गुरुवार, 5 नवंबर 2020

पटना पर लिखी एक वाहियात किताब

 

'मैटर ऑफ  रैट्स' पटना पर लिखी एक वाहियात किताब है. लेखक अमिताभ कुमार है जो अमेरिका में रहते है. पुस्तक संस्मरणात्मक लहजे में लिखी गई है, परंतु कोई निरंतरता नहीं है. 'कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा'. लेखक का बचपन एवं किशोरावस्था पटना मे बीता है. यह बताना नहीं भूलते की वे अंग्रेजीदा स्कूल मे पढ़ें एक  उच्च अधिकारी के पुत्र है . पाठक पुस्तक पढकर सहज अनुमान लगा सकते है की इनका जमीनी हकीकत से कभी वास्ता नहीं रहा . यदि कोई विदेशी इस पुस्तक को पढ़ ले तो उसे लगेगा कि पटना चूहों का शहर है.


भूमिका में वे लिखते हैं कि पटना का भोग मनुष्य नहीं चूहे करते हैं और दोनों एक साथ जीते हैं.  कभी जलान संग्रहालय कभी अरुण प्रकाश की कहानी कभी बिंदेश्वर पाठक के सुलभ शौचालय में घुमाते हैं; कोई तारतम्यता नहीं है. ऐसा लगता है कि पटना संबंधित बेतरतीब नोट्स को पुस्तक का रूप दे दिया हो. अपने स्कूल की उत्कृष्टता बताते हैं, उसका नाम भी बताना नहीं भूलते. उनके बौद्धिक दिवालियापन का आलम यह है वे चूहों और उसके मारने की कला के संबंध में किसी गांव में जाकर  नहीं पूछते बल्कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री से मिलते हैं, और इस संबंध में पूछ-ताछ करते हैं. कुल मिलाकर अमिताभ जी उस जमात में शामिल है जो पहली दुनिया में रहकर अपनी  तीसरी दुनिया की गलत तस्वीर पेश कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते है. चीजों को वैसे ही परोसते है जैसा उनका आश्रयदाता चाहता है
. 

रविवार, 31 मई 2020

जलालगढ़ डायरी : पूर्णिया का किला (jalalgarh fort of purneya)


   जलालगढ़ किला पूर्णिय से उत्तर 20 किलोमीटर दूर स्थित है. यह राष्ट्रिय उच्च पथ-57 से 1.5  किलोमीटर पूरब की ओर है. जलालगढ़ किले का निर्माण खगड़ा (किशनगंज) के मनसबदार राजा सैयद मोहम्मद जलालुद्दीन ने करवाया था. 

 ये मुगल काल के एक सामंत थे, सीमांत क्षेत्र के मनसबदारी उनके पास थी. मुगल बादशाह जहांगीर ने इन्हें राजा का खिताब दिया था.

मुगल काल से पूर्णिया भारत और  नेपाल के बीच का सीमांत प्रदेश रहा है. जिस कारण इसका सामरिक महत्व है. यह किला लगभग 6 एकड़ में फैला है, और उसके आसपास इसकी 100 एकड़ जमीन है.
वर्तमान में किले की दीवार उसका बुर्ज और प्रवेश द्वार के भग्नावेश शेष बचे है. इसकी ऐतिहासिक महत्ता को देखते हुए बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय ने संरक्षित स्मारक घोषित किया है.

संभवत इस किले के निर्माण का उद्देश्य नेपाल से सटे सीमावर्ती क्षेत्र में एक सशक्त सैन्य केंद्र स्थापित करने का रहा होगा.
18 वीं शताब्दी से लेकर 19 वीं शताब्दी तक यह एक सशक्त सैन्य केंद्र की अपनी भूमिका का निर्वहण करता रहा. सुरक्षा के साथ-साथ इस मार्ग से होकर आने-जाने वाले यात्रिओं और व्यापारियों को भी निर्भय  आवागमन की सुविधा मुहैया करता रहा.
19 वी सदी के प्रारंभ में पूर्णिया का जिला मुख्यालय, और कोर्ट-कचहरी रामबाग में था जो सौरा और कोसी नदी की धारा के बीच में स्थित था. अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों के कारण इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां से स्थानांतरित करने का निर्णय लिया.
सन 1815 ई० में तत्कालीन कलेक्टर ने जिला मुख्यालय को रामबाग से हटाकर जलालगढ़ में स्थानांतरित करने की अनुशंसा की थी परंतु कतिपय कारणों से संभव नहीं हो सका. वर्तमान में किले की लंबाई पूरब से पश्चिम 550 फिटर उत्तर से दक्षिण 410 फीट है. किले की दीवार की ऊंचाई 22 फीट और चौडाई 7 फिट है.

 दीवारों को सुर्खी-चुना से जोड़ा गया है. मुख्य प्रवेश द्वार पूरब की ओर है जिसकी ऊंचाई 9 फुट है. 70 के दशक तक मुख्य प्रवेश द्वार में काठ के भारी चौखट और विशालकाय दरवाजे को देखा जा सकता था. किले के चारों कोनों पर बुर्ज (वाच-टावर) बने है. किले के पूरब कोसी की एक धारा बहती है. यह उन दिनों नदी मार्ग से सीधा मुर्शिदाबाद से जुड़ा था. इस किले के जीर्णोद्धार के लिए श्री नाथो यादव लगातार संघर्षरत है.
यद्यपि पर्यटन के दृष्टिकोण से यहां कुछ विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं है, परंतु एन.एच-57 से सटे होने के कारण यहां पहुंचना मुश्किल नहीं है. इतिहास और मध्यकालीन स्थापत्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को इस किले का भ्रमण एक बार अवश्य करना चाहिए. 


गुरुवार, 21 मई 2020

ए. टी. आई. डायरी ; रांची (A.T.I /SKIPA Dayari ; Ranchi)


11 अप्रैल 2001
        
  अप्रैल की सुहानी सुबह के साथ प्रशिक्षण की एक और नए दिन की शुरुआत हुई.
सुबह कुछ परिक्ष्यमान पदाधिकारी चाय की चुस्कियां के साथ अखबार पढ़ रहे थे,

कुछ लॉन टेनिस तो कुछ योगाभ्यास में लीन थे.

सुबह के नाश्ते के बाद सभी पदाधिकारी गण व्याख्यान कक्ष की ओर प्रस्थान कर गये .
आज प्रथम व्याख्यान श्री ए. एन. सिन्हा महोदय " सुनिश्चित रोजगार योजना" विषय पर था.
इस योजना के लक्ष्य, उद्देश्य कार्य-योजना, संगठन, कार्यान्वयन, पंजीकरण, मजदूरी का भुगतान, निरीक्षण एवं सतर्कता से संबंधित विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला गया.

व्याख्यान के दौरान श्री सिन्हा ने प्रसंगवश अपने व्यवहारिक अनुभव के संदर्भों से प्रशिक्षुओं को लाभान्वित किया.
       चाय अंतराल के बाद दूसरा व्याख्यान श्री एके घोष महोदय का था. श्री घोष ने "बिहार वित्त नियमावली" एवं 'कोषागार संहिता' के नियमों की चर्चा करते हुए वित्त पर नियंत्रण के विषय में बताया.
  तीसरा व्याख्या श्री वी. के. सहाय महोदय का था, परंतु किसी कारणवश वे नहीं आ सके.
उनके स्थान पर श्री घोष ने ही व्याख्यान दिया.
    भोजन अवकाश में सभी पदाधिकारी छात्रावास की ओर लौट चलें कड़ी धूप में किस गृष्म ऋतु के आगमन का अहसास हो रहा था.
सबो ने मेस में दोपहर का भोजन ग्रहण किया. रोज की तरह आज भी भोजनावकाश के बाद
प्राय: फोन की घंटी लगातार बजती रही और पदाधिकारी गण अपने इष्ट मित्रों संबंधियों माता पिता मंगेतर पत्नी आदि से दूरभाष पर वार्तालाप करते रहे.

भोजन अवकाश के बाद पुनः पदाधिकारी गण 3:00 बजे प्रेक्षागृह में एकत्रित हुए जहां अतिथि व्याख्याता श्री आर.के. सिंह महोदय का व्याख्यान होने वाला था.
आज का विषय था "झारखंड और बिहार में खनिजों खान तथा इससे संबंधित कानून एवं नियमावली"
श्री सिंह 3:05 बजे आए और उनका व्याख्यान प्रारंभ हुआ.
उन्होंने झारखंड और  बिहार में पाए जाने वाले विविध खनिजो एवं उससे मिलने वाली रॉयल्टी से संबंधित जानकारी दी.
इसके बाद उन्होंने लघु एवं दीर्घ खनिज नियमावली के संदर्भ में बताया .
अंत में पदाधिकारी गण संबंधित विषय से तरह तरह के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया.
   इसके बाद पदाधिकारी एवं समय सारणी के अनुसार कंप्यूटर प्रशिक्षण पुस्तकालय अध्ययन
एवं विचार सभा के लिए सम्बंधित कक्षों की ओर प्रस्थान कर गए.
इस तरह गोधूलि बेला में चाय की चुस्कियां के साथ एक बार फिर पदाधिकारियों का

समागम छात्रावास प्रांगण के मैदान में इस संकल्प के साथ हुआ
"चल पड़ो तो गर्द बनकर आसमानों पर दिखो,
और कहीं बैठो तो मील का पत्थर दिखो,
सिर्फ देखने के लिए दिखना कोई देखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो."

                                        दिवस पदाधिकारी
कक्ष संख्या-7
स्वर्ण-रेखा छात्रावास
श्री कृष्ण लोक प्रसाशन संस्थान
रांची



सोमवार, 11 मई 2020

दरभंगा डायरी-5 (जॉन नाजरत, लाल चौक और रीगल )


सदन झा मिथिला से हैंसूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।‌ इन्होंने इतिहास की पढ़ाई की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'हॉफ सेट चाय' (रजा पुस्तक माला और वाणी प्रकाशन), 'देवनागरी जगत की दॄश्य संस्कृति' (राजकमल प्रकाशन एवं रजा पुस्तक माला) तथा 'रेवरेंस रेसिस्टेंस एंड द पॉलिटिक्स ऑफ सिइंग द इंडियन नेशनल फ्लेग' (कैम्ब्रीज युनिवर्सिटी प्रेस) शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार है. फिर भी हमारे मित्र हैं. रंग, इतिहास में रंग, और पलायन, इनके पसंदीदा विषय है. मिथिला और दरभंगा उन्हें बार-बार अपनी ओर बुलाता है ...
                  दरभंगा, लाल चौक, श्री कृष्ण सिंह, कामेश्वर महाराज ,जॉन नाजरत होता हुआ एक सूक्षम इतिहास जो उनकी पैनी नजर से नहीं बच सका . ये इतिहासकार की ही सधी हुई दृष्टि हो सकती है जो चीजों को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत कर सके.


मेरा दावा है की आपने इसे क्लिक किया तो पूरा देखे बिना नहीं रह सकते . 


शनिवार, 9 मई 2020

पटना कालेज डायरी-2

28 जनवरी 2020 

    'हिंदुस्तान' समाचार पत्र में इधर कुछ दिनों से संपादकीय के बाद वाले संपूर्ण पृष्ठ पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो रही है, जो  रहता है. विषय है 'सन् 1990 में कश्मीर से पंडितों का पलायन'.
                 यह उन दिनों की बात है जब मैं पटना कॉलेज के मिंटो हॉस्टल में रहता था. स्कूल से सन् 1989 मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, कुछ ही दिन पहले पटना कॉलेज में दाखिला लिया था .


   आजादी का जबरदस्त एहसास हो रहा था. स्कूल की तरह न तो सुबह कोई प्रार्थना होती थी और न ही घंटी दर घंटी शिक्षक बदलते थे, यहां तो सब कुछ अपनी मर्जी पर था शिक्षक न बदल कर क्लासरूम ही बदल जाता था  मन हो तो जाओ नहीं तो कॉलेज के मैदान या उसके किनारे मुड़ेर पर बैठकर गप्पे लड़ाओ आती-जाती लड़कियों को देखो या फिर लाइब्रेरी में जाकर क्लासिक उपन्यास का आनंद लो. कुछ ना हो तो राधा-कृष्ण घाट पर बैठकर आती-जाती लहरों को निहारो बीच-बीच में झुंड के झुंड डुबकी  लगती गंगा-डॉल्फिन को देखते हुए सोचो कि उस पार तो हाजीपुर है, तो   फिर दिखाई क्यों नहीं देता. 



हॉस्टल के पेपर-मैगजीन स्टैंड पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ 'हिंदुस्तान' समाचार पत्र भी लगा रहता था. हमारे सीनियरस ने ताकीद की थी कि भविष्य में अच्छी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होना है तो समाचार पत्र के संपादकीय, 'इंडिया टुडे' और 'फ्रंटलाइन'  जैसी पत्रिकाओं को पढ़ो, अंग्रेजी भी मजबूत होगी. इस मशवरा का हम शिद्दत से पालन करने लगे. 
 उन दिनों घटने वाले महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक राजनीतिक घटनाएं आज भी स्मृति पटल पर है. राजीव गांधी की हत्या, मंडल कमीशन आंदोलन, आडवाणी जी की रथ यात्रा और उसका रोका जाना, बाबरी मस्जिद प्रकरण, मुंबई के दंगे और उस पर बनी फिल्म मणिरत्नम की 'बंबई' फिर फिल्म पर विवाद और न जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं.
       उन दिनों जब इतने बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों को अपना घर और अपनी जन्मभूमि छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया इस बाबत 'हिंदुस्तान' में कोई समाचार प्रमुखता से क्यों नहीं छापा. हमारी जैसी एक पीढ़ी को इन तमाम सूचनाओं से वंचित रखने का दोषी कौन है? विधु विनोद चोपड़ा को भी घटना के 30 साल बाद इस पर फिल्म बनाने की क्यों सूझी ? मणिरत्नम जैसा साहस वे उस समय क्यों नहीं जुटा पाए, मेरे मन के किसी दूर कोने में बैठा 'मार्क्स'  मुझे धकिया रहा है. 
 तय है कि 'हिंदुस्तान'  जैसे समाचार पत्र में आज भी कुछ समाचार नहीं छप रहे हो और 30 साल बाद उस पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो, मुझे इंतजार रहेगा उस श्रृंखला का.
 उन दिनों हॉस्टल के मैदान में कॉरिडोर और बाथरूम के पास कोई न कोई बी.बी.सी हिंदी सेवा पर शाम 7:30 बजे समाचार सुनता मिल जाता था अब तो बी.बी.सी की हिंदी सेवा भी बंद हो गई है

बुधवार, 6 मई 2020

राजगीर डायरी-7

16 फरवरी 2020 
22 दिसंबर 2000 के कार्यक्रम में मैंने कालीम अजीज साहब की चर्चा करते हुए कहा था कि लगभग ढाई वर्ष मैं नालंदा जिला मे रहा इस दौरान किसी साहित्यिक संगठन या समाचार पत्र को उन्हें याद करते नहीं देखा . उसी दिन शंखनाद के अध्यक्ष प्रो० (डा०) लक्ष्मीकांत एवं सचिव राकेश बिहारी शर्मा जी ने यह निर्णय लिया था  कि 2020 का साहित्य बसंत उत्सव उन्हीं की याद में मनाया जाएगा . इस आयोजन के लिए आज की तारिख और स्थान 'विश्व  शांति स्तूप' राजगीर निर्धरित किया गया था.



आज मैं वही जा रहा हूँ. साथ में लाल बाबू, ऋतुराज जी और पर्यावरण प्रेमी  'तुलसी-पीपल-नीम' अभियान के संस्थापक अध्यक्ष डा० धर्मेन्द्र भी है. 12:30 बजे लगभग एक घंटे पर्वतारोहण के उपरांत 'विश्व  शांति स्तूप' के पास हमलोग पहुंच गये थे , जहां साहित्यकारों की पांचवी 'विरासत यात्रा' और वर्ष 2020 के 'साहित्य बसंत उत्सव' का आयोजन किया गया था.
          कलीम अजीज साहब पर चर्चा हुई, कई युवा रचनाकार जो उन से परिचित नहीं थे,  कुछ शेरों को सुनकर उनके कायल हो गए. कलीम अजीज साहब का जन्म सन 1926 में तेल्हारा में हुआ था .1946 के दंगों में उन्होंने अपनी मां और बहन को खोया था, जिसका गम उन्हें ता-उम्र रहा. यह दर्द उनकी रचनाओं में भी झलकता है.

वो जो शायरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ, 
मैं गजल सुनाऊं हूं इसलिए कि जमाना उसको भुला न दे.

 पटना कॉलेज से स्नातक की परीक्षा में गोल्ड मेडल हासिल कर आगे की पढ़ाई की और पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने . उनके शोध का विषय था "EVOLUTION OF URDU LITERATURE IN BIHAR".
 17 वर्ष की आयु से ही मुशायरों में शिरकत करने लगे थे . बड़ी शालीनता से वे कहते,
थी फरमाइश बुजुर्गों की तो लिख दी गजल ‘आजिज’
वरना शायरी का तजरिबा हमको भला क्या है



60' और 70' के दशक में अजीज साहब लाल किले में स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर होने वाले राष्ट्रीय मुशायरे में अकेले बिहार का प्रतिनिधित्व करते थे. पब्लिसिटी से हमेशा दूर रहे. इमरजेंसी के दौर में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री के समक्ष प्रतिरोध की शायरी पढ़ी परंतु गजल के काव्यात्मक सौन्दर्य में कोई छेड़छाड़ नहीं किया

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो

वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो

मेरे ही लहू पर गुजर औकात करो हो

मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो

खंजर पे कोई छींट न दामन पे कोई दाग

तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो

एक और मंच से  जब उन्होंने यह शेर पढ़ा, तो सियासतदानों में खलबली मच गयी 
जुल्फों की तो फितरत है लेकिन मेरे प्यारे,
जुल्फों से जियादा तुम्हीं बलखाए चले हो.


कुछ अशरार देश काल की सीमा को लांघ कर सार्वदेशिक और सर्वकालिक हो गए .

 हकीकतों का जलाल देंगे सदाकतों का जमाल देंगे,
 तुझे भी हम गमे जमाना गजल के सांचे में ढाल देंगे.

वर्ष 1989 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था. 14 फरवरी 2015 को उनका इंतकाल हुआ. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी अंतिम यात्रा में बिहार के तत्कालीन मुख्य मंत्री के साथ करीब 20,000 लोग शामिल हुए थे.
      गत वर्ष एक पूर्व मंत्री की मृत्यु पर बी० बी०सी० के मणिकांत ठाकुर ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी . साथ में एक फोटो भी था जिसमे बिहार के बड़े नेता उनके फोटो पर पुष्पांजलि कर रहे थे. उन्होंने  नीचे यह शेर चस्पां किया था ,
खंजर पे कोई छींट न दामन पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो 

मणिकांत ठाकुर के इस रिपोर्ट में पूर्व मंत्री, बड़े नेता और शायर तीनों का ताल्लुक नालंदा जिला से था. 



 
                                कलीम साहब पर चर्चा के बाद कई कवियों ने कविता पाठ किया . एक शांत और खुशनुमा माहौल में  साहित्य वसंतोत्सव और साहित्यकारों की पांचवी विरासत यात्रा  राजगीर के शांति स्तूप पर संपन्न हुई. कुछ लोगों को 'शंखनाद' द्वारा सम्मानित भी किया गया.

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

राजगीर डायरी-6

 (गतांक से आगे........)
सूर्यास्त हो चुका था. 5:00 बजने वाले हैं . हम सब सप्तपर्णी गुफा के ऊपर उसी मंदिर के पास पहुंच गए थे जहां आते समय दुविधा में फंसे थे, कि किधर जाएं. समय नहीं था फिर भी हमने 72 सीढ़ियां उतरकर सप्तपर्णी गुफा के दर्शन का निर्णय लिया. कुछ और लोग भी  साथ हो लिये . 2-3 गुफा तो छोटी थी जिसकी भीतरी दीवार स्पष्ट दिखाई दे रही थी. सभी . प्राकृतिक गुफाएं थी. वाणावर की  तरह मानव निर्मित गुफाएं  नहीं थी. इन गुफा-समूह में एक गुफा का मार्ग अंदर की ओर जा रहा था , बिहारी जी ने बताया की इसका विस्तार 10 मीटर है. कुछ दिन पहले प्रो० लक्ष्मीकांत जी के नेतृत्व  में शोधार्थियों का एक दल यहाँ आया था, जिसमे बिहारी जी भी थे. इस गुफा के संदर्भ में लोगों में तरह-तरह की भ्रांतियां हैं कि यह एक सुरंग है जिसका दूसरा किराना राजगीर के पार निकलता है. गुफा के प्लेटफार्म के उत्तर की ओर सपाट ढाल है, उसके आगे कोई रास्ता नहीं है पहाड़ों का यही लैंडस्केप राजगीर के  राजधानी बनने का कारण है. जिसने इसे एक प्राकृतिक रक्षा प्राचीर प्रदान किया. इन पहाड़ों की विशेषता यह है कि एक ओर से तो इसपर आसानी से चढ़ा जा सकता है परंतु दूसरी ओर से खड़ी चढ़ाई होने के कारण दुर्गम है.


              
                               गुफा के पास एक साधु बैठे थे, जिज्ञासा बस मैंने उनका स्थान पूछा तो उन्होंने बताया मोराबादी. फिर किसी ने नाम पूछा तो बताया एजाज अहमद. मेरी जिज्ञासा बढ़ गई उनकी आयु लगभग 44-45 की रही होगी. दुबला पतला शरीर . कई लोग इनसे प्रश्न पूछने लगे और वे शांत भाव से प्रश्नों का उत्तर देते रहे. उन्होंने बताया की सन 1985 में एम०आई०टी०  मुजफ्फरपुर से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करने के उपरांत मुंबई, बहरीन और कई स्थानों पर नौकरी किया. परंतु शांति नहीं मिली इन्होंने विवाह भी नहीं किया अर्थात जन्म से ही साधु प्रवृति के थे. जब इनसे मैंने पूछा कि अध्यात्म की ओर झुकाव का क्या कारण है, तो उन्होंने बताया "मुक्ति" मनुष्य मुक्त नहीं हो पा रहा है. मृत्यु के बाद भी नहीं. मैंने पूछा कि इस्लाम में भी कुछ आध्यात्मिक मार्ग अवश्य बताए गए होंगे. इस पर उन्होंने कहा कि नहीं इसमें सिद्धि और मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है. धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि नहीं अभी धर्म परिवर्तन नहीं किया है. इस वेश में रांची मोराबादी जाते हैं तो लोग उन्हें मारने दौड़ते हैं .एक बार मस्जिद के पास उन पर जबरदस्त हमला हुआ उसके बाद वरछानुमा  साधु -अस्त्र अपने पास रखने लगे, जो अभी भी उनके बगल में पढ़ा था .उन्होंने हम लोग का भी परिचय जानना चाहा चंद्रोदय जी ने बताया कि वह हरनौत से हैं . तभी सहसा उनकी नजरें चंद्रोदय जी पर स्थिर हो गई. बताया कि हिमालय की ओर से जब वे पैदल लौट रहे थे तो हरनौत में "नसकटवा" कह कर उन पर जानलेवा हमला हुआ, सिर पर एक व्यक्ति भारी पत्थर फेंकने ही वाला था की किसी ने रोककर उन्हें बचा लिया. वणावर, हरिद्वार , केदारनाथ एवं हिमालय क्षेत्र में उन्होंने साधना की है. बताया कि वहां के साधुओं ने मुस्लिम जानकर भी उनसे भेदभाव या घृणा नहीं किया.
                    चंद्रोदय जी ने उन्हें हरनौत में एक मंदिर में स्थान ग्रहण करने का अनुरोध किया और कहा कि यदि वे अपनी सहमति दें तो वह कल गाड़ी लेकर आते हैं परंतु उन्होंने इंकार कर दिया. वे यदि साधना-ध्यान में लीन न हों तो 7:00 बजे शाम में पहाड़ से नीचे उतरते हैं और वापस चले आते हैं. उन्होंने बताया कि कई लोगों को रात्रि में गुफा के अंदर जाते देखा है . जिसमें कुछ विदेशी यात्री भी होते हैं. कुछ लोग को तो जाते देखा पर लौटते नहीं देखा उन्होंने बताया कि एक बार बिना भोजन के 4 दिन ध्यान मग्न रहे इसी दौरान उनका झोला चोरी हो गया इसमें पासपोर्ट के साथ और के जरूरी सामान थे .

रविवार, 26 अप्रैल 2020

राजगीर डायरी-5

(गतांक से आगे .....)

वापसी मार्ग में कुछ दूरी चलने के बाद पगडंडी के उत्तर और कुछ प्राचीन ईट और दीवाल के अवशेष मिले. यहां आसपास का क्षेत्र चौरस था ,पर झाड़ियों से ढका था. मुझे यह स्थान  पुरातात्विक महत्व का दिखा. यहां बिखरे ईंट  के एक टुकड़े का आकार 7 इंच चौड़ा 12 से 14 इंच लंबा और 2 से  ढाई इंच मोटा था. इतनी ऊंचाई पर एक प्राचीन संरचना के अवशेष मुझे रोमांचित कर गया. मैंने आशुतोष जी को दिखलाया और इसके बुद्ध विहार होने की संभावना को भी बताया . अब यह शोध का विषय हो गया की प्रथम बौद्ध संगीति जो मगध सम्राट अजातशत्रु के संरक्षण में हुआ था के पूर्व या बाद में इस तरह की स्थाई संरचना / बौद्ध विहार का निर्माण कराया गया था . संरचना निश्चित रूप से बौद्ध भिक्षुओं के आवासन के लिए ही बनाया गया था जो इस पर्वत की धार्मिक पवित्रता के कारण संभव  है.  यह संरचना वर्तमान जल संचयन क्षेत्र बेलवा डोब से आधा / 1 किलोमीटर की दूरी पर है .भिक्षुओं के वर्षावास के लिए इस तरह की संरचना राजकीय संरक्षण में बनवाए जाने की संभावना से भी  इंकार नहीं किया जा सकता है.
                                                                                                                          (क्रमशः ...........)

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

राजगीर डायरी - 4 (उपन्यास "डूकारेल की पूर्णिया" का लोकार्पण)

 गतांक से आगे ..
कवि सम्मेलन के बाद इस कार्यक्रम में एक उपन्यास "डूकारेल की पूर्णिया" का लोकार्पण किया गया. यह उपन्यास प्रोफ़ेसर लक्ष्मीकांत द्वारा तीन वर्षों के गहन शोध के उपरांत लिखा गया है, गेरार्ड गुस्तावस डूकारेल  और उनके भारतीय समाज से जुड़े प्रसंग इस उपन्यास का विषय है.  


यह एक सत्य घटना पर आधारित उपन्यास है. संभवतः  नालंदा के किसी साहित्यकार द्वारा यह हिंदी में लिखा गया पहला उपन्यास है. उपन्यास के लोकार्पण के बाद मैंने गेरार्ड गुस्तावस डूकारेल उनके पूर्णिया से जुड़ाव और प्रोफेसर रामेश्वर प्रसाद के बारे में उपस्थित लोगों को बताया . 4:00 बजने को थे, आबो-हवा हमें लौटने की दस्तक दे रहा था. कार्यक्रम सभी को स्मृति चिन्ह देकर संपन्न किया गया .आयोजकों ने दोपहर के भोजन के लिए लिट्टी चोखा की व्यवस्था की थी जो पहाड़ पर ही बनाया गया था. इसमें राजगीर "ब्रह्मा कुंड" के गर्म जल का प्रयोग हुआ था  इतनी नरम और  स्वादिष्ट लिट्टी  पहले मैंने कभी नहीं खाई थी .अद्भुत आयोजन अभूतपूर्व भोजन के बाद, न जाने की इच्छा के बावजूद हम वहां से लौट चलें.
                                                                                                                            (क्रमशः ..........)

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

राजगीर डायरी 3

गतांक से आगे........                                                                                                                                                                 

हिंदी के कई नामचीन कवि अपना कविता-पाठ कर चुके थे, और कुछ कर रहे थे. फिल्मकार अमृत जी इस ऐतिहासिक आयोजन का  ड्रोन कैमरा से फिल्मांकन कर रहे हैं. नालंदा के साहित्यकारों ने ऐतिहासिक विरासतओं के संरक्षण के प्रति जागरूकता के उद्देश्य से वर्ष 2016-17 में विरासत यात्रा प्रारंभ किया. जिसकी पहली कड़ी के रूप में बिहारशरीफ पहाड़ी पर "साहित्य बसंत उत्सव" की शुरुआत हुई. दूसरी कड़ी वनावर  पर्वत (जिला-जहानाबाद ) पर स्थित ऐतिहासिक गुफाओं के पास एक कवि-सम्मेलन  का आयोजन कर हुआ .



तीसरी कड़ी का आयोजन राजगीर के प्राचीन घेराबंदी की दीवार (cyclopean wall)  पर हुआ .यह आयोजन साहित्यकारों के विरासत यात्रा की  चौथी कड़ी  है.



इस आयोजन को आयोजकों ने "पहाड़ पर दहाड़" नाम दिया है यद्यपि इस नाम में साहित्य की सौम्यता  नहीं झलकती पर यह एक अच्छा आयोजन है . 
                                                                  (क्रमशः .........)

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

राजगीर डायरी-2 (सप्तपर्णी गुहा की पहचान )


(गतांक से आगे ......)

करीब 4.5 कि0मी0 की चढाई और दो-तीन जैन मँदिरों को पार कर हमलोग लगभग 1300 फुट की ऊँचाई पर पहुँचे. यहाँ एक बड़ा जैन मंदिर मिला जिसके पश्चिमोत्तर छोर से एक रास्ता नीचे सप्तपर्णी गुहा की ओर जाता है. इसके संबंध मे यह मान्यता है कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण (486 ई0 पू0) के बाद प्रथम बौद्ध संगिती यहीं हुई थी.  करीब 500 बौद्ध भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया था. यह सम्मेलन मगध सम्राट अजातशत्रु के संरक्षण में हुई थी, तब मगध की राजधानी राजगृह हुआ करती थी.इस सम्मेलन के बाद बुद्ध के उपदेशों को विनय पिटक और अभिधम्म पिटक मे संकलित किया गया, ताकि उनके जाने के बाद अनुयायियों को मार्ग-दर्शन देने मे कोई कठिनाई और विवाद न हो.
 अब यहाँ से हमें उस स्थान पर जाना था जहाँ आज का साहित्यिक आयोजन था. लोग वहाँ पहुँच चुके थे हम हीं बिलंब से थे. तभी सामने से कवि विकल जी आते दिखे. उन्होने बताया की वे पश्चिम की ओर से लौट रहे हैं जहाँ अंतीम जैन मंदीर है. यह भी बताया की आगे एक जैन तिर्थयात्री के सोने की चेन को बदमाशों ने झपट लिया है. तब यह तय हुआ कि वहाँ से तिहत्तर सिढियाँ उतरकर सप्तपर्णी गुहा की ओर चला जाये आयोजन वहीं हो रहा होगा. तभी उस ओर से एक व्यक्ति आता दिखा, मैनें उससे आयोजन के मुताल्लिक पुछा तो उसने अनभिग्यता जाहिर की. हमलोग असमंजस मे पड़ गये. आयोजकों से लगातार मोबाईल फोन पर संपर्क करने का प्रयास किया जा रहा था पर संपर्क नहीं हो पा रहा था.   
सप्तपर्णी गुहा वस्तुतः चार-पाँच प्राकृतिक गुफाओं की एक श्रृँखला है. जिसके आगे के प्लेटफार्म की लम्बाई-चौड़ाई लगभग 40 *20 मीटर है. सबसे बड़ी गुफा की गहराई 10 मीटर से अधिक नहीं है ,यहाँ 500 आदमी एक साथ बैठ ही नहीं सकते. संभव है कि प्रथम बौद्ध संगिती के दौरान आचार्य महाकश्यप या अन्य दिग्गज भिक्षुक रात्री विश्राम या ध्यान साधना करते हों.
 तभी आयोजकों से संपर्क स्थापित हो गया. उन्होने उसी मार्ग पर आने की सलाह दी जहाँ से विकल जी लौट आये थे. 1 कि0मी0 चलने के बाद आशुतोष जी मिले जो हमे पूरब की ओर अनगढ रास्ते पर ले गये 1/2 कि0मी0 की दूरी तय करने के बाद हम उस चौरस जगह पर पहुँचे जहाँ आयोजन चल रहा था. हैंड-माईक पर धीमे स्वर मेंचल रहा काव्य पाठ इस रम्य वातावरण को और रमणिक बना रहा था. हमारा काव्यातमक स्वागत किया गया.


             
प्रो0 (डा0) लक्ष्मीकांत जी का तर्क है कि इस स्थान पर प्रथम बौद्ध संगिती हुई थी. यहाँ जल स्त्रोत है. वस्तुतः यह स्थान एक प्राकृतिक जल-संचयिनी है. बिना किसी जल स्त्रोत के 500 बौद्ध भिक्षुओं का वास यहाँ कैसे हो सकता है. इतिहासकारों द्वारा सप्तपर्णी गुहा के पहचान का आधार मेगास्थनिज का यत्रा वृतांत है, जो प्रथम बौद्ध संगिती के लगभग 1000 साल बाद यहाँ आये थे. उन्होने भी जनश्रुतियों के आधार पर इस स्थान की पहचान की. बहुत कम इतिहासकारों ने इस स्थल के पहचान के संबंध मे यहाँ की यात्रा की है. प्रो0 (डा0) लक्ष्मीकांत जी ने बताया की इस स्थल को स्थानिय लोग बेल्वा-डोव कहते है, जो बौद्ध-डिह का अपभ्रंश रूप है, इसके पूरब एक मंदिर है जिसे जैन धर्मावलंबी गौतम गणधर का मानते है . यह वस्तुतः गौतम बुद्ध से जुड़ा मंदिर है.
      बहरहाल 3 घंटे के पर्वतारोहण के उपरांत हम हस स्थान पर आ गये जहाँ आज से २५०० वर्ष पूर्व प्रथम बौद्ध संगिती हुई थी, आज यहाँ साहित्यकारो की गोष्ठी हुई. यह आश्चर्य का विषय है कि इस आयोजन मे हिन्दी के तीन प्रमुख दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर के जिला स्तर के ब्युरो-चीफ उपस्थित थे जो सामान्य परिस्थितियों मे रिपोर्टिंग के लिये कम जाते है.   
                                                                                (क्रमशः ......)

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

राजगीर डायरी -1 (glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म /fossils of glossopteris)

22 दिसंबर 2019
आज राजगीर जाने की तैयारी है. इससे पहले 15 दिसंबर को कार्यक्रम निर्धारित किया गया था, पर बे-मौसम बरसात और अचानक बढ गई ठंढ के कारण तिथि बढा दी गई थी. मै दोपहर 12.30 बजे ब्रह्मकुंड पहुंच गया, साथ में लाल बाबू सिंह, विलास जी और ऋतुराज जी भी थे. हमलोग दो घंटे बिलंब से पहुंचे थे सो गर्म कुंड मे स्नान की हसरत मन में ही रह गई.  ब्रह्मकुंड के सीढियों चबुतरों और मंदिरों को पारकर वैभारगिरी की ओर बढ गये. यह मार्ग पर्वत शिखर पर जैन मंदिरों की श्रृंखला की ओर जाता है. दिसंबर की गुनगुनी धुप और रमणीक हरियाली एक मोहक आवरण के साथ, निहारते रहने को लुभा रहा था. मार्ग में ज्यादातर पर्यटक जैन तिर्थयात्री थे. कुछ वृद्ध यात्री खटोले (चार व्यक्तियों द्वारा कंधे पर ढोयी जानेवाली सवारी). साहित्यिक आयोजन के हिसाब से वैभारगिरी पर्वत पर सप्तपर्णी गुफा के समीप बेल्वाडोव एक दुर्गम स्थल है.
                  वैभारगिरी चढने के लिये सीढियाँ बनी थी जो जैन मँदिरों की श्रृँखला तक जाती है, मै दल-बल के साथ पर्वतारोहण का आनंद ले रहा था, तभी मेरा ध्यान आस-पास की चट्टानों पर गयी . मै कुछ चट्टानो को देख आश्चर्य में पड़ गया.


   इस पर glossopteris नामक वृक्ष के पत्तों के जीवाश्म थे. यद्यपि मेरे मोबाईल फोन का कैमरा पत्थर पर अंकित जीवाश्म मे परिवर्तीत  glossopteris के विशाल पत्तों की महिन रेखाकृतियों को कैद करने मे उतना सक्षम नही था, तथापि मैंने इसे कैद करने की कोशिश की .




 glossopteris के वृक्ष आज से लगभग 300 मिलियन वर्ष पहले super continent पैंजियाना के दक्षिणी भाग में पाये जाते थे.पैंजियाना का दक्षिणी भाग  जो भूगर्भिक आंतरिक प्रक्रियाओं के कारण धीरे-धीरे अलग हुआ, गोंडवाना कहलाता है.


यह  दक्षिणी गोलार्द्ध के महाद्विपों के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप एवं अरब प्रायद्वीप की जननी है. अन्य साक्ष्यों के साथ glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म भी यह प्रमाणित करते हैं कि गोंडवाना लैंड से ही अलग होकर  दक्षीण अमेरिका, अफ्रिका, आस्ट्रेलिया, अरब प्रायद्वीप एवं भारतीय उपमहाद्वीप बने हैं. इन क्षेत्रों मे glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म मिलते हैं.


यह वृक्ष PERMIAN एवं TRIASSIC PERIOD मे आज से 20-30 करोङ साल पहले (300 to 200 million )गोंडवाना मे पाये जाते थे. 
  राजगीर के वैभारगिरी पर्वत पर इसकी भरमार है, परन्तु यह अबतक कहीं रिपोर्टेड नहीं है. किसी पुराजिवाश्मशास्त्री (PALAEONTOLOGIST) ने राजगीर की पहाङियों पर बिखरे जिवाश्मों का अध्ययन नही किया है. इस तरह के जिवाश्म अफ्रिका और दक्षीण अमेरिका मे 1995 ई0 मे  भी मिले हैं. दक्षिणी गोलार्द्ध के सभी महाद्विपों पर glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म पाये जाते हैं. भारत मे बहुत कम स्थानों से इसके मिलने की सूचना है. इस प्रकार राजगीर  पुरातत्व के साथ पुराजिवाश्म का भी खुला संग्रहालय है ,  जिसे हमे संरक्षित करना है.