शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

प्रखंड डायरी

सन् 2001-2003 तक मैं साहेबगंज (दुमका) के गाँव मे था. दुरस्थ संथाल गाँव मे जाने का अवसर मुझे कई बार मिला. चारों ओर हरियाली ही दिखती थी, संथाल लोगों मे हरे रंग के प्रति जबरदस्त लगाव मैंने देखा. यह उनके प्रकृति प्रेम को इंगित करता है. हरे पेङ ,हरे खेत, हरे मैदान यहाँ तक की कपङे भी हरे. हरी साङी हरा पैंची. पैंची हरा रंग का बङा (लगभग दो मीटर का) गमछानुमा आवरण होता था. स्त्रियाँ इसे साङी के उपर लपेटे रहती और पुरुष सर पर. यह हस्तकरघा पर बनाया जाता था, इसे परंपरागत प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता. विशेष पत्तों से तैयार रंग इतना पक्का होता है कि पैंची फट जाता पर रंग नहीं जाता. हटिया के दिन पूरा बाज़ार हरा-हरा ही दीखता. साहेबगंज से लौटते वक्त मुझे दो पैंची उपहार में मिला था, पाँच वर्षों के बाद ही यह घीसकर फटा पर रंग न गया.
        बिहार के प्रायः सभी प्रखंडों मे प्रखंड विकास पदाधिकारी और अंचलाधिकारी हरे रंग वाली रिफिल का प्रयोग करते हैं. प्रखंड का अन्य कोई सरकारी कर्मी चाहे शिक्षक हो या चपरासी हरे रंग की स्याही का प्रयोग नहीं करता है. सहायक ब्लू स्याही, प्रधान सहायक लाल स्याही, हाकिम हरी स्याही. इसके पीछे कोई सरकारी आदेश निर्देश नहीं है , बस परंपरा. दूरस्थ प्रखंड मुख्यालय में एकाद दूकानदार ही हरे रिफिल वाली कलम रखता है. हरे रंग की स्याही का आकर्षण ऐसा है कि जिन राजनेताओं ने प्रखंड स्तर से अपनी राजनीति  की शुरुआत की और राजनैतिक नौकरशाही के शिर्ष तक पहुँचे वे भी हरे रंग की स्याही से  ही हस्ताक्षर करते हैं.
     शासन-प्रशासन जिसका प्रतीक  लाल रंग है. लाल फीता से बंधी फाइलें, लाल साटन मे लपेट कर रखा गया अभिलेख, ईजलास के आगे लगा लाल पर्दा , लाल कालीन , लाल पट्टा, लाल बत्ती. इस लाल रंग के मिथक को तोङकर हरा रंग कब शिर्ष पर जा बैठा यह शोध का विषय है. मेरे मित्र डा0 सदन झा रंगों के इतिहास और इतिहास के रंग पर वर्षों से काम कर रहे हैं, उनका ध्यान इस ओर आवश्य गया होगा.