रविवार, 31 मई 2020

जलालगढ़ डायरी : पूर्णिया का किला (jalalgarh fort of purneya)


   जलालगढ़ किला पूर्णिय से उत्तर 20 किलोमीटर दूर स्थित है. यह राष्ट्रिय उच्च पथ-57 से 1.5  किलोमीटर पूरब की ओर है. जलालगढ़ किले का निर्माण खगड़ा (किशनगंज) के मनसबदार राजा सैयद मोहम्मद जलालुद्दीन ने करवाया था. 

 ये मुगल काल के एक सामंत थे, सीमांत क्षेत्र के मनसबदारी उनके पास थी. मुगल बादशाह जहांगीर ने इन्हें राजा का खिताब दिया था.

मुगल काल से पूर्णिया भारत और  नेपाल के बीच का सीमांत प्रदेश रहा है. जिस कारण इसका सामरिक महत्व है. यह किला लगभग 6 एकड़ में फैला है, और उसके आसपास इसकी 100 एकड़ जमीन है.
वर्तमान में किले की दीवार उसका बुर्ज और प्रवेश द्वार के भग्नावेश शेष बचे है. इसकी ऐतिहासिक महत्ता को देखते हुए बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय ने संरक्षित स्मारक घोषित किया है.

संभवत इस किले के निर्माण का उद्देश्य नेपाल से सटे सीमावर्ती क्षेत्र में एक सशक्त सैन्य केंद्र स्थापित करने का रहा होगा.
18 वीं शताब्दी से लेकर 19 वीं शताब्दी तक यह एक सशक्त सैन्य केंद्र की अपनी भूमिका का निर्वहण करता रहा. सुरक्षा के साथ-साथ इस मार्ग से होकर आने-जाने वाले यात्रिओं और व्यापारियों को भी निर्भय  आवागमन की सुविधा मुहैया करता रहा.
19 वी सदी के प्रारंभ में पूर्णिया का जिला मुख्यालय, और कोर्ट-कचहरी रामबाग में था जो सौरा और कोसी नदी की धारा के बीच में स्थित था. अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों के कारण इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां से स्थानांतरित करने का निर्णय लिया.
सन 1815 ई० में तत्कालीन कलेक्टर ने जिला मुख्यालय को रामबाग से हटाकर जलालगढ़ में स्थानांतरित करने की अनुशंसा की थी परंतु कतिपय कारणों से संभव नहीं हो सका. वर्तमान में किले की लंबाई पूरब से पश्चिम 550 फिटर उत्तर से दक्षिण 410 फीट है. किले की दीवार की ऊंचाई 22 फीट और चौडाई 7 फिट है.

 दीवारों को सुर्खी-चुना से जोड़ा गया है. मुख्य प्रवेश द्वार पूरब की ओर है जिसकी ऊंचाई 9 फुट है. 70 के दशक तक मुख्य प्रवेश द्वार में काठ के भारी चौखट और विशालकाय दरवाजे को देखा जा सकता था. किले के चारों कोनों पर बुर्ज (वाच-टावर) बने है. किले के पूरब कोसी की एक धारा बहती है. यह उन दिनों नदी मार्ग से सीधा मुर्शिदाबाद से जुड़ा था. इस किले के जीर्णोद्धार के लिए श्री नाथो यादव लगातार संघर्षरत है.
यद्यपि पर्यटन के दृष्टिकोण से यहां कुछ विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं है, परंतु एन.एच-57 से सटे होने के कारण यहां पहुंचना मुश्किल नहीं है. इतिहास और मध्यकालीन स्थापत्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को इस किले का भ्रमण एक बार अवश्य करना चाहिए. 


गुरुवार, 21 मई 2020

ए. टी. आई. डायरी ; रांची (A.T.I /SKIPA Dayari ; Ranchi)


11 अप्रैल 2001
        
  अप्रैल की सुहानी सुबह के साथ प्रशिक्षण की एक और नए दिन की शुरुआत हुई.
सुबह कुछ परिक्ष्यमान पदाधिकारी चाय की चुस्कियां के साथ अखबार पढ़ रहे थे,

कुछ लॉन टेनिस तो कुछ योगाभ्यास में लीन थे.

सुबह के नाश्ते के बाद सभी पदाधिकारी गण व्याख्यान कक्ष की ओर प्रस्थान कर गये .
आज प्रथम व्याख्यान श्री ए. एन. सिन्हा महोदय " सुनिश्चित रोजगार योजना" विषय पर था.
इस योजना के लक्ष्य, उद्देश्य कार्य-योजना, संगठन, कार्यान्वयन, पंजीकरण, मजदूरी का भुगतान, निरीक्षण एवं सतर्कता से संबंधित विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला गया.

व्याख्यान के दौरान श्री सिन्हा ने प्रसंगवश अपने व्यवहारिक अनुभव के संदर्भों से प्रशिक्षुओं को लाभान्वित किया.
       चाय अंतराल के बाद दूसरा व्याख्यान श्री एके घोष महोदय का था. श्री घोष ने "बिहार वित्त नियमावली" एवं 'कोषागार संहिता' के नियमों की चर्चा करते हुए वित्त पर नियंत्रण के विषय में बताया.
  तीसरा व्याख्या श्री वी. के. सहाय महोदय का था, परंतु किसी कारणवश वे नहीं आ सके.
उनके स्थान पर श्री घोष ने ही व्याख्यान दिया.
    भोजन अवकाश में सभी पदाधिकारी छात्रावास की ओर लौट चलें कड़ी धूप में किस गृष्म ऋतु के आगमन का अहसास हो रहा था.
सबो ने मेस में दोपहर का भोजन ग्रहण किया. रोज की तरह आज भी भोजनावकाश के बाद
प्राय: फोन की घंटी लगातार बजती रही और पदाधिकारी गण अपने इष्ट मित्रों संबंधियों माता पिता मंगेतर पत्नी आदि से दूरभाष पर वार्तालाप करते रहे.

भोजन अवकाश के बाद पुनः पदाधिकारी गण 3:00 बजे प्रेक्षागृह में एकत्रित हुए जहां अतिथि व्याख्याता श्री आर.के. सिंह महोदय का व्याख्यान होने वाला था.
आज का विषय था "झारखंड और बिहार में खनिजों खान तथा इससे संबंधित कानून एवं नियमावली"
श्री सिंह 3:05 बजे आए और उनका व्याख्यान प्रारंभ हुआ.
उन्होंने झारखंड और  बिहार में पाए जाने वाले विविध खनिजो एवं उससे मिलने वाली रॉयल्टी से संबंधित जानकारी दी.
इसके बाद उन्होंने लघु एवं दीर्घ खनिज नियमावली के संदर्भ में बताया .
अंत में पदाधिकारी गण संबंधित विषय से तरह तरह के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया.
   इसके बाद पदाधिकारी एवं समय सारणी के अनुसार कंप्यूटर प्रशिक्षण पुस्तकालय अध्ययन
एवं विचार सभा के लिए सम्बंधित कक्षों की ओर प्रस्थान कर गए.
इस तरह गोधूलि बेला में चाय की चुस्कियां के साथ एक बार फिर पदाधिकारियों का

समागम छात्रावास प्रांगण के मैदान में इस संकल्प के साथ हुआ
"चल पड़ो तो गर्द बनकर आसमानों पर दिखो,
और कहीं बैठो तो मील का पत्थर दिखो,
सिर्फ देखने के लिए दिखना कोई देखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो."

                                        दिवस पदाधिकारी
कक्ष संख्या-7
स्वर्ण-रेखा छात्रावास
श्री कृष्ण लोक प्रसाशन संस्थान
रांची



सोमवार, 11 मई 2020

दरभंगा डायरी-5 (जॉन नाजरत, लाल चौक और रीगल )


सदन झा मिथिला से हैंसूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।‌ इन्होंने इतिहास की पढ़ाई की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'हॉफ सेट चाय' (रजा पुस्तक माला और वाणी प्रकाशन), 'देवनागरी जगत की दॄश्य संस्कृति' (राजकमल प्रकाशन एवं रजा पुस्तक माला) तथा 'रेवरेंस रेसिस्टेंस एंड द पॉलिटिक्स ऑफ सिइंग द इंडियन नेशनल फ्लेग' (कैम्ब्रीज युनिवर्सिटी प्रेस) शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार है. फिर भी हमारे मित्र हैं. रंग, इतिहास में रंग, और पलायन, इनके पसंदीदा विषय है. मिथिला और दरभंगा उन्हें बार-बार अपनी ओर बुलाता है ...
                  दरभंगा, लाल चौक, श्री कृष्ण सिंह, कामेश्वर महाराज ,जॉन नाजरत होता हुआ एक सूक्षम इतिहास जो उनकी पैनी नजर से नहीं बच सका . ये इतिहासकार की ही सधी हुई दृष्टि हो सकती है जो चीजों को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत कर सके.


मेरा दावा है की आपने इसे क्लिक किया तो पूरा देखे बिना नहीं रह सकते . 


शनिवार, 9 मई 2020

पटना कालेज डायरी-2

28 जनवरी 2020 

    'हिंदुस्तान' समाचार पत्र में इधर कुछ दिनों से संपादकीय के बाद वाले संपूर्ण पृष्ठ पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो रही है, जो  रहता है. विषय है 'सन् 1990 में कश्मीर से पंडितों का पलायन'.
                 यह उन दिनों की बात है जब मैं पटना कॉलेज के मिंटो हॉस्टल में रहता था. स्कूल से सन् 1989 मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, कुछ ही दिन पहले पटना कॉलेज में दाखिला लिया था .


   आजादी का जबरदस्त एहसास हो रहा था. स्कूल की तरह न तो सुबह कोई प्रार्थना होती थी और न ही घंटी दर घंटी शिक्षक बदलते थे, यहां तो सब कुछ अपनी मर्जी पर था शिक्षक न बदल कर क्लासरूम ही बदल जाता था  मन हो तो जाओ नहीं तो कॉलेज के मैदान या उसके किनारे मुड़ेर पर बैठकर गप्पे लड़ाओ आती-जाती लड़कियों को देखो या फिर लाइब्रेरी में जाकर क्लासिक उपन्यास का आनंद लो. कुछ ना हो तो राधा-कृष्ण घाट पर बैठकर आती-जाती लहरों को निहारो बीच-बीच में झुंड के झुंड डुबकी  लगती गंगा-डॉल्फिन को देखते हुए सोचो कि उस पार तो हाजीपुर है, तो   फिर दिखाई क्यों नहीं देता. 



हॉस्टल के पेपर-मैगजीन स्टैंड पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ 'हिंदुस्तान' समाचार पत्र भी लगा रहता था. हमारे सीनियरस ने ताकीद की थी कि भविष्य में अच्छी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होना है तो समाचार पत्र के संपादकीय, 'इंडिया टुडे' और 'फ्रंटलाइन'  जैसी पत्रिकाओं को पढ़ो, अंग्रेजी भी मजबूत होगी. इस मशवरा का हम शिद्दत से पालन करने लगे. 
 उन दिनों घटने वाले महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक राजनीतिक घटनाएं आज भी स्मृति पटल पर है. राजीव गांधी की हत्या, मंडल कमीशन आंदोलन, आडवाणी जी की रथ यात्रा और उसका रोका जाना, बाबरी मस्जिद प्रकरण, मुंबई के दंगे और उस पर बनी फिल्म मणिरत्नम की 'बंबई' फिर फिल्म पर विवाद और न जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं.
       उन दिनों जब इतने बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों को अपना घर और अपनी जन्मभूमि छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया इस बाबत 'हिंदुस्तान' में कोई समाचार प्रमुखता से क्यों नहीं छापा. हमारी जैसी एक पीढ़ी को इन तमाम सूचनाओं से वंचित रखने का दोषी कौन है? विधु विनोद चोपड़ा को भी घटना के 30 साल बाद इस पर फिल्म बनाने की क्यों सूझी ? मणिरत्नम जैसा साहस वे उस समय क्यों नहीं जुटा पाए, मेरे मन के किसी दूर कोने में बैठा 'मार्क्स'  मुझे धकिया रहा है. 
 तय है कि 'हिंदुस्तान'  जैसे समाचार पत्र में आज भी कुछ समाचार नहीं छप रहे हो और 30 साल बाद उस पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो, मुझे इंतजार रहेगा उस श्रृंखला का.
 उन दिनों हॉस्टल के मैदान में कॉरिडोर और बाथरूम के पास कोई न कोई बी.बी.सी हिंदी सेवा पर शाम 7:30 बजे समाचार सुनता मिल जाता था अब तो बी.बी.सी की हिंदी सेवा भी बंद हो गई है

बुधवार, 6 मई 2020

राजगीर डायरी-7

16 फरवरी 2020 
22 दिसंबर 2000 के कार्यक्रम में मैंने कालीम अजीज साहब की चर्चा करते हुए कहा था कि लगभग ढाई वर्ष मैं नालंदा जिला मे रहा इस दौरान किसी साहित्यिक संगठन या समाचार पत्र को उन्हें याद करते नहीं देखा . उसी दिन शंखनाद के अध्यक्ष प्रो० (डा०) लक्ष्मीकांत एवं सचिव राकेश बिहारी शर्मा जी ने यह निर्णय लिया था  कि 2020 का साहित्य बसंत उत्सव उन्हीं की याद में मनाया जाएगा . इस आयोजन के लिए आज की तारिख और स्थान 'विश्व  शांति स्तूप' राजगीर निर्धरित किया गया था.



आज मैं वही जा रहा हूँ. साथ में लाल बाबू, ऋतुराज जी और पर्यावरण प्रेमी  'तुलसी-पीपल-नीम' अभियान के संस्थापक अध्यक्ष डा० धर्मेन्द्र भी है. 12:30 बजे लगभग एक घंटे पर्वतारोहण के उपरांत 'विश्व  शांति स्तूप' के पास हमलोग पहुंच गये थे , जहां साहित्यकारों की पांचवी 'विरासत यात्रा' और वर्ष 2020 के 'साहित्य बसंत उत्सव' का आयोजन किया गया था.
          कलीम अजीज साहब पर चर्चा हुई, कई युवा रचनाकार जो उन से परिचित नहीं थे,  कुछ शेरों को सुनकर उनके कायल हो गए. कलीम अजीज साहब का जन्म सन 1926 में तेल्हारा में हुआ था .1946 के दंगों में उन्होंने अपनी मां और बहन को खोया था, जिसका गम उन्हें ता-उम्र रहा. यह दर्द उनकी रचनाओं में भी झलकता है.

वो जो शायरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ, 
मैं गजल सुनाऊं हूं इसलिए कि जमाना उसको भुला न दे.

 पटना कॉलेज से स्नातक की परीक्षा में गोल्ड मेडल हासिल कर आगे की पढ़ाई की और पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने . उनके शोध का विषय था "EVOLUTION OF URDU LITERATURE IN BIHAR".
 17 वर्ष की आयु से ही मुशायरों में शिरकत करने लगे थे . बड़ी शालीनता से वे कहते,
थी फरमाइश बुजुर्गों की तो लिख दी गजल ‘आजिज’
वरना शायरी का तजरिबा हमको भला क्या है



60' और 70' के दशक में अजीज साहब लाल किले में स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर होने वाले राष्ट्रीय मुशायरे में अकेले बिहार का प्रतिनिधित्व करते थे. पब्लिसिटी से हमेशा दूर रहे. इमरजेंसी के दौर में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री के समक्ष प्रतिरोध की शायरी पढ़ी परंतु गजल के काव्यात्मक सौन्दर्य में कोई छेड़छाड़ नहीं किया

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो

वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो

मेरे ही लहू पर गुजर औकात करो हो

मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो

खंजर पे कोई छींट न दामन पे कोई दाग

तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो

एक और मंच से  जब उन्होंने यह शेर पढ़ा, तो सियासतदानों में खलबली मच गयी 
जुल्फों की तो फितरत है लेकिन मेरे प्यारे,
जुल्फों से जियादा तुम्हीं बलखाए चले हो.


कुछ अशरार देश काल की सीमा को लांघ कर सार्वदेशिक और सर्वकालिक हो गए .

 हकीकतों का जलाल देंगे सदाकतों का जमाल देंगे,
 तुझे भी हम गमे जमाना गजल के सांचे में ढाल देंगे.

वर्ष 1989 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था. 14 फरवरी 2015 को उनका इंतकाल हुआ. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी अंतिम यात्रा में बिहार के तत्कालीन मुख्य मंत्री के साथ करीब 20,000 लोग शामिल हुए थे.
      गत वर्ष एक पूर्व मंत्री की मृत्यु पर बी० बी०सी० के मणिकांत ठाकुर ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी . साथ में एक फोटो भी था जिसमे बिहार के बड़े नेता उनके फोटो पर पुष्पांजलि कर रहे थे. उन्होंने  नीचे यह शेर चस्पां किया था ,
खंजर पे कोई छींट न दामन पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो 

मणिकांत ठाकुर के इस रिपोर्ट में पूर्व मंत्री, बड़े नेता और शायर तीनों का ताल्लुक नालंदा जिला से था. 



 
                                कलीम साहब पर चर्चा के बाद कई कवियों ने कविता पाठ किया . एक शांत और खुशनुमा माहौल में  साहित्य वसंतोत्सव और साहित्यकारों की पांचवी विरासत यात्रा  राजगीर के शांति स्तूप पर संपन्न हुई. कुछ लोगों को 'शंखनाद' द्वारा सम्मानित भी किया गया.