रविवार, 30 सितंबर 2018

मैनामठ डायरी(Kalisthan of Mainamath)

जहानाबाद जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर पूरब मैनामठ गांव स्थित है. राजस्व अभिलेख में मैनामठ गांव का नाम नहीं मिलता है, बल्कि महमदपुर अब्दाल दर्ज है .एक परंपरा के अनुसार यहां प्राचीन काल एवं पूर्व मध्यकाल तक बौद्ध मठ था जिसकी स्थापना मैना नामक बौद्ध भिक्षुणी ने की थी. बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद बौद्ध भिक्षुओं का पलायन यहां से हो गया. मध्यकाल में इसका नाम शासकों ने महमदपुर अब्दाल रखा जो ब्रिटिश काल तक चला राजस्व अभिलेख में भी महम्मदपुर अब्दाल ही दर्ज हुआ,
लेकिन लोगों की जुबान पर मैनामठ ही चढ़ा रहा. इस गांव के उत्तर  3/4 किलोमीटर की दूरी पर लगभग 10 एकड़ का एक प्राचीन तालाब था. जिसके दक्षिण-पश्चिम छोर पर श्मशान था. यह तालाब अब एक एकड़ में ही बच गया है शेष भाग पर सड़क और सरकारी योजनाओं का भवन निर्माण हो गया है. स्थानीय लोगों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 100 साल पहले इस तालाब की सफाई के दौरान कुछ प्राचीन मूर्तियां मिली जिसे एक चबूतरे पर स्थापित कर दिया गया इसके बाद यह जगह काली-स्थान के नाम से जाना जाने लगा.इनमें सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति  मां काली की है .
यह कला के दृष्टिकोण से पाल काल में प्रचलित माँ कंकाली काली की मूर्ति है .बड़ा तालाब, तालाब के किनार शमशान एवं कंकाली-काली की मूर्ति इस बात को मानने का पर्याप्त कारण है कि प्राचीन काल में यह तंत्र साधना और पूजा का एक केंद्र था. माँ काली के अतिरिक्त




गणेश ,शिव, विष्णु ,की मूर्ति प्राप्त हुई है सभी ब्लैक बैसाल्ट पत्थर की बनी पाल कालीन मूर्ति कला का नायाब नमूना है. मां काली की मूर्ति तस्करों की नजर में है इसकी दो बार चोरी हुई पर दोनों बार मूर्ति मिल गई. इस पोस्ट के पहले काली-स्थान मैनामठ और यहां की मूर्तियों का कोई डॉक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है, न ही पूर्व में किसी शोधकर्ता ने इसके पुरातात्विक महत्व पर प्रकाश डालने की कोशिश की है इन मूर्तियों का विस्तृत अध्ययन पाल  कालीन मूर्तिकला के कई नए आयामों को उद्घाटित कर सकता है.

शनिवार, 29 सितंबर 2018

सिकलीगढ़ डायरी(Sikligarh / grave of Augustus Gwatkin Williams)

 सिकलीगढ पूर्णिया से 12-13 किलोमीटर की दूरी पर बनमनखी प्रखंड में स्थित है . वर्ष 2004 से 2006 तक मैंने इस टीले का सर्वेक्षण कर शोध कार्य किया था.
शोधोपरांत प्रकाशित आलेख के आधार पर इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को देखते हुए, खुदाई का प्रस्ताव वर्ष 2011 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को भेजा गया था,पर स्वीकृति नहीं मिली. सिकलीगढ का औदात्य मुझे बार-बार अपनी ओर खींचता , जब भी अवसर मिलता मैं वहां निकल पड़ता .
     पूर्णिया की यह विडंबना है कि न तो कनिंघम ने, और न ही उसके बाद किसी अन्य पुरातत्ववेत्ता या संस्थान ने इस क्षेत्र का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया. इस शोध के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा की हिमालय के दक्षिण गंगा के उत्तर कोसी के पूरब और महानंदा के पश्चिम क्षेत्र मिलाकर जो चतुर्भुज बनता है उसका पुरातात्विक सर्वेक्षण नहीं हुआ है जिससे इस क्षेत्र की पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व को दुनिया के सामने नहीं लाया जा सका है. एक कारण  सतत बाढ़ भी है, जो पुरातात्विक सामग्रियों को बाहर कर ले जाते रही है. इस क्षेत्र में प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियों में सबसे महत्वपूर्ण पतराहा (धमदाहा अनुमंडल) से वर्ष 1913 में प्राप्त पंच-मार्क सिक्कों का भंडार है.
पंच-मार्क सिक्के छठी शताब्दी ईसा पूर्व प्रचलन में थे. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इन पंच-मार्क सिक्कों के भंडार पर मेमाॉयर सीरीज में एक पुस्तक का प्रकाशन किया है .
      बौद्ध ग्रंथों में वर्णित आंगुत्तराप की अवस्थिति पर से अब तक रहस्य का पर्दा नहीं उठा सका है .इसे अंग के उत्तर स्थित इस असर्वेक्षित चतुर्भुज में ढूंढने की जरूरत है. 
     सिकलीगढ़ टीले के समीप कभी विलियम्स के नील की फैक्ट्री हुआ करती थी. बड़े-बड़े हौज जिस पर निलहे मजदूर दिन-रात काम करते बहरहाल न फैक्ट्री रही, न निलहे मजदूर, न ही निलहा साहब विलियम्स रहा . हाँ रह गई तो टीले के एक हिस्से पर Augustus Gwatkin Williams की कब्र
. जिनकी मृत्यु 55 वर्ष की आयु में 4 अप्रैल 1927 को हुई थी.
उसके ऊपर संगमरमर एक सुंदर स्मृति-लेख (Epitaph) लगा है,जो उन दिनों कलकात्ता से बनकर आता था.

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

साहेबगंज डायरी(District Gazetteer)

बात 2001 की है मैं साहबगंज जिले(झारखण्ड) मे पहली बार गया था .यहाँ मैने दो वर्ष बिताये . किसी ने मुझे बताया था कि नयी जगह को जानने का सबसे अच्छा साधन वहाँ का जिला गजेटियर होता है, उसे एक बार जरूर पढ लेना चाहिये. साहबगंज पहुँचते ही मै इसकी तलाश में लग गया.शहर की सभी लाईब्रेरियाँ छान मारी पर नहीं मिली कुछ लाईब्रेरियन इसका नाम पहली बार सुन रहे थे. कहीं से मुझे जानकारी मिली की अमुक वकील साहब के यहाँ संथाल परगना का जिला गजेटियर है. वे शहर के नामी वकील थे . एक दिन शाम में उनका घर खोजता हुआ पहुँच गया. वकील साहब बड़े गर्मजोशी से मिले चाय पिलायी, पर गजेटियर नही दिया ; देने का आश्वासन जरूर दिया. बताया कि कलक्टर साहब के पास है. उनके घर और कचहरी के कई चक्कर मैने लगाये पर जिला गजेटियर का दर्शन न हो सका. बाद में पता चला कि वकील साहब केवल कलक्टर, एस०पी०, और जिला जज को जिला गजेटियर पढने के लिए देते है, ये उनसे नजदीकी बढाने का उनका का औजार है .
   तब मैं इसकी तलाश पटना मे करने लगा. काफी मशक़्क़त के बाद यह मुझे मिली . मैने इसे वकील साहब को दिखाया तो वे हतप्रभ रह गये; मानो जिला गजेटियर पर से उनका एकाधिकार समाप्त हो गया हो. उन्होंने मुझे नसीहत दी कि यह बड़ी दुर्लभ पुस्तक है , हर किसी एैरे-गैरे को न दूँ ,पत्रकार को तो बिल्कुल ही नहीं .
 इसके बाद मैं कई जिलों मे रहा राँची, पूर्णिया, कटिहार,सिवान,औरंगाबाद,नवादा,जहानाबाद,नालंदा, प्रायः सभी जिलों मे जिला गजेटियर दुर्लभ पुस्तक रही है.
        परन्तु राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के प्रयास से अब यह दुर्लभ नहीं रही. विभाग ने इसे अपने वेबसाइट पर डालकर सबके लिये सुलभ कर दिया है.इसका लिंक है.http://lrc.bih.nic.in/Gazetteer/Gazetteer.aspx
                             19वीं शताब्दी की शुरूआत मे बंगाल के जिलों का  गजेटियर तैयार करने का दायित्व L S S O'malley को दिया गया था . आजादी के बाद  बिहार सरकार ने इसका संशोधित संस्करण निकला जिसका संपादन पी०सी०रायचौधरी ने किया था. यही संस्करण बेबसाईट पर उपलब्ध है. इसमें  बिहार के पुराने 11 जिले  भागलपुर,चंपारण, दरभंगा,गया,मुँगेर,मुजफ्फरपुर,पटना,पूर्णिया, शाहाबाद, सहरसा शामिल हैं.

सोमवार, 24 सितंबर 2018

पूर्णिया डायरी-10 (डुकारेल और डा० लक्ष्मीकांत सिंह/Ducarel and Dr Laxmikant Singh)

डुकारेल की कहानी ने नालंदा के डा०लक्ष्मीकांत को इतना प्रभावित किया कि "यह पत्र माँ को एक साल बाद मिलेगा" जैसी दो पन्ने की छोटी कहानी पढकर एक शोधपरक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उपन्यास लिखने का निर्णय ले लिया. गत दो वर्षों से इसपर काम कर रहे हैं. डा० लक्ष्मीकांत मूलतः सारण जिले के हैं. पूर्णिया कभी नहीं गये पर पूर्णिया को केन्द्र में रखकर ऐतिहासिक पात्रों की मदद से एक ऐसी रचना कर रहे हैं जिसमें 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का पूर्णिया जीवंत हो उठेगा.यहाँ हम इनकी तुलना  मैक्स मूलर से कर सकते हैं, जो कभी भारत नही आये थे पर विश्व के शिर्षस्थ भरतवीद् थे.
डा० लक्ष्मीकांत अलामा इकबाल कॉलेज नालंदा में पाली भाषा एवं साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष है. जिले पर संदर्भ ग्रंथ तैयार करने के सिलसिले में वर्ष 2016 में उनसे मिला था. यह संदर्भ ग्रंथ तो नही तैयार हो सका पर एक ऐतिहासिक उपन्यास के सृजन की पृष्ठभूमि जरूर तैयार हो गई.
ये विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकों की रचना कर चुके हैं. कुछ पुस्तकें हैं-
  शाबाश डैडी (बाल समस्या एवं निदान);
 भारतीय वनऔषधि धरोहर(आयुर्वेद);
पाली व्याकरण एवं रचना; 
अशोक के धर्म शिलालेख(प्राचीन भारत) .
                     उपन्यास के ताने-बाने और कथानक पर अक्सर उनसे बातचीत होती है. उनके अप्रकाशित उपन्यास का एक रोचक अंश 
        "अब डुकारेल चार कदम का फासला तय कर चारपाई के सिरहाने पूरब में खड़ा हो, लड़की के चेहरे को एकटक देखते रहे . वह शांत बेसुध पड़ी थी . गोलाकार मरमरी चेहरा और तीखे नयन-नक्श , रुक्म-ए-फरोग सा दिख रहा था.काले घुँघराले बालों का एक लट रूखसार पर अब्र सा चिपका था. नाजनीन पँखुरियों जैसे होठ कभी-कभी स्पंदित हो रहे थे.इस हालात मे भी जैदी का आलम चेहरे पर पसरा था. डुकारेल बार-बार आँखें खोलता और बंद करता . उसे अपने आँखों पर सहसा विशवास नहीं हो रहा था.हकिकत है या कोई सपना, उसका दिमाग फर्क नहीं कर पा रहा था.उसके तसव्वुर मे . ऐंजल और मोनालिसा का नाम बसा था. लेकिन क्या कोई इतना खूबसूरत हो सकता है, यह सोचकर परेशां हो रहा था. "यकीनन हकीम साहब सौ फिसदी वाजिब बोल रहे थे."
 डुकारेल बुदबुदाया . मैने कोई गलती नहीं की, शायद यही खुदा की मर्जी थी. इस हुश्न-ए-सरापा को बचाने के लिये ही उपरवाले ने वहाँ भेजा था.उपेक्षा का भाव विलुप्त हो,अब उसके मन के किसी कोने में स्नेहासक्ति का बीज अंकुरित होने लगा.भावनाओं के अथाह सागर में डूबता उतरता डुकारेल , किसी अनजाने पाश मे जकड़ता जा रहा था. कोई मायावी ताकत अपने वश में जिल्दबंद कर रही है, वह ऐसा महसूस कर रहा था.
             तभी देखा लड़की के चेहरे और शरीर में थोड़ी कंपन शुरू हुई. ओठ स्वतः खुलने बंद होने लगे. हाथों की अँगुलियाँ हिलते-हिलते मुठ्ठी बंध गयी. फिर जोर से
 "बचा  लो बाबू" 
बोल थोड़ी गर्दन उठा निढाल हो गयी. काँपते हाथ स्वतः उठ खड़े हो गये."

शनिवार, 22 सितंबर 2018

चंडी-मौ डायरी/Chandi-Mau Dairy (जंहा तुफैल खां सूरी की पूजा मन्दिर में होती है )

यह सहज विश्वास नहीं होता कि किसी गाँव में एक ऐसे मुसलमान व्यक्ति की पूजा उसके नाम का प्रतीक पत्थर रखकर मन्दिर में की जाती हो, जो अभी जीवित हैं. परन्तु यह सत्य है. इसी की पड़ताल के लिये मै, लालबाबू सिंह और राकेश बिहारी शर्मा नालंदा के चंडी-मौ गाँव गये. गाँव के मन्दिर के दरवाजे पर अन्य कई मूर्तियों के  साथ एक पत्थर भी सूरी बाबा के नाम से पूजा जाता है. ये सूरी बाबा तुफैल खाँ सूरी हैं. जिन्होंने कभी इस गाँव में देश का पहला ग्रामीण संग्रहालय बनाने का सपना देखा था.



तुफैल खाँ सूरी से मेरी मुलाकात २०१५ मे हुई थी, जब मैं ढूँढते हुये उनके घर गया था. अनुराग सिनेमा के पास उन्होंने अपना किराये का घर बताया था. बनौलिया चौक पहुँच कर आधा घंटा अनुराग सिनेमा हाल को ढूँढता रहा पर मुझे नहीं मिला, हारकर मैंने उन्हें फोन किया . वे पाँच मिनट में आ गये . मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई, मैंने पूछा कि अनुराग सिनेमा हाल किधर है ? सड़क के दाहिनी ओर इशारा कर बताया कि यहीं तो था. पर अब वह नहीं है. सिनेमा हाल ध्वस्त हो गया है और इसकी  जमीन कई खंडों में बँट, बिक चुकी है. सिनेमा हाल की जगह कई मकान खड़े हो गये है फिर भी यह मुहल्ला अनुराग सिनेमा हाल के नाम से ही जाना जाता है. सूरी साहब के बारे में मुझे पर्यटन डिप्लोमा के भूतपूर्व विद्यार्थी सुधीर जी ने बताया था. अध्ययन के दौरान सुधीर ने सुरी साहब की मदद से छोटी पहाड़ी स्थित बया खाँ के मकबरे पर एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार किया था. इस मौलिक काम के चलते सुधीर को काफी प्रशंसा मिली.  सुधीर से सूरी साहब के इतिहास में दिलचस्पी के किस्से सुन उनको ढूढते हुये मैं उनसे मिलने चला गया.

               इतिहास की कोई औपचारिक शिक्षा नही रहने के बावजूद उन्हें बिहार शरीफ और आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों के बारे में बड़ी अच्छी जानकारी है. इतिहास से लगाव का एक कारण शायद यह है कि वे शेरशाह सूरी के वंशज हैं. आज से करीब 20 साल पहले उन्होने एक सपना देखा था, चंडी-मौ में भारत का पहला ग्रामीण संग्रहालय बनाने का.
इस सपना को पूरा करने के लिये अपनी कुल जमा पूँजी गँवा चुके हैं. इस हेतु यहाँ एक भवन तैयार कर चुके थे. इसे तैयार करने के लिये वे बिहार शरीफ से चंडी-मौ 32 कि०मी० साईकिल से रोज जाते थे. निर्माण के लिये काम करते. कभी-कभी 12 कि०मी० दूर नालंदा से साईकिल पर सिमेंट की बोरी लादकर ले जाते. आगे कि योजना थी कि आस-पास की सभी प्राचीन मूर्तियों को इस संग्रहालय मे रखा जाये. उनके पास ये सूची थी की मूर्तियाँ किस-किस घरों में पड़ी है, प्राय: सभी लोग संग्रहालय के लिए मूर्तियाँ देने को तैयार थे. पर गाँव की सरकारी जमीन पर नजर गड़ाये भू-माफिया ने षडयंत्र कर सूरी साहब को गाँव से निकाल दिया.




संग्रहालय तो नहीं बन सका पर उस भवन मे रखी मूर्तियां मंदिर का रूप ले चुकी हैं. मंदिर के दरवाजे पर कई अन्य मूर्तियों के साथ एक पत्थर की पूजा सूरी बाबा के रूप में भी लोग करते है.

               जब तक मै बिहार शरीफ मे था तो अक्सर विधि-व्यवस्था के नाम पर बनौलिया चौक पर बैठा दिया जाता था. मैं सूरी साहब को बुला लेता और बिहार शरीफ के इतिहास को टुकड़ों मे सुनता. इतिहास प्रेम के कारण उन पर कई फतवे जारी हो चुके हैं . 

पूर्णिया डायरी-9 (डुकारेल की कहानी/ Story of Gerard Gustavus Ducarel)

डुकारेल की कहानी 2007 में लिखने के बाद मैंने उसे छपने के लिये कहीं नहीं भेजी. वर्ष 2012 प्रो० रामेश्वर प्रसाद के बुलावे पर मैं पुर्णिया गया.वहाँ भारत के प्रख्यात साहित्यकार श्री चंद्रकिशोर जायसवाल जी से मिला.
 जायसवाल जी से मेरा पहला परिचय वर्ष 1991 में हँस मे प्रकाशित कहानी "मर गया दीपनाथ ..." से हुआ था .
दूसरा परिचय स्व० बच्चा यादव जी ने करवाया था. मुझे जब उनसे यह पता चला कि "मर गया दीपनाथ ..." के लेखक पूर्णिया में रहते हैं तो  मिलने की इच्छा व्यक्त की. तब वर्ष 2005 में एक शाम वे जायसवाल जी को लेकर मेरे आवास पर आ गये.
                                       इस बार मिला तो डूकारेल पर बात हुई , उस पर लिखी कहानी " यह पत्र माँ को एक साल बाद मिलेगा " के बारे मे बताया . सिकलीगढ पर भी चर्चा हुई. नवादा लौटकर मैंने कहानी स्कैन कर भेज दी. कहानी पढकर उन्होंने टंकित प्रति माँगी.  चार-पाँच दिनों बाद कहानी को टाईप कर मैंने फोन किया , तब तक जायसवाल साहब कहानी को स्वयं टंकित कर छपने के लिये राज राघव (परती पलार के संपादक) को भेज चुके थे. कहानी परती पलार के कथा-कोशी विशेषांक मे छपी थी. कहानी कुछ इस प्रकार है.

 यह पत्र मॉं को एक साल बाद मिलेगा
6 दिसंबर 1769 ई. लंदन
‘‘वेलकम, मि तालिब, हाउ आर यू?’’ चन्द्रावती अबू तालिब का अभिवादन करते हुए घर के अन्दर ले गयी।
‘‘आई एम फाइन।’’
‘‘हाउ डिड यू गेट माई एड्रेस?’’ 
चन्द्रावती ने जिज्ञासा प्रकट की।
प्रतिउतर  में अबू तालिब के होठों पर हल्की मुस्कुराहट पसर गयी। चन्द्रावती की अंग्रेजी तहजीब और भाषा देखकर उन्हें विश्वास करना कठिन हो गया कि वह ‘नेटिव’ है।
‘‘मिट माई सन एडिन एंड एलेक्जेंडर कोल्टी।’’
झक्क सफेद व लम्बी काया जिसके आगे अबू का तुर्की डील-डौल और गोरा रंग भी फीका लग रहा था।
लन्दन में चन्द्रावती के घर को ढूंढने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। ग्यारह महीने की उबाउ, परन्तु साहसिक यात्रा और इंतजार के बाद चन्द्रावती से मिलना उन्हें अच्छा लगा। चंद्रवती को हिन्दुस्तान छोड़े पंद्रह वर्ष और अपनों को छोड़े तीस वर्ष हो गये थे। हिन्दोस्तान से कोई उससे मिलने आयेगा, ऐसी न उसकी इच्छा थी, ना संभावान।
‘‘मैं लंदन में कई हिन्दोस्तानियों से मिला, पर आप सबसे अलहदा हैं।’’
‘‘यह मेरा सौभाग्य है।’’ 
बड़ी मुश्किल से हिन्दोस्तानी में जवाब दिया चन्द्रावती ने। अबू का उससे मिलने आना एक अप्रत्याशित घटना थी। वह न कभी उससे मिली थी, न पूर्व का कोई परिचय था, फिर भी घंटों बाते करती रही।

12 फरवरी 1770 ई. काढ़ागोला
‘‘हे रे, सुनलै छै की, ई फिरंगी बांस लेखा लम्हर होबै छै, और राती खनी चमकै छै?’’
 सुजन कहार ने अलाव से बीड़ी सुलगाते हुए अपने साथी से पूछा।
‘‘एते लम्हर ई पालकी में केना बैसतई?’’
 साथी का जवाब-सवाल बनकर आया।
‘‘ऐ लेल त फौजदार हाकिम सबसे बड़की पालकी औ हाथी लै ऐने छै।’’ सुजन ने फौजदार के तंबू की ओर देखते हुए जवाब दिया।
जब से अंग्रेज हाकिम के पुरैनियॉं आने की खबर मुर्शिदाबाद दरबार से मिली है, तब से फौजदार सफात खॉं को चैन नहीं है। कल रात से ही अपने लाव-लश्कर के साथ काढ़ागोला घाट पर अंगरेज साहब का इन्तजार कर रहे हैं। वे चाहते तो अपने कारिन्दों को भी भेज सकते थे, परन्तु न जाने क्या सोचकर स्वयं आ गये। उन्हें अच्छी तरह पता था कि गत पॉंच सालों से नायब दीवान अंग्रेज ही हैं। अंग्रेज साहेब का आना, इसे सफात खॉं न तो पचा पा रहे थे और न ही उपेक्षा करने का साहस जुटा सके थे। असमंजस में स्वयं काढ़ागोला आकर अगुवानी करने का निर्णय लिया। इसके पहले कभी फिरंगी को नहीं देखा था, हॉं, पलासी की लड़ाई के बारे में सुना जरूर था जिसे अग्रेजों ने जीता था।
कैसा होगा अंग्रेज साहेब, क्या खाता होगा, क्या पहनता होगा? इन सब प्रश्नों के जाल में उलझे फौजदार सर्द रात मे तंबू के अन्दर करवटें लेते रहे।
‘‘ एक महिना से ठीक से खाना नै भेटैत रहै।’’
 पीलवान फन्नै खॉं ने साथ आये कहारों की ओर मुखातिब होकर कहा।
‘‘हॉं भाई’’,
 किसी का जवाब आया,
 ‘‘अंग्रेजी हाकिम के चलते पॉंच रोज से ई अकालो में पेट भर जाई छै।’’
रात भर अलाव जलता रहा, आज भी अंग्रेज साहेब नहीं आये।

13 फरवरी 1770
तेईस-चौबीस साल के नवयुक को नौका से उतरते देख कारिन्दों की ऑंखे फटी रह गयी। सफेद मलमल जैसा चमकता चेहरा। क्या आदमी इतना गोरा भी हो सकता है? सभी हैरान थे। बॉंस जैसा लम्बा तो नहीं, पर सबकुछ उनसे अलग था। ऐसी देह-यष्टि का इन्सान यहॉं इससे पहले किसी ने नही देखा था। 
इस आदमी का नाम धोकरैल था।
दिन भर धोकरैल का कारवॉं चलता रहा। वे कभी हाथी तो कभी पालकी पर सवार होते। आधी रात के करीब कारवॉं पुरैनियॉं पहुॅंचा। एक अजीब-सी सड़ॉंध, असह्य दुर्गन्ध उनके नथुनों में प्रवेश कर गयी। वे तिलमिलाकर पालकी पर ही उठ बैठे। कारवॉं रूक गया। 
‘‘यह दुर्गन्ध कैसी?’’
 टूटी-फूटी फारसी के धोकरैल साहेब ने फौजदार से पूछा।फौजदार दुविधा में पड़ गये। अब तक तो बचते-बचाते साफ रास्ते से लेकर आये, परन्तु शहर में कैसे बचे? इत्रदॉं आगे बढ़ाते हुए। फौजदार ने जवाब दिया, ‘लाशों की दुर्गन्ध है, हुजूर।’’
कैसी लाशें?’’
‘आदमी और जानवरों की जो अकाल में मर गये।’’
धोकरैल सारी रात सो नहीं सके। सुबह उठकर शहर का मुआयनां किया। जिधर से पालकी गुजर रही थी, मनुष्य और पशुओं की सड़ती लाशें बिखरी पड़ी थीं। भुखमरी के इस मंजर ने उन्हें विचलित कर दिया। यदि किसी को भरपेट भोजन मिल रहा था, तो वे चील-गिद्ध ही थे
धोकरैल को पहले आभास होता था, अब विश्वास हो गया कि वह दुर्भाग्यशाली है। पिता का साया शैशवावस्था में ही सिर से उठ गया। नौकरी ने मॉं के वात्सल्य से दूर कर दिया। बतौर राइटर जब उन्होंने इस्ट इंडिया की नौकरी स्वीकार की, तो मॉं को सदमा सा लग गया था। अभी तो धोकरैल मात्र अठारह साल के थे।
नौकरी हिन्दोस्तान में...........।
अपने सबसे योग्य पुत्र को हजारों मील दूर जाने नहीं देना चाहती थी मॉं। ‘साउथ सी’ सदमें में जब पति की मृत्यु हुई थी, तब धोकरैल ढ़ाई महीने का था। उसी समय से मॉं उसे पति के प्रतिरूप और आलबंन के रूप में देखती आयी थी। धोकरैल के हिन्दोस्तान जाने के बाद कई रात तकिये में सिर छुपाकर एकांत विलाप करती रही थी।
महीनों धोकरैल की कोई खबर नहीं मिलती। कभी-कभार बंदरगाह पर ‘गुड होप’ होकर लौटते यात्रियों से धोकरैल की नौका सुरक्षित होने की सूचना भर मिलती।
मॉं से भी दूर हो गये धोकरैल।
पुरैनियॉं जाने से पहले उन्होंने मॉं को एक पत्र लिखा...
मुर्शिदाबाद
  18-12-1769
मॉं,
मेरी प्रन्नोति हो गयी है। साहब ने मुझे डिस्ट्रिक्ट सुपरवाइजर बना दिया है। इस पद पर मुझे बंगाल के किसी जिले में जाकर वहॉं की न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था का पर्यवेक्षण करना है।
तुम्हारा
पुत्र
पुत्र जानता था कि यह पत्र मॉं को एक साल बाद मिलेगा। फिर भी उसे संतोष था कि पत्र पढ़कर मॉं खुश होगी।
शहर की स्थिति देख धोकरैल विचलित थे। शहर में वही बचे थे जिनके पास खाने को कुछ था। आधी से अधिक आबादी काल कवलित हो चुकी थी। अब वे यहॉं से न तो मुर्शिदाबाद जा सकते थे और न ही लंदन। उन्होंने शहर को लाशों की दुर्गन्ध से मुक्त करने का फैसला लिया। फौजदार और उसके मातहतों की मदद से लाशों को हटवाया जाने लगा। सौरा नदी के किनारे लाशें जलाने एवं दफनाने की व्यवस्था की गयी। एक फिरंगी युवक के उत्साह को देख बचे लोग भी घरों से निकल लाशों का हटाने लगें।
नदी तट से थोड़ी दूर पर धोकरैल ने एक आश्रय बना लिया उन्हें तब यह मालूम नहीं था कि सौरा तट पर वे एक ऐसी व्यवस्था की नींव रख रहे हैं जो सैकड़ों साल तक हिन्दोस्तान पर नौकरशाही बनकर शासन करेगी।
‘‘आधी से अधिक रियाया मारी जा चुकी है, हुजूर’’ 
दारोगा सरवर अली ने अपना मत व्यक्त किया,
 ‘‘दस महीनों से पानी की एक बूॅंद तक नहीं गिरी। नदी, तालाब और कुएॅं सूख गये। दीवानगंज और सैफगंज के अनाज गोदाम खाली हो गये हैं। किसान अपने हल-बैल को बेच रहे हैं, बीचड़े के लिए रखे अनाज को भी खा गये। हालात यहॉं तक पहुॅंच गये हैं, हुजूर, कि अनाज के लिए बेटे-बेटियों को भी बेच रहे हैं।’’
धोकरैल ने दारोगा से पूछा कि अब अनाज किस-किस जमींनदार के पास बचे हैं। देवी सिंह, कीर्ति सिंह एवं शेख इमामउद्दीन को बुलवाकर अकाल में भूखों को देने के लिए अनाज मॉंगा। जमींनदार हैरान थे कि रियाया दैवी प्रकोप से मर रही है, तो उसमें उनका क्या दोष? यह तो ‘सठ्जुगिया’ है, जाने वाले को कौन रोक सकता है? काजी, मुंसीफ, फौजदार, सभी के पास गये, पर बिल्ली के गले में घंटी बॉंधे कौन? अनाज धीरे-धीरे रामबाग पहुॅंचने लगा।
धोकरैल जहॉं जाते, उनकी पालकी के पीछे अनाज से लदी बैलगाड़ी होती। वे जरूरतमंद भूखों को अनाज बांटते हुए आगे बढ़ जाते। गॉंव-गॉंव घूमने में उन्हें दारोगा, काजी, मुंसीफ वगैरह की कारगुजारियों का पता चला। उन्हें पता चला कि न्याय-निर्णय बिकते थे, आज इसके पक्ष में तो कल उसके पक्ष में। सजा-मुक्ति और सजा दिलाने के लिए दर निर्धारित थी। दारोगा भी भ्रष्ट जमींदार, काजी और मुंसीफ की तिकड़ी में शामिल थे। रियाया त्राहि-त्राहि कर रही थी।
धोकरैल ऐसी व्यवस्था को देखकर दंग थे। वे जहॉं कहीं जाते उन्हें शिकायतें सुनने को मिलतीं। पुरैनिया में वे भूखों के लिए ईश्वर से कम नहीं थें। आम-अवाम में चर्चा थी कि अकाल में ऐसे दरियादिली नवाब क्या, तुरकों और मुगलों ने भी कभी नही दिखी थी।
महीनों बाद आकाश में बादल मंडराये, वर्षा-जल से धरती से सोंधी महक उठी। बुझती ऑंखों में चमक लौटने लगी। सठ्युगिया का काला साया खत्म हो रहा था। धोकरैल साहब आम लोगों को काफी लोकप्रिय हो गये थे। काजी, मुंसीफ, दारोगा, जमींदार, अमीन, फौजदार, सभी उनके रामबाग कार्यालय में अक्सर हाजिरी लगाते और उनके आदेश पालन को हमेशा आतुर रहते।

15 मार्च, 1772 ई. जलालगढ़
शाम ढल रही थी। धोकरैल अपने कारवाँ के साथ मोरंग जा रहे थे। जलालगढ़ के समीप रियाया ने उनकी पालकी को घेर लिया। गोधूलि बेला में इस अप्रत्याशित घटना से वे चौंक गये।
‘‘क्या बात है? उन्होंने पूछा।
स्थानीय जमींदार जूदेव सिंह के अत्याचार से परेशान रैयतों ने लगान न दे पाने की मजबूरी बतलायी।
उनका कारवाँ जूदेव सिंह की हवेली की ओर मुड़ गया। मोरंग जाने का इरादा छोड़ और रैयतों की शिकायत सुनकर जमींदार के यहॉं रात्रि विश्राम का निर्णय लिया। साठ वर्षीय जूदेव सिंह धोकरैल साहेब को अपने दरवाजे पर देखकर आश्चर्यचकित और आक्रांत था। वह उन्हें हवेली के आरामदायक बैठकखाने में ले गये। रैयतों को वहीं बुलवाया गया।
आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जमींदार के सामने रैयत उसकी शिकायत करे। मशाल की रोशनी में धोकरैल साहेब का चेहरा चमक रहा था। तभी उन्होंने देखा कि चिलमन के पीछे से दो ऑंखें लगातार उन्हें निहार रही हैं। वे सचेष्ट हो गये। युवा मन में बिल्कुल नयी अनुभूति हुई। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, न मुर्शिदाबाद में, न ही लन्दन में। लन्दन की सड़कों पर निहारने वाली नजरों ने कभी उन्हें इतना परेशान नहीं किया था।
रात में वे रैयतों को कोई निर्णय नहीं सुना सके। जूदेव सिंह भी रात भर असमंजस में रहे कि न जाने सुबह क्या फैसला सुनने को मिले। रैयत फैसले का इन्तजार करते रहे। सुबह धोकरैल साहब ने रैयतों से इस साल का लगान आधा कर वसूलने का निर्णय सुनाया। रैयतों में जैकार हो गयी। जूदेव सिंह ने राहत की सॉंस ली। 
यह गॉंव उसी दिन से ‘धोकरैल’ पुकारा जाने लगा।
धोकरैल साहब जूदेव सिंह से विदा हुए और मोरंग न जाकर वापस रामबाग लौट आये।
उन्हें लगा कि षोडशी की मोनालीसा सदृश दो ऑंखें जाते हुए उन्हें देख रही हो और उसका अक्स उनकी पीठ पर अंकित हो गया हो।
................................    .......................    ..........................
गरमी की एक सुहानी शाम को धोकरैल रामबाग से टहलते हुए सौरा नदी के तट पर चले गये। नदी के उस पार भारी भीड़ थी। ढोल-नगाड़े बज रहे थे। एक ऊँची चिता जल रही थी जिस पर एक स्त्री को जबरदस्ती बैठाया जा रहा था। ढोल-नगाड़े की आवाज में उसके चीत्कार को दबाने की कोशिश की जा रही थी।
‘‘रोको, रोको।’’
 धोकरैल लगभग चिल्ला उठे। चिता धधक रही थी। जिन्दा स्त्री को जलाते देख वे चिल्लाते हुए नदी में कूद पड़े, उस पार पहुँचकर चिता से खींचकर स्त्री को नीचे उतारा।
धोकरैल साहब को देखकर भीड़ ठिठक गयी। उनमें से एक ने बताया कि जूदेव सिंह की मृत्यु हो गयी है और उनकी पत्नी सती हो रही है। धाकरैल ने मुड़कर देखा-अरे, ये तो वही ऑंखें हैं जो एक अरसे से उसका पीछा कर रही हैं! और आज...आज ये ऑंखें कह रही हैं, 
‘‘मुझे बचा लो।’’
धोकरैल उन ऑंखों को साथ लिय नदी में कूद पड़े। भीड़ अवाक् देखती रह गयी। 
उस रात धोकरैल ने नम ऑंखों से मॉं को पत्र लिखा.....
पुरैनियॉं
18.06.1772
मॉं,
मैंने तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध हिन्दोस्तान में विवाह कर लिया है। मुझे माफ कर देना।
तुम्हारा
जी.जी. डुकारेल
डुकारेल जानता था कि यह पत्र उसकी मॉं को एक साल बाद मिलेगा।
........................... ..........................  .........................
चन्द्रवती उर्फ मिसेज डुकारेल ने अबू तालीब को अपनी कहानी सुनाते हुए धोकरैल साहेब उर्फ जी.जी. डुकारेल का यह पत्र भी मॉं की संदूक से निकालकर दिखलाया था।

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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

पूर्णिया डायरी-8 अबू तालिब, मिसेज डूकारेल, मैं और पूर्णिया (AbuTalib,Mrs Ducarel,Purnia and Me)


वर्ष 2007 में मेरी मुलाकात अबू तालिब से हुई . मुलाकात चार्ल्स स्टूअर्ट ने करवायी जगह थी खुदा बक्श खाँ ओरिएन्टल लाइब्रेरी . फिर अबू तालिब मुझे लंदन ले गये.

वहाँ उन्होंने मेरी मुलाकात मिसेज डुकारेल से करवायी. अबू तालिब ने ही मुझे बताया कि गेरार्ड गुस्टावस डुकारेल ने पूर्णिया की एक हिन्दू विधवा  जो सती होने जा रही थी को, पति की चिता पर से उतारकर उसे मिसेज डूकारेल बनाया. ऐसी fascinating story ने मुझे कहानी लिखने को बाध्य कर दिया . मैने अपनी पहली कहानी "यह पत्र माँ को एक साल बाद मिलेगा" लिखी. यह कहानी मैंने प्रो०रामेश्वर प्रसाद को भी बताया, जो उन दिनों बिहार सरकार के अनुरोध पर पूर्णिया जिले की स्थापना-तिथि पर शोधरत थे. उन्हें तो सहसा विश्वास न हुआ , पर जब मैंने प्रमाण भेजा तो मुझे धन्यवाद और बधाई दी.कहानी उन्होंने अपने शिष्यवत एक अँग्रेजी अखबार के स्थानीय  संवाददाता आदित्य नाथ झा को बताया, जो रोज उनके पास आते थे. श्री झा उन एक दो लोगों मे से थे जिन्हें प्रत्येक दिन प्रो० साहब से मिलने कि इजाजत थी. अगले दिन यह खबर " हिन्दुस्तान टाइम्स " की सुर्खियों में था.
इस खबर ने पूर्णिया के आम-जन के मन-मस्तिष्क को झंकृत कर दिया. बाद मे प्रो० साहब ने मुझे बताया था कि अखबार के संपादक जो क्रिश्चन हैं, ने इस खबर की कतरन अपने टेबुल पर शीशे के नीचे लगा रखी है.
                             पर्सियन-तुर्की उद्भव के मिर्जा अबू तालिब खानम इस्फानी का जन्म लखनऊ  मे हुआ था. उनके पिता अवध के नबाब कि सेवा में उच्च पद पर थे. अवध के पतन के बाद अबू तालिब कलकत्ता चले आये. प्रशासनिक दक्षता के बावजूद इस्ट इंडिया कंपनी शासन में कोई अच्छा ओहदा न मिल सका.तब अपने अंग्रेज मित्र captain Devid Richerson के इंगलैण्ड चलने के प्रस्ताव को स्वीकार कर उनके साथ निकल पड़े. 1799 से 1803 तक अफ्रिका, इंगलैण्ड और पशिचम एशिया की यात्रा कर भारत लौटे. फारसी में अपना यात्रा-वृतांत लिखा "मसिर-ऐ-तालिबी-फी-बिलाद-ए-इफरानी".
इसका अँग्रेजी अनुवाद हेलबरी कालेज के फारसी के प्रो० चार्ल्स  स्टुअर्ट ने किया था. अबू तालिब लंदन में दो ऐसी भारतीय महिलाओं से मिले जिन्हे भारत आये अँग्रेज विवाह कर 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अपने साथ इंगलैण्ड ले गये थे. इनमें से एक पूर्णिया के पहले अँग्रेज सुपरवाईजर गेरार्ड गुस्टावस डूकारेल की पत्नी मिसेज डुकारेल थी. दूसरी फ्रेंच  तंख़्वाहदार(Mercenary)जेनरल वेव्हाईट डी ब्याइ्ज्म की पत्नी नूर बेगम उर्फ हालिम बेगम थी जो लखनऊ से थी.

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

नरकटियागंज डायरी (narkatiaganj Dayari /shatrudhan jha/ )

विवेकानंद के जीवन और दर्शन को पढते हुये यह जाना कि अमेरिका से लौटने के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा था ,मूर्ख देवो भवः,लाचार देवो भवः, बिमार देवो भवः . इस घटना के सौ साल बाद इस बात ने नारकटियागंज के स्टेशन मास्टर के अंतःमन को इस कदर झखझोर दिया कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी. नौकरी छोड़ने के बाद नरकटियागंज मे ही कुष्ठ आश्रम शुरू किया.
उसके बाद समाज के अंतीम पायदान पर रहने वाले मुशहर समुदाय के बच्चों के लिये एक आश्रम बनाया जहाँ अभी दो सौ बच्चे हैं. वर्ग एक से आठ तक को मान्यता मिल गयी है.इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. महात्मा गाँधी और विनोवा भावे के सिद्धांतों को आत्मसात करने वाले शत्रुध्न झा जी ने नौकरी छोड़ने के बाद मिले पैसों से जो घर बनवाया उसे मुशहर समाज कि लड़कियों के आश्रम का रूप दे दिया है. यहां उनकी पत्नी इसकी देख-रेख करती है.आज मेरे गाँधीवादी मित्र दीपक जी उनकी चर्चा सुन उनसे मिलने विश्व  मानव सेवा आश्रम नरकटियागंज गये.
मुझसे बात भी करवायी . जब मैंने उनसे ये पुछा की इन कार्यो की वजह से अपने परिवार और समाज में विरोध का सामना नहीं करना पड़ा ? उन्होंने बताया कि उनके एक रिश्तेदार जो ज्योतिषाचार्य हैं ने कहा कि ब्रहम्ण होकर कोढी को छूता है , सात पीढियों को नर्क मे ढकेल रहे हो , तब श्री झा ने जबाब दिया की वे स्वर्ग और नर्क को देखना चाहते हैं .

 श्री झा के पुत्र झारखंड में उच्चाधिकारी हैं. उन्होने अपने विवाह के समय कहा कि जबतक कुष्ठ आश्रम के कुष्ठ रोगी बारात नहीं जायेगें तबतक विवाह नहीं होगा. फिर क्या था आश्रम के सभी कुष्ठ रोगियों को ले जाने की व्यवस्था की गयी. सभी बारातियों के साथ वे लोग खाना खाया साथ में सोये फिर लौटे. सामाजिक अव्यवस्था को खुली चुनौती काबिले तारीफ है. 

रविवार, 16 सितंबर 2018

पूर्णिया डायरी -7(Prof Dr Rameswar Prsad and rediscovery of purnea)

बात २००७  की है, पूर्णिया से मुझे एक व्यक्ति ने फ़ोन कर यह अनुरोध किया कि जिले की स्थापना दिवस की खोज में मै उनकी कुछ मदद करूँ . तब मैं सिवान में था.  मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वे जाकर प्रो० (डा०) रामेश्वर प्रसाद से मिलें और उनसे अनुरोध करें वे चाहे तो इस काम को अंजाम तक पहुंचा सकते हैं  , पर मेरा संदर्भ न दें, क्योंकि वे एकांत पसंद व्यक्ति हैं, और किसी अन्य गंभीर विषय पर शोधरत हैं.वे नहीं चाहते की कोई व्यवधान पंहुचाये .
बहरहाल वो मिलने गए ; जिलाधिकारी ने भी इस आशय का अनुरोध उनसे किया . उसी दिन शाम में प्रोफेसर साहब ने फोन कर मुझे सारी बात  बताई. इस काम के प्रति अनिच्छा व्यक्त करते हुए मेरी राय पूछी. मैंने क्षमा मांगते हुए अनुरोध किया कि यह उनके गृह जिला का मामला है. यह भी बताया की मेरे ही सुझाव पर लोग आपसे मिले थे. मैं वर्ष २००३ से प्रो० रामेश्वर प्रसाद को जानता हूँँ. पूर्णिया छोड़ने के बाद भी लगातार सम्पर्क बना रहा, महिने में दो-तीन बार बात आवश्य हो जाती थी. इसके साथ ही काम प्रारंभ हो गया इसमें मैं उनका सहयोगी हो गया. इस विषय पर प्रत्येक दो-तीन दिन पर बात होने लगी.
    (14 फरवरी २०१८ को प्रो० रामेश्वर प्रसाद के आवास पर आकर सम्मानित करते जिलाधिकारी )                                                       बात शुरू हुई जिले में ब्रिटीश शासन के पहले सुपरवाइजर डूकारेल से .प्रोफेसर साहब काम में डूब गए परत दर परत खोज करने लगे . कई महिने की कठिन मेहनत के बाद वह तिथि भी उन्होंने  ढूंढ ली जिस दिन जिले के पहले अँग्रेज अफसर (सुपरवाइजर) के रूप मेें डूकारेल पूर्णिया आया था.तथ्य को साक्ष्य के साथ संदर्भित करते हुए एक विस्तृत आलेख तैयार किया .  मेरी सलाह पर इस लेख का एक सार (synopsis) सरकार को उन्होंने दिया .
                    तिथि निर्धारण के लिए बनी समिति के समक्ष  इसे रखा गया सबों का पक्ष सुनकर प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य और तथ्य के आधार पर 14 फरवरी को पूर्णिया का स्थापना दिवस तय हुआ . 2008 में पहली बार जिले का २३७ वां स्थापना दिवस मना. इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में प्रो० साहब का यह शोधपरक लेख भी प्रकाशित हुआ .
             .पूर्णिया छोड़े बारह साल हो गए .पिछले कुछ वर्षों से मुझे पूर्णिया से प्रो० साहब के आलावा कोई फोने नहीं करता .२७ मार्च २०१८ को मै बस से पटना आ रहा था की पूर्णिया से एक अन्य व्यक्ति का फोने आया; मुझे उनके  रुखसत की खबर दे गया. मै इतना आहत हुआ कि चाह कर भी इतने दिनों तक उनके बारे में कुछ नहीं लिख सका. सूचना के साथ ही उनकी स्मृतियों का चलचित्र चल पड़ा. मै पूर्णिया में तीन साल रहा तीनो साल दुर्गा पूजा नवमी को वो मेरे घर अपनी फिएट कार सेे आते थे . बाद में पता चला की इस दिन बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद का विशेष महत्व है.एक बार उन्होंने मेरी पत्नी को बहू संबोधित करने की अनुमती मांगी थी , उनके ये शब्द सुनकर मेरे आँखों में आंसू आ गए थे. शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब उनकी याद न आती हो. 
          उन्होंने कई वृहत् शोध कार्य किये पर पूर्णिया जिला के स्थापना के विषय पर शोध कर संपूर्ण जिलावासियों के दिलों में स्थान बना लिया . पूर्णिया अब डुकारेल के साथ प्रो० रामेश्वर प्रसाद को भी विस्मृत नहीं कर पायेगा.
                                             

सोमवार, 10 सितंबर 2018

वाणावर डायरी-५ (vanavar dayri-5 / shyamjee chauhan)

वाणावर सिद्धनाथ मन्दिर जानेवाले लगभग 2000 सोमवरिया हैं । सोमवरिया का तात्पर्य वैसे शिवभक्तसे है जो पूरे साल प्रत्येक सोमवार को जलाभिषेक करते हों. ऐसे ही एक भक्त पिछले दस-बारह वर्षों से मंदिर जाने के लिए सुगम मार्ग का निर्माण कर रहे है. प्रत्येक सोमवार को अन्य सोमवारिय की तरह मंदिर में जलाभिषेक के बाद घर नहीं लौटते बल्कि पहाड़ के दुर्गम मार्ग को सुगम बनाने में लग जाते है
. ये अपने साथ दोपहर का भोजन , एक लाठी और एक खंती लेकर आते है. दिन भर काम में लगे रहते है,शाम को घर  लौटते हैं.गत वर्षों में कई बार इनके द्वारा बनाये गए मार्ग का क्षय हुआ , फिर भी हार नहीं मानी  , अपनी एकांत साधना में लगे रहे. गौ-घाट वाले मार्ग पर किसी सोमवार को इन्हें अपने कार्य में तन्मय देखा जा सकता है. पुराने श्रद्धालु जो २५-३० वार्षों से यहाँ आ रहे है, पहले के दुर्गम मार्ग को याद कर उनका धन्यवाद ही नहीं देते बल्कि उनके कार्यों में सहयोग करते हैं.
                         इनका नाम श्री श्यामजी चौहान है. बेला प्रखंड के भलुआ गांवों के रहने वाले है. इनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ है , मजदूरी कर जीवन का गुजर-बसर करते है. इनकी आयु ६५ वर्ष के लगभग है. रास्ता बनाने के लिए वे पहले उपुक्त पत्थर की तलाश करते है.
उसे लाठी और खंती के सहारे लाते  है और सही जगह पर लगते है.वर्तमान में उनके द्वारा निर्मित मार्ग को देखकर आश्चर्य होता है कि बिना पत्थरों को तोड़-फोड़  किये , प्रकृति में बिना कोई छेड़-छाड़ किये कैसे मात्र एक व्यक्ति के दृढ निश्चय से यह संभव हो पाया . इन्हें लोग इंजिनीयर साहब कहकर भी संबोधित करते है.
                       इनके सराहनिय कार्यो को कभी मिडिया ने लोगों के सामने नहीं लाया , क्योंकि सकरात्म खोजी पत्रकारिता की परम्परा समाप्त सी हो गयी है. पहली बार श्यामजी चौहान के सम्बन्ध में मेरा एक आलेख सम्यक नामक पत्रिका में वर्ष २०१४ में प्रकाशित हुई . इसके बाद विभिन्न समाचार-पत्रों में इनसे सम्बंधित आलेख छपने लगे . परन्तु इससे बेखबर श्री चौहान अपने काम में लगे आज भी आपको मिल जायेंगे . 

बुधवार, 5 सितंबर 2018

इवान पावलोविच मिनायेव की बिहार डायरी (Ivan Pavlovich Minayev's Bihar dayari)

रुसी भारतविद् इवान पावलोविच मिनायेव (१८४०-१८९०) ने रूसी ज्योग्राफिकल सोसाइटी के सदस्य के रूप में १९वि शताब्दी के उतरार्ध में भारत ,नेपाल और वर्मा की तीन यात्रायें की थी. बौद्ध धर्म और पाली में विशेष रूचि होने के कारण उन्होंने बिहार की भी यात्रा की थी.
इनका यात्रा वृतांत रुसी जर्नल में प्रकाशित हुआ. सन १९५८ एवं १९७० में अंग्रेजी में उनका यात्रा वृतांत प्रकाशित हुआ.
        इस यात्रा वृतांत का मगही अनुवाद भाषाविद् नारायण प्रसाद ने २०१८ में किया है. यह रचना उनके ब्लॉग http://magahisahitya.blogspot.com पर उपलब्ध है. "सिलोन और भारत के रुपरेखा "  पुस्तक रूसी  भाषा में प्रकाशित हुई  थी. इसके प्रथम खंड में बिहार की यात्रा का वर्णन है(पृष्ठ संख्या १८७से २३०).जिसका अनुवाद उन्होंने मगही में किया है.उनका दावा है कि इसका अंग्रेजी या अन्य किसी भारतीय भाषा में अनुवाद नहीं  हुआ है.बिहार में  इवान पावलोविच मिनायेव ने बिहारशरीफ , बड़गॉव, राजगृह, पावापुरी-गिरियक, बोधगया,गया और पटना की यात्रायें की थी. यदि इस यात्रा-वृतांत का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है तो नारायण प्रसाद जी ने भारतीय इतिहासकारों को एक नयी स्त्रोत सामग्री उपलब्ध करवायी है.
                   मिनायेव ने अपनी यात्रा के दौरान भारत ,नेपाल और बर्मा से कई प्राचीन ग्रथों की पांडुलिपियाँ अपने साथ संकलित कर ले गए . जो  वर्मी ,पाली , फारसी और अन्य भाषाओं की है. इसके अतिरिक्त कुछ अन्य सामग्रियां यथा मिनिएचर पेंटिंग भी ले गए.  अपने संग्रह को उन्होंने स्टेट पब्लिक लाइब्रेरी सेंट पिट्सवर्ग को दान कर  दिया, जंहा आज भी वह बंद बस्तों में पड़ी हैं. यहाँ ३०५ शीर्षकों के तहत इन्हे सूचिबद्ध किया गया है. बौद्ध धर्म के अतिरिक्त जैन एवं ब्राह्मण  धर्म से सम्बंधित पांडुलिपियाँ भी है. इस बिंदु पर हम  इवान पावलोविच मिनायेव को रूस का राहुल सांकृत्यायन कह सकते है. बिहारशरीफ के यात्रा वृतांत ब्राडले के सम्बन्ध में हमारी धारणा  को बदल सकता है, इसमें उल्लेख है की ब्राडले के प्राचीन कलाकृतियों की सूचि गायब थी. ब्राडले कुछ प्राचीन कलाकृतियों के गायब करने के इल्जाम के साथ फरार था .  यह Charles Allen जैसे ब्रिटिश  लेखकों को भी चुनौती देता है जो  इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए कई पुस्तकों की रचना कर  चुके है कि  बौद्ध धर्म  और इतिहास के सम्बन्ध में जो भी खोजें  हुई उसे अंग्रेज विद्वानों  ने ही किया है.

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

वाणावर डायरी-४(बराबर पहाड़ /प्रचीन मंदिर के ध्वंसावशेष )

 वनावर सिद्धनाथ मंदिर, प्राचीन मंदिर के ध्वन्सावशेशों पर बना है वर्तमान मंदिर का गर्भगृह और मण्डप प्राचीन है . परिक्रमा पथ बरामदा एवं गुम्बद का निर्माण हाल के वर्षों में कराया गया है.
यंहा बिखरी मूर्तियाें और अन्य अवशेषों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में एक भव्य मंदिर रहा होगा . मंदिर के पश्चिम आहाते में एक पत्थर पर प्राचीन मंदिर की अनुकृति तैयार की गयी है.
इसका शीर्ष भाग त्रिस्तरीय था. सम्पूर्ण मंदिर बराबर पहाड़ के ग्रेनाईट पत्थर का बना था.


निर्माण कार्य हेतु बड़े चट्टनों को प्राचीन विधि से तोड़ने का साक्ष्य ऊपर के छायाचित्रों में देखा जा सकता है. कुछ लोगों का मत है कि इस मंदिर का निर्माण हर्षवर्धन (मौखरी वंश) के शासन काल में हुआ था. मंदिर बनने से पूर्व पर्वत के शिखर पर  एक बौद्ध स्तूप था.बौद्ध परम्परा के अनुसार भगवान बुद्ध बोधगया जाने से पूर्व बरावर की पहाड़ियों  का भ्रमण किया था, एवं एक वर्ष तक यहीं रहे थे. इसी के शिखर पर से पहली बार मगध क्षेत्र का सिंहावलोकन किया था. इस काल खंड में बौद्धों और सनातन धर्मावलम्बी के बीच  वर्चस्व की लडाई आम थी. शासक वर्ग भी अपनी आस्था के अनुसार इस लडाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे.  सातवीं शताब्दी से अबतक शिव भक्तो का लगातार यंहा आना  लगा  हुआ है, जो बराबर को विशेष दर्जा प्रदान करता है.




         यहाँ मंदिर के आसपास बड़ी संख्या में पत्थर के स्तंभ बिखरे  हैं .






 इन स्तंभों पर ही मंदिर का ढाँचा खड़ा रहा होगा . इस समय मेहराब शैली का प्रवेश भारत में नहीं हुआ था.पूरी संरचना स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पत्थरों से ही बनाया गया था. इतने बड़े पैमाने पर अवशेषों को देखकर कहा जा सकता है कि किसी शासक ने ही इसका निर्माण कराया होगा.
कुछ शिलाखंडों पर अच्छी नक्काशी भी की गयी है.
                      यह किसी बड़े द्वार का उपरी हिस्सा लगता है.
मंदिर ध्वन्श्वशेसों से ही यंहा रहने वाले साधुओं ने मंदिर के ठीक सामने एक विश्रामालय बनाया है .
इसकी बाहरी दीवारों पर आसपास बिखरी मूर्तियों को लगाकर इन्हे संरक्षित करने की कोशिश की गयी थी. बुकानन ने इसका जिक्र करते हुआ लिखा है की कुछ साधु यहाँ रहते है जिन्होंने इस विश्रामालय का निर्माण अठारहवी शताब्दी के मध्य में किया था .वर्तमान में इसपर मंदिर के महंत जी का कब्ज़ा है. इसका निर्माण इस तरह किया गया है की कितनी भी आँधी,पानी, तुफान आये इसमें शरण लेनेवाला व्यक्ति सुरक्षित रहेगा.
 इसके सामने रक्खा चैकोर पत्थर का यह अलंकृत टुकड़ा सीढी के तौर पर इस्तेमाल होता है.


इन अवशेषों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है की, पत्थर के ढांचे को मजबूत पकड़ देने के लिए व्यापक पैमाने पर लोहे का प्रयोग हुआ था.
यह अवशेस मंदिर के प्रवेश द्वार पर है . इसमें लोहे या लकड़ी के विशाल फाटक लगाने का प्रमाण मिलता है.


कई स्थानों पर अलंकृत शिलाखंड इसके भव्य सौन्दर्य की गाथा कहते दीखते है.इस पोस्ट से पहले इस प्राचीन मंदिर के इन ध्वंसावशेषों का कहींं कोई डॉक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है, न ही पूर्व में किसी शोधकर्ता ने इसके पुरातात्विक महत्व पर प्रकाश डालने की कोशिश की है. प्राचीन भारत में उत्तर भारत के गिने चुने मंदिरों में से एक था. इसका विस्तृत अध्यन मंदिरों के स्थापत्य के संदर्भ में नए आयामों को उद्घाटित करेगा .