष होता । कोई चाय बना देता, कोई बर्तन माँज देता , कोई खाना बना देता , कोई गांव से आता तो नए धान का चूड़ा ले आता , कोई आटा ले आता । इसी तरह ममता का जीवन चल रहा था ।
                                                   आजादी के बाद जमिंदारी चली गई । संथाल शिकमी जमीनों पर चढ़ने लगे । हरगौरी का बेटे भोला सिंह ने इलाके के बड़े जोतदाऱ , भूपति  तथा भूतपूर्व जमींदार परिवार के मनबढ़ू किस्म के युवकों को एकत्रित किया । जमीन पर मंडरा रहे खतरे से आगाह किया । हरगौरी की हत्या की घटना की याद दिलाई । इनके साथ मिलकर अपनी जमीन की रक्षा के लिए सिंह लिबरेशन आर्मी का गठन किया । लाइसेंसी और गैर लाइसेंसी बंदूक एकत्रित किए जाने लगा ।
         यह खबर ततमा टोला , यादव टोला, संथाल टोला होते हुए इलाके में फैल गई । उचितदास के बेटा  कमलेश ततमा ने मंडल, ततमा, अंसारी, पासवान ,संथाल युवकों को संगठित कर संभावित खतरे से आगाह किया । उसने फैसल आर्मी का गठन किया । ये भी सिंह आर्मी की तरह हथियार एकत्रित करने लगे ।
                          ममता रोज की तरह अपने चिकित्सालय में बैठी, लोगों का दुख - दर्द सुन रही थी , तभी ततमा टोला के रामजूदास की पोती दौड़ती हुई आई । उसके हाथ में अखबार था और चेहरे पर शून्यता, उसने अखबार ममता के आगे रख दिया । ममता की नजर मुख्यपृष्ठ पर गई , मोटे काले अक्षरों में खबर छपी थी कि पद्म भूषण डॉक्टर प्रशांत नहीं रहे एक अपूरणीय क्षति । नीचे बॉक्स में लिखा था कि उनकी मौत एक मलेरिया सदृश्य बीमारी से हुई, जिसका कोई सफल इलाज विकसित नहीं हो सका है । इसे डेंगू नाम से जाना जाता है ।यह साफ पानी में रहने वाले मच्छरों के कारण होता है । ममता के आंखों में ठहरा हुआ सागर वह चला । वह कुछ बोली नहीं  केवल आंसू बह रहे थे । उम्मीद थी कि डॉक्टर प्रशांत एक बार मेरीगंज जरुर आएंगे पर न आए । इसके बाद जो उसने बिस्तर पकड़ा उठ ना सकी । सेवादारों की कमी न थी । तन की बीमारी का इलाज तो है पर मन की बीमारी का कोई इलाज ?  ममता भी चंद महीनों  बाद इस दुनिया से रुखसत हो गई । जब ममता की मृत्यु हुई तो कलेक्टर एस०पी०, मंत्री,  एम०पी०विधायक सभी आए । कमला नदी के तट पर अंतिम संस्कार हुआ । श्राद्ध में मेरीगंज में बड़े भोज का आयोजन किया गया जिसकी चर्चा आज भी लोग करते हैं। कमला नदी के तट पर उसकी समाधि बनी । वे महिलाएं जो उन्हें जानती थी , उधर से गुजरती है तो नमन जरूर करती है । अपने बच्चों को बताती है कि ममता कौन थी ।
                                 कालचक्र घूम रहा था । लेनिन यादव को लाल झंडे वाली पार्टी प्रत्येक चुनाव में  टिकट देती । और वह लंबे अंतर से जीतते । पूर्णिया में उन्हें चुनौती देने वाला कोई नेता अब तक नहीं हुआ था ।भूमि विवाद , भू हदबंदी, गैरमजरूआ जमीन पर कब्जा को लेकर लाल झंडे का प्रभाव पूरे बिहार में बढ़ता जा रहा था।  कई जिलों का अधिकांश  भाग लाल हो गया था। भारत के नक्शे पर एक लाल गलीआरा बन गया है, जो बिहार होकर गुजरता है।  लेनिन यादव का दावा था कि कुछ वर्षों में पूरे भारत मे क्रांति हो जाएगी और चारों ओर लाल झंडे दिखेगें ।
                         पर वक्त किसी का नहीं है। समय के साथ मंडल कमंडल की हवा चली जिसने कालांतर में लाल झंडे को लिलना शुरु कर दिया ।
                               सन 1989 की बात है स्कूल से निकलकर मैं पटना कॉलेज के मिंटो होस्टल आया था। इसी साल मंडल वाली पार्टी की सरकार बनी थी। न जाने मैं किस मुहूर्त में पटना कॉलेज के इंटर में दाखिला लिया कि , आगामी दो सालों में एक राजनैतिक बवंडर चला , मंडल के बाद कमंडल वालों की रथ यात्रा निकली । रथ को बिहार में रोका गया ।  संयोजक जी बड़े आहत हुए ।
                  चरखा वाली पार्टी के बड़े नेता की हत्या धूर दक्षिण भारत में माला पहनाकर कर दी गई । इस हत्या के कई  परिणाम हुए पर एक परिणाम ने मेरे साथ-साथ मिंटो हॉस्टल के अन्य अंतेवासियों  का ध्यान खींचा , जिसका विवरण हॉस्टल के मैगजीन स्टैंड पर लगे ,'इंडिया टुडे 'में अंकित था । इस घटना के बाद लोट्टो नामक विदेशी कंपनी के सफेद जूते की बिक्री साइलेंटली भारत में बहुत बढ़ गई ।  लेनिन  यादव  भी पैजामा फटा कुर्ता पर मटमैला सफेद जूता पहनने लगा । लोट्टो जूता पहनने की इच्छा मिंटोवासियों के साथ मेरे मन में भी बलवति होने लगी ।
                                 चौथी बार भी लेनिन यादव चुनाव जीत गया । उसका प्रभाव इस कदर बढ़ गया था कि पूर्णिया कलेक्टरी के गेट पर किसी बात को लेकर वह धरने पर बैठ जाता , तो कलेक्टर साहब को अपने ए०सी० चेंबर से बाहर निकल कर उससे बात करनी पड़ती थी।
           इधर संयोजक जी वाली पार्टी को चुनाव में अच्छी सीटें मिली । शहरी क्षेत्रों में  इसका प्रभाव बढ़ रहा था। वणिक् समाज नें हाथों-हाथ लिया । महावीर झंडा हो या रामनवमी का जुलूस बड़ी तैयारी कर हरवे- हथियार , हाथी-घोड़ा के साथ जुलूस निकलता । गांव से  बसों पर लोग लाए जाते । खुल्लम-खुल्ला शक्ति प्रदर्शन होने लगा । ऐसा आपने अपने जमाने में नहीं देखा होगा । देखा होता तो मैला आँचल में जरूर लिखते । अच्छा है न देखा न लिखा ; ये जुलूस आपसी वैमनस्य  बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं करते ।  साल दर साल इसका  आकार बढ़ता जा रहा है ।
           भोला सिंह का सिंघ लिबरेशन आर्मी आपराधिक संगठन के रूप में उभरा । नवयुवकों की बहाली चलती रही । कहते हैं कि भोला सिंह की इस आर्मी ने पूर्णिया , कटिहार, सहरसा , मधेपुरा, धमदाहा , बनमनखी के राजपूतों की एक पीढी को लील गई। पूर्णिया शहर पर इसका कब्जा था । डॉक्टर , व्यवसायी एवं अन्य धनाढ्य लोगों से रंगदारी वसूल की जाने लगी , जो न देत उनके घर डकैती हो जाती या किसी का अपहरण हो जाता ।
                                          उधर कमलेश ततमा का फैसल आर्मी भी ऐसे ही कारवार करने लगा । दोनों आर्मी में संघर्ष  होने लग । रणक्षेत्र बना कोसी का कछार। मीलों फैले बालू के मैदान पर आर्मी का कब्जा था। यह अपराधिक संगठनों का अभ्यारण बन गया । पुलिस संघर्ष हो जाने के बाद लाश उठाने जाती ।
                     अचानक पूर्णिया शहर में यह खबर आग की तरह फैल गई , और आग लगाते हुए आगे बढ़ रही थी कि , लेनिन  यादव की हत्या चित्रवाणी सिनेमा के सामने हो गयी है । दुकानों के शटर धड़ा-धड़ गिरने लगे । पूरा मार्क्सवादी नगर सड़क पर उतर आया ग्रामीण क्षेत्र से भी लोग जुटने लगे । कुछ लोग शहर से पलायन कर गये। तीन दिन तक प्रशासन लाश नहीं उठा सकी । चार दिनों तक स्वतः स्फूर्त बंद रहा।   उनके समर्थक रो रहे थे , छाती पीट कर रहे थे। पटना से दिल्ली तक के पार्टी नेता पुर्णिया पहुंच गए। कल्कटर एस०पी० का स्थानांतरण हो गया ,  नए कलेक्टर एस०पी० को हेलिकाप्टर से कमान संभालने के लिए भेजा गया।
                                       कद्दू यादव को लेनिन यादव हत्या- कांड में मुख्य अभियुक बनाया गया । जिसने उसके विरूद्ध चुनाव लड़ा था  , और हारा गया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में आया कि हत्या में क्लास्निकोव का इस्तेमाल हुआ था । नजदीक से एक सौ छः गोलियां दागी गई थी । राजनीति के अपराधिकरण का यह आगाज है या अंत मैं नहीं जानता क्योंकि आपकी जैसे मेरी दूर दृष्टि नहीं है ।
        लोग कहते हैं कि जिस दिन हत्या हुई उस रात जिले के बड़े पूर्ववर्ती जमींदार एवं मध्यवर्ती जिनकी जमीनों पर लाल झंडा गाड़ कब्जा किया गया था , उन्होंने जश्न मनाया ,यह भी चर्चा है कि कद्दू यादव पर इन्हीं लोगों का बरदहस्त था।
          कद्दू यादव अपने उस्ताद की हत्या कर अपराध जगत में उभरा था । उसमें जबरदस्त राजनितीक महत्वकांक्षा थी।   इलाके का युवा वर्ग उसका दीवाना था । सब कद्दू यादव बनना चाहते थे । कहते हैं कि पूर्णिया , धमदाहा, सहरसा , मधेपुरा किशनगंज, अररिया के एक पीढ़ी यादव को यह लील गया ।
                                       पूर्णिय शहर पर सिंघ आर्मी का कब्जा था । अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखकर भोला सिंह दल-बल के साथ पूर्णिया जेल चला गया ।  कोसी कछार अब  लाल झडे से नहीं , दोनों आर्मी के खूनी संघर्ष से लाल हो रहा था । कमलेश ततमा भी अपनी सुरक्षा के लिए दल-बल के साथ मधेपुरा जेल चला गया ।
                  इधर मंडल वाली सरकार ने दफा 48 में संशोधन कर शिकमीदारों को रैयत घोषित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था । कई संथाल कोर्ट में मुकदमा कर रैयत हो गए थे । जमीन पर चढ़ने लगे कहीं-कहीं चढ़ भी गये। तभी सिंघ आर्मी नेे धमदाहा के पास जनसारा हत्याकांड को अंजाम दिया। कई संथाल मारे गये । तब तक झारखण्ड अलग हो गया था। इसेसे आर्मी का मनोबल और बढ़ गया , दूसरे धंधों में वह हाथ डालने लगा । कोशिका कछार में गांजे की फसल लहलहा उठी । युवाओं को नया रोजगार मिल गया ।
                तभी जिला में एक युवा उत्साही कलेक्टर का पदार्पण हुआ । मामले को समझने के बाद एक दिन सुबह 3:00 बजे अपने दल बल के साथ पूर्णियया जेल में छापेमारी की एकदम अंग्रेज कलेक्टर वाले अंदाज में, भोला सिंह और उसके गुर्गों को वार्ड से निकालकर बीच मैदान में खड़ा किया । नये रंगरूट सिपाही को दस-दस डंडा लगाने का हुकुम दिया । पहली बार हरगौरी के बेटा को ईट का जवाब पत्थर मिला । चिल्लाने की आवाज जेल की ऊंची दीवारों को पार कर रही थी । अहले सुबह भोला सिंह और उसके गुर्गो के साथ सी०सी० एक्ट के तहत भागलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया । आदेश पहले से तैयार था । शहर ने राहत की साँस ली । इससे पहले युवा अपने आप को सिंघ आर्मी से जोड़कर गौरवान्वित महसूस करते थे ।
                   पर इससे क्या भोला सिंह और कमलेश ततमा  दोनों ने चुनाव जीतकर व्यवस्था को तमाचा जड़ दिया । इसी चुनाव के कुछ पहले भोला सिंह कमलेश ततमा की आर्मी के वर्चस्व की लड़ाई में बड़हारा कोठी बाजार में एक व्यक्ति की हत्या हो गयी । कद्दू यादव ने मौके की नजाकत का लाभ उठाकर ऐसा हंगामा खड़ा कर दिया कि अभी थी उसे याद कर  सरकारी अमले सिहर उठते है  । अनुमंडल ,थाना ,ब्लाक, सरकारी आवास सभी को भी आग के हवाले कर दिया । सरकारी पदधारको ने किसी तरह भाग कर अपनी जान बचायी ।
                     कलीमउद्दीनपुर में नागर नदी के किनारे चोरघट्टा के पास जहां वावनदास की हत्या के बाद साँहुड की पेड़ पर झोला टँगा था , वह चेथरिया पीर बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गई है । किसी सेठ की मनोकामना पूर्ण होने पर यहां उसने संगमरमर का एक मंदिर बनवाया है । जिसके अंदर बड़ी पिंडी बनी है ।यह इस इलाके का तिर्थस्थल बन चुका है । आसपास के सभी पेड़ों पर नये कपड़े का टुकड़ा बँधा हुआ है । लोगों का ताँता लगा रहता है । मनोकामना पूर्ण होने पर नागर नदी में स्नान कर मंदिर में चढ़ावा चढ़ाते है । मंदिर के पुजारी मेरीगंज ब्रह्म टोली के  जोतीखी जी के खूँट के त्रिभुवन मिसिर है । मंदिर के बगल में ही उनका हवेलीनुमा आवास है । अभी हाल ही में सरकार ने पर्यटन सुविधा विकास के लिए यहाँ दस करोड़ की योजना स्विकृत है । इसका ठीका रामजी कापरा की कंपनी दुलालचंद कापरा एंड संस को मिली है । कलीममुद्दीन चेथरिया पीर के चलते बड़ा पर्यटन केन्द्र बन कर उभरने  वाला है ।
     डॉ प्रशांत की मृत्यु के बाद राजेंद्र नगर डॉक्टर्स कॉलोनी डी-66 सुना हो गया। नीलोत्पल इंगलैण्ड चला गया । कौशिकी अपने पति के साथ अमेरिका चली गई । कमली को कई बार दोनों ने चलने को कहा पर वह  प्रशांत के घर को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं हुई । मैं जब तक पटना में था, तब तक अक्सर डॉक्टर्स कॉलोनी डी- 66 के आगे से गुजरता ।  बहुधा गेट के अंदर झांकने की कोशिश करता गार्ड मुझे घूर कर देखता पूछता किससे मिलना है ,पर मैं चुपचाप साइकिल लेकर आगे बढ़े जाता । कभी-कभी कमली जाड़े में धूप सेंकती दिख जाती । गेट की ओर निहारती मानो किसी के आने का इंतजार हो।
        लेनिन यादव की हत्या के बाद हुए चुनाव में उसकी पत्नी जीत गयी । कद्दू यादव जेल से चुनाव लड़ा हार गया ।  धीरे-धीरे लाल चिंगारी बुझने लगी । अगले चुनाव में जेल से कद्दू यादव चुनाव जीत गया ।कुछ दिन बाद उसे कोर्ट से बेल मिल गया । जिस दिन उसकी रिहाई हुई पूरा पूर्णिया  सजा था । हरेक दुकानदारों ने  अपने दूकान को सजाया था । तोरणद्वार बनाए थे । लगा कि वह लोगों का सर्वमान्य नेता है। तह तक जाने पर पता लगा कि व्यवसायियों ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उसके गुर्गे इस बात का सर्वे कर रहे थे कि किस दुकानदार ने दूकान नहीं सजाई है । कद्दू यादव का राजनैतिक कद बढ़ने लगा । जिन भूपतियों ने उसे खड़ा किया था अब वह उन्ही के अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहा था।
         कमरुद्दीन बाबू से कपड़ा चीनी का कोटा छिन जाने के बाद उसने फिर तिकड़म कर रासन-किरासन का कोटा ले लिया , डीलर बन गया । उसने गांव में बड़ा घर बनवाया अररिया में अपना कारोबार फैलाया । दारु के ठेके भी लेने लगा । उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा ताजुद्दीन अररिया ही नहीं कोसी अंचल का सबसे बड़ा शराब माफिया बनकर उभरा चुनाव जीत गया । उस पर हत्या लूट बलात्कार के कई मुकदमे थे । यह भी आरोप है कि बांग्लादेशी शरणार्थियों का नाम वोटर लिस्ट में जोड़वा दिया है । तमाम आरोपों मुकदमों के बावजूद इलाके का एकमात्र क्षत्रप है ।
               मैं जब पूर्णिया गया तो मुझे बच्चा बाबू मिले। कोसी क्षेत्र के साहित्य संस्कृति के रत्न थे । एक सड़क दुर्घटना में घायल हुए दो साल तक कोमा में रहने के बाद आपके पास चले गये । आप पर दिल्ली या दुनिया के किसी कोने से कोई शोध करने आता तो उनका नाम पता लेकर आता था । उसके गुरु सख्त ताकिद कर भेजते थे कि बच्चा बाबू से जरुर मिल लेना । जब आप इमरजेंसी में पूर्णिया जेल में थे तब वह आपसे मिलने गए थे । बातों के क्रम में आपने उनसे कहा कि । आपके साथ इस वक्त आपके दो चरित्र जेल में बंद है , एक चरितर करमकार दूसरा शायद कालीचरण ।
                  आपको जानकर अच्छा लगेगा कि चलितर कर्मकार पर शोध प्रारंभ हो गया है । हाल ही में पटना से निकलने वाली एक पत्रिका ने उनकी दुर्लभ डायरी प्रकाशित की है। यह डायरी उनके परपौत्र से मिली थी । इस पत्रिका में छपे लेख को पढ़कर बिहार शरीफ के प्रख्यात कवि महेंद्र विकल जी ने कहा है कि वे चलितर कर्मकार की जयंती मनाएंगे । तब वहां के नामचीन साहित्य प्रेमी राकेश बिहारी शर्मा ने इस आयोजन में पूरे खर्च का जिम्मा उठाने की घोषणा हिरण्य पर्वत पर वृक्षारोपन करते हुए किया ।
           बच्चा बाबू ने मुझे यह भी बताया था कि आपने मैला आंँचल की पांडुलिपि  एक शास्त्री नामधारी पूर्णिया कॉलेज के प्रोफ़ेसर को पढ़ने के लिए दिया था । ताकि उनकी बहुमूल्य राय मिल सके । प्रोफ़ेसर साहब ढ़हते छायावादी युग के शहतिर थे। उपन्यास पढ़ कर जोतिखी जी के चरित्र चित्रण से उन्हें बड़ी कूढ़ हुई । आपको महीनों टहलाया ।  अंत में कूड़ा  कहकर लौटाते हुए आपको हतोत्साहित किया। मुझे लगता है कि इसी कारण आपने इतनी महान कृति को चंद शब्दों के प्रस्तावना में आंचलिक कह दिया, जिसका मुझे दुख है।
                  हमारे मित्र वर्मा जी हिंदी के अच्छे आलोचक  है । उन्होंने मुझे बताया कि , आपके प्रथम उपन्यास को छापने के लिए कोई नामचीन प्रकाशक तैयार नहीं हुआ । तब आपने पत्नी के गहने बेचकर इसे अपने खर्चे पर अज्ञात नाम कुलशील वाले प्रकाशक से छपवाय । पर जब नलिन विलोचन शर्मा जी ने अपने तीन पन्ने के आलेख में मैला आँचल को अब तक के दस सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में बताया । तब राजकमल प्रकाशन के ओमप्रकाश जी दौड़े-दौड़े  आपके पास आए सारी प्रतियाँ उठा ले गये। नए सिरे से इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा ।
                                      कुछ साल पहले एक समाचार ने सामान्य जन के साथ बड़े- बुजुर्गो को चिंतित कर दिया । एक घर में महीनो बाद उसका मालिक लौटा तो उसके अंदर से उसकी मां का कंकाल मिला । वह बीमारी और भूख से मर गई थी । मां के मोबाइल का कॉल डिटेल निकाला गया तो पाया गया कि लंदन में रहने वाले उस बेटे से एक साल पहले और अमेरिका में रहने वाली बेटी से आठ महिना पहले बात हुई थी। घर का पता था राजेंद्र नगर डॉक्टर्स कॉलोनी डी-66, हां कमली नहीं रहीं। डॉ० निलोत्पल घर बेचकर लंदन लौट गया।
                                              इधर आपको खोजते हुए डब्लू जी मार्टिन का एक रिश्तेदार आया था । अपना नाम जियान बाबू बताता है । डॉ० जियान बुडफोर्ट ।आपकी रचनाएं पढ़कर पागल हो गया है । लंदन के किसी यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाता है । उसे जब छुट्टी मिलती है तो पूर्णिया चला आता है । मेरीगंज के हेल्थ सेंटर को खोजता है। बालदेव, लछमी , फुलिया , वसावनदास , कालीचरण चुन्नी गोसाई , खलासी जी, कमली, ममता , प्रशांत, सहदेव मिसीर , रामपड़िया , मंगला देवी ,उचितदास सबको खोजता है।                                       औराही हिंगना आपके घर के बारामदे में खटिया पर पड़ा विदापत नाच देखने की इच्छा वयक्त करता है ,सुरंगा-सदाव्रिज,  लोरिक, कुमार विज्जेभान की कथा सुनना चाहता है । पर अब कौन  सुनाएगा । मुझे डर है कि कहीं मेरी की तरह वह भी पगला न जाए ।
      मैंने सन् 2006 के दिसंबर में पूर्णिया  छोड़ा।  लगभग 3 साल रहा ।मैला आंचल के काल खंड की लंबाई लगभग इतनी ही है । पूर्णिया जब गया था तो अकेला था। लौटा तो पत्नी और सवा साल का बेटा साथ था ।
                    समय चक्र ने फिर कलटी मारी है । मंडल युग समाप्ति पर है । संयोजक जी वाली पार्टी का बोलबाला है । सब उसी का गीत गा रहे है ।
              पोस्टकार्ड लिफाफा अंतर्देसी और डाकिया का जमाना आपके साथ ही चला गया । आजकल के लड़के पत्र लिखना नहीं जानते । आप का पता मैं नहीं जानता इसी कारण इसे अंतरजाल (इंटरनेट) पर डाल रहा हूँ। सुनते है कि इंटरनेट की पहुंच तीनों लोकों में है। उम्मीद है कि पत्र आप तक पहुंच जाएगा । पत्र मिलते ही जवाब भेजने की कृपा करें । 
                    इधर  फेसबुक पर देखा कि दो व्यक्ति झगड़ा कर रहे थे अंततः निष्कर्ष में एक ने कहा
    '' सब झा जी मंडल के डर से कमंडल में चला गया । कमंडल ने जिस ल...आ को पैदा किया, आज उसी से सब को डरा रहा है ।''
      थोड़ा लिखे ज्यादा समझिएगा चिट्ठी को तार जानिए बड़ों को प्रणाम छोटों को आशीर्वाद ।
                                                    आपका
                                                  ...    मैंं    
         (इस पत्र में वर्णित पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक है ।)
      

सोमवार, 26 जून 2017

इस्लामपुर डायरी (lslampur diary ) -1

कई ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी, आज इसे नहीं पता कि इसका नाम इस्लामपुर कैसे पड़ा , क्या यह एक वीराना था जैसे बलुआ खंधा जहां हवाई अड्डा बनने की बात चल रही थी ।सैकड़ों एकड़ जमीन ,न उपजाऊ है न बंजर ।
   80 बीघा का गढ़ ,इसके गर्भ में क्या दबा है, इस पर हवेली बनाने वाले चौधरी साहब ने यह कभी नहीं सोचा होगा , ठीक वैसे वैसे ही जैसे आज हवेली के  ध्वंसावशेषों पर घर बनाने वाले उनके बारे में नहीं सोचते।
    कौन सोचता है इतिहास को सामने वर्तमान आगे भविष्य बसने के लिए गढ़ से अच्छी जगह कोई नहीं हो सकती न सैलाब का खतरा न हीं डूबने का डर ।
     लोग कहते हैं कि आज से लगभग आधी शताब्दी पहले ही गढ़ पर हवेली बनी थी और आसपास बाजार बसने शुरू हो गए थे । मस्जिद खानकाह सूफी संतों की मजार यहाँ लगने वाला उर्स मेला होली दीवाली दशहरा  ईद और वह सब कुछ जो एक शहर बनने की जरूरत थी
चौधरी साहब राजा मानसिंह के समय से ही सूबा-ऐ-बिहार के मानिंदे मनसबदार थे । मुंगेर तक लगान वसूलने का अधिकार, कहीं जाते तो अपनी ही जमीन पर चलते इतनी बड़ी जमीनदारी थी । सैनिकों के रहने और रखरखाव के लिए दिल्ली के लाल किले दिल्ली के लाल किले की तर्ज पर इस्लामपुर में भी दिल्ली दरबार बना बनाने में कई साल लगे ना जाने कितने मजदूरों ने इसमें अपना खून पसीना बहाया होगा कितनों ने लगान के बदले बेगारी करने का बोझ उठाया होगा या फिर अकाल के दिनों में लोगों को रोजगार मिल सके इसलिए इसको बनवाया हो कोई नहीं जानता .आज इसी लाल किले की चर्चा सुनकर इसे देखने आया .

                                                                                                     क्रमशः 

मंगलवार, 2 मई 2017

कटिहार डायरी (ktihar diary)

(महेंद्र कुमार विकल जी के फेसबुक दीवाल से )


चिरंतन विद्रोही : नक्षत्र मालाकार
जन्म:- 9अक्टूबर 1905; मृत्यु :- 27 सितम्बर 1987
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पूर्णिया -कटिहार क्षेत्र के आर्थिक-सामाजिक न्याय के क्रांतिकारी शख्सियत "नक्षत्र मालाकार" को सवर्णो की वर्चस्व वाली अकादमिक विरादरी ने कभी महानायक का दर्जा नही दिया। दुख की बात तो यह है कि जिन दलितों-पिछडो के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे, उन्होंने ने भी अपने इस महानायक को भुला दिया !
नक्षत्र मालाकार अंग्रेजी शासन में 9 बार जेल गये। पुलिस और सामंती जुल्म के खिलाफ दलितों, पिछडो, गरीबों, किसानों, मज़दूरों के हक़ में जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। वे दोषी पाये गये जुल्मी जमींदारों के नाक-कान काट लिया करते थे। इनके पिता का नाम लबबू माली था, जिनकी पहली पत्नी सरस्वती देवी से दो पुत्र- जगदेव माली और द्वारिका माली थे।
पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरी पत्नी लक्ष्मी देवी से दो पुत्र- बौद्ध नारायण और नक्षत्र माली हुए। इनसे तीन पुत्री - तेतरी, सत्यभामा और विद्योत्मा भी हुई।
ये पैतृक गांव 8 समेली से विस्थापित होकर कटिहार के बरारी में बस गये और परिवार पुश्तैनी धंधा से जीवन यापन करने लगा। बड़े भाई की प्रेरणा से नक्षत्र ने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में भाग लिया और 42 साथियों के साथ 6 माह की सज़ा पाई। इसके बाद विदेशी कपड़ों के बहिष्कार में भी इन्हें सज़ाबार किया गया और 6 माह गुलजारबाग जेलमे रहे। जेल से लौटकर टिकापट्टी कांग्रेस आश्रम में चरखा और तांत की ट्रेनिंग ली और कांग्रेस से जुड़ गये। पूर्णिया कटिहार क्षेत्र में कांग्रेस संगठन पर उन्हीं सामन्तों-जमींदारों का कब्जा था, जो गरीबों के शोषक और उत्पीड़क थे।
एक गरीब बुढ़िया की बकरी फसल में चले जाने कांगेस नेता बैद्यनाथ चौधरी के छोटे भाई अम्बिका चौधरी ने नक्षत्र के रोकने पर भी बुढ़िया से चौगुना हर्जाना बसूला, इस घटना के कारण कांग्रेस से मोहभंग होने पर कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और सोनपुर में पार्टी के "समर स्कूल ऑफ़ पालिटिक्स" में शामिल हुए, जिसके प्रिंसिपल जय प्रकाश नारायण थे। यहाँ कार्यकर्ताओ और नेताओं का खाना अलग-अलग बनता देख समाजवाद से भी इनका मोह भंग हो गया।
पार्टी के निर्देश पर इन्होंने कटिहार मील मजदूरो को संगठित कर उनके हक़ की लड़ाई को नेतृत्व दिया और फिर जेल गये।
समेली और टीकापट्टी में उनके हथियार बनाने के कारखाने थे। वे नेपाल-क्रांति और बंगाल के स्वदेशी आंदोलन से भी जुड़े थे। नेपाल में लोहिया जेपी के साथ विराट नगर के पास दीदारगंज में क्रांतिकारियों का आज़ाद दस्ता बना और सशस्त्र क्रांति का निर्णय लिया गया और ये लोग गुरिल्ला अंदाज़ में कार्रवाई करने लगे। 1942 की क्रांति में इनलोगों ने कटिहार के रुपौली थाने को उड़ा दिया, जिसमे 6 लॉगिन की जाने गई। इसमे नक्षत्र सहित 36 लोग आरोपी बनाये गये। परंतु नक्षत्र जी के दबाव में लोग गवाही देने से मुकर गये और जो नहीं माने वो दिवंगत कर दिये गये।फलतः ये लोग बड़ी हो गये।
1947 के भयावह अकाल में जमाखोरों-जमींदारों के अनाज लूटकर भूख मरते गरीबो में बाँट दिया। पर कोई इनका कुछ बिगाड़ न सका। इसके बाद आज़ादी तो मिली,पर सत्ता पर सामन्त और जमींदार ही हाबी रहै, जिनके विरुद्ध नक्षत्र जी लड़ते रहे थे। इस दौरान इनके माँ, पिता, भाई और बच्चे इलाज के अभाव में मर गये पर कभी झुके नहीं।
30 अगस्त 2952 को इन्हें कदवा के चांदपुर गांव से फ़र्ज़ी मुकमे में गिरफ्तार किया गया। आजीवन कारावास की सज़ा मिली। 24 साल बाद रिहा होकर दिसम्बर 1966 में बाहर आये। कम्युनिस्ट पार्टी ने इनका जोरदार स्वागत किया। इसके बाद 1979 और 1984 में पार्टी टिकट पर बिधान सभा चुनाव लड़े पर दोनो बार हार गये।
इन्होंने पूर्णिया में सिपाही और ततमा बसाया। सुपौल के भोलू बाबू जमींदार से दान में मिली 14 बीघा जमीन दलित पासवानों में बाँट दिया। इन्होंने ने जमींदारों से 90 एकड़ जमीन मांगकर "भगवती मंदिर महाविद्यालय की स्थापना की। जीवन के अंतिम दिनों में पूर्णिया नगर से 7 किलोमीटर दक्षिण हरदा गांव के निकट हज़ारों एकड़ में फैले भुवना झील के पानी को जनसहयोग से नहर बनाकर कारी कोशी में गिरा दिया और इससे निकली ज़मीन को भूमिहीनों में बाँट दिया। प्रशासन ने लाख रोकने की कोशिश की पर एकन चली।
27 सितम्बर 1987 को गरीबो के इस बहादुर सिपहसालार का इलाज के अभाव में किडनी फेल हो जाने के कारण निधन हुआ। परन्तु खेद की बात है कि स्वर्ण वर्चस्व वाली जातिवादी अकादमी ने इनके संघर्षपूर्ण जीवन को कभी भी महिमा मंडित नही किया !
जागरूकता के अभाव में दलितों-पिछड़ों ने भी अपने इस महानायक को कभी आदर से याद करने की कोशिश नही किया। मैं पटना से प्रकाशित सबाल्टर्न हिन्दी पत्रिका, अप्रैल 2017 में नक्षत्र मालाकार के जीवन वृत्त पर प्रकाशित अरुण नारायण के लेख के लिए लेखक और पत्रिका के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
~~~ कवि महेन्द्र कुमार 'विकल'