सोमवार, 26 जून 2017

इस्लामपुर डायरी (lslampur diary ) -1

कई ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी, आज इसे नहीं पता कि इसका नाम इस्लामपुर कैसे पड़ा , क्या यह एक वीराना था जैसे बलुआ खंधा जहां हवाई अड्डा बनने की बात चल रही थी ।सैकड़ों एकड़ जमीन ,न उपजाऊ है न बंजर ।
   80 बीघा का गढ़ ,इसके गर्भ में क्या दबा है, इस पर हवेली बनाने वाले चौधरी साहब ने यह कभी नहीं सोचा होगा , ठीक वैसे वैसे ही जैसे आज हवेली के  ध्वंसावशेषों पर घर बनाने वाले उनके बारे में नहीं सोचते।
    कौन सोचता है इतिहास को सामने वर्तमान आगे भविष्य बसने के लिए गढ़ से अच्छी जगह कोई नहीं हो सकती न सैलाब का खतरा न हीं डूबने का डर ।
     लोग कहते हैं कि आज से लगभग आधी शताब्दी पहले ही गढ़ पर हवेली बनी थी और आसपास बाजार बसने शुरू हो गए थे । मस्जिद खानकाह सूफी संतों की मजार यहाँ लगने वाला उर्स मेला होली दीवाली दशहरा  ईद और वह सब कुछ जो एक शहर बनने की जरूरत थी
चौधरी साहब राजा मानसिंह के समय से ही सूबा-ऐ-बिहार के मानिंदे मनसबदार थे । मुंगेर तक लगान वसूलने का अधिकार, कहीं जाते तो अपनी ही जमीन पर चलते इतनी बड़ी जमीनदारी थी । सैनिकों के रहने और रखरखाव के लिए दिल्ली के लाल किले दिल्ली के लाल किले की तर्ज पर इस्लामपुर में भी दिल्ली दरबार बना बनाने में कई साल लगे ना जाने कितने मजदूरों ने इसमें अपना खून पसीना बहाया होगा कितनों ने लगान के बदले बेगारी करने का बोझ उठाया होगा या फिर अकाल के दिनों में लोगों को रोजगार मिल सके इसलिए इसको बनवाया हो कोई नहीं जानता .आज इसी लाल किले की चर्चा सुनकर इसे देखने आया .

                                                                                                     क्रमशः