गुरुवार, 7 नवंबर 2019

किताब-ए-पटना (पटना से जुड़ी किताबों की महफिल-"पटना खोया हुआ शहर" )

"पटना खोया हुआ शहर" वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिंह की रचना  है . हाल ही में (2019) यह पुस्तक वाणी प्रकाशन से छपकर आयी  है. प्रारंभिक समीक्षाओं मे यह लिखा गया है कि जिन्हे इतिहास पढना बोझिल लगता है, उनके लिये ये पटना पर अच्छी सामग्री है. परन्तु ऐसा कहना एक सतही बात होगी . पुस्तक के विषय सूची को  देखकर लगता है कि यह लेखक के कई वर्षों के परिश्रम और शोध का प्रतिफल है.


इसमे पटना से जुड़े वैसे ऐतिहासिक एवं रोचक तथ्य है जिससे गुजरना पटनावासियों को रोमांचित कर सकता है. घटनाओं एवं तथ्यों को ज्यादा विस्तार नहीं दिया गया है.  एक दो पन्नो से ज्यादा में एक अध्याय नहीं है. लेखक सोशल मिडीया के दौर मे यह समझ चुके है कि पाठक विस्तार में नही जाना चाहते उन्हें तो कौतूहल पैदा करने वाला संक्षिप्त सार चाहिये. शिर्षक भी इसी तरह के है, बानगी देखिये-
पटना की अफीम से अँग्रेज चाय खरीदते थे.
पटना के नबाबों जमीन बेच किये थे ऐश
जब अकबर पटना आया
पटना के चीजों की शोहरत दूर तक  थी
पुस्तक की लड़ियों को ऐतिहासिक तथ्यो के आधार पर पिरोने का प्रयास किया गया है. परन्तु अध्याय काल-क्रम के अनुसार नही रखे गये है. उदाहरण स्वरुप एक अध्याय का शिर्षक है, " आपातकाल और पटना काफी हाउस" उसके कुछ अध्याय बाद है "जब अकबर पटना आया". इस पुस्तक ने हिंदी मे एक बड़ी कमी को पुरा किया है.    

सोमवार, 4 नवंबर 2019

पूर्णिया डायरी-22(मगही साहित्य और फिल्म)

 रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' के कुछ अंश की रचना पूर्णिया कालेज मे की थी. परन्तु यह कम लोग जानते होगें कि मगही साहित्य और सिनेमा के रचनात्मकत सृजन से पूर्णिया जिला स्कूल जुड़ा है. 1960 के दशक की बात है रविन्द्र कुमार का स्थानांतरण पटना से जिला स्कूल पूर्णिया हुआ. वे विग्यान शिक्षक थे. परन्तु मन साहित्य में ही लगता था. यहाँ रहते उन्होने मगही की कई श्रेष्ठ कहानियों की रचना की, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित हुई. संपती आर्यानी की बहन उन दिनों आकाशवाणी पटना की मगही प्रभारी थी, "मैना बहन". उन्होने आकाशवाणी के मंच से रविन्द्र कुमार की कहानी "कोनवा आम" का प्रसारण किया . प्रसारण के बाद रविन्द्र कुमार की कहानियों की फरमाईश बढती गई. उनकी दर्जनों कहानियों का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ. जो स्थान हिन्दी कथा साहित्य में "उसने कहा था" कहानी का है वही स्थान मगही कथा साहित्य मे कोनवा आम कहानी का है. आगे चलकर "अजब रंग बोल" प्रकाशित हुआ, जिसके बाद वे मगही के सर्वश्रष्ठ कथाकार माने जाने लगे.
                  प्रख्यात फिल्मकार गिरीश रंजन इनके परम मित्र थे. सत्यजित रे के टीम के सदस्य थे, कई फिल्मों मे सहायक निर्देशक भी रहे. गिरीश रंजन के कारण मगही भाषा से सत्यजीत रे प्रभावित थे. फिल्म "अभिजान" जो 1962 मे प्रदर्शित हुई थी ; कि नायिका मगही बोलती है. यह फिल्म ताराशंकर बंदोपाध्याय के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी.  मगही भाषा का पहला प्रयोग इसी फिल्म में हुआ था.
                     गिरीश रंजन ने मगही की पहली फिल्म बनाने की योजना बनाई. इसकी पटकथा लिखने के लिये उन्हे एकांत माहौल की जरुरत थी. वे जिला स्कूल पूर्णिया अपने मित्र रविन्द्र कुमार के पास पहुँच गये. वहाँ पहली मगही फिल्म "मोरे मन मितवा" की पटकथा लिखी. फिल्म 1965 मे बनकर प्रदर्शित हुई.


      आर0 डी0 बंसल इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे. रे साहब की अधिकांश फिल्मों के प्रोड्यूसर आर0 डी0 बंसल ही हुआ करते थे जो उस जमाने के अग्रणी डिस्ट्रीब्यूटर और प्रसिद्ध संगमरमर व्यवसायी थे. इस फिल्म के गीतकार हरिश्चंद्र प्रियदर्शी जी थे. इसका एक गजल बहुत लोकप्रिय हुआ, जिसे क्लासिकल गजल का दर्जा प्राप्त है. इस गजल को मुबारक बेगम ने गाया था.
                      मेरे आँसूओं पे न मुस्कुरा .....
इसके अलावा भी कुछ गीत थे
                     कुसुम रंग लंहगा मँगा दे पियवा....
                     मोरे मन मितवा  मन सुना दे गीतवा....
ये गाने "फरमाईशी गीत " कार्यक्रम मे आकाशवाणी के केन्द्र से रोज बजते थे.
रविन्द्र कुमार, गिरीश रंजन, और  हरिश्चंद्र प्रियदर्शी तीनों ही नालंदा के रहने वाले थे.  प्रियदर्शी जी ने एक साक्षात्कार में मुझे ये बातें बताई. उस दौर मे वे रविन्द्र कुमार के बुलावे पर पुर्णिया गये थे , जिसकी कुछ धुंधली यादे आज भी वो संजोये हुये हैं   

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

एक लखपति की डायरी

28.10.2019 (पटना)- आज मेरे मोबाईल फोन पर एक मैसेज आया की मेरे बैंक खाते मे एक लाख दो हजार चार सौ नौ रुपये प्राप्त हुये है. और अनायास मैं लखपति बन गया. बचपन मे स्टेशन और बस-स्टैंड पर रंगीन लुभावने लाटरी को टिकट बेचते देखा था, जो सामान्य जन के लिये लखपती बनने का सामान्य रास्ता था. 
               यह मेरे वेतन के रुपये थे. आज से 19 साल पहले जब मैने नौकरी शुरु की थी , तो सोचा भी नही था की कभी मेरा वेतन एक लाख हो जायेगा. मै ए0 टी0 आई0 (SKIPA )की स्मृतियों मे खो गया.
      3 अक्टूबर 2000 को मैने पटना मे योगदान किया तब तक अलग झारखंड राज्य के गठन का निर्णय हो चुका था. 15 नबंवर 2000 को नये राज्य का विधिवत् गठन होना था, जिसकी राजधानी राँची होगी. जिस दिन मैने योगदान दिया वह सरकरी सेवक को अपने इच्छित राज्य में नौकरी करने के विकल्प को चुनने की अंतीम तीथी थी, मेरे पास सोचने का ज्यादा समय नही था. मेरा बचपन झारखंड मे बीता था, मैने मैट्रिक की परीक्षा भी वहीं से पास की थी, सो आव देखा न ताव झट झारखंड विकल्प दे मारा.
        14 नबंवर को हार्डिंग पार्क से ''कृष्णा-रथ'' पर सवार हो , राँची के लिये निकल पड़ा. मन मे घर छुटने का दुखः था, पर नये नौकरी का उत्साह उस दुःख का न्युनिकरण कर रहा था . रथ का सारथी बार-बार एक ही गाना बजा रहा था जिसे सुनते हुये मै सो गया.
राबड़ी मलाई खईल,
कईल तन बुलंद,
अब खईह शकरकंद,
अलगे भईल झारखंड.

सबेरे मोराबादी उतरा. एच0 ई0 सी0 परिसर के एक भवन मे सचिवालय चल रहा था, वहाँ जाकर योगदान किया और खाली हाथ वापस लौटा. जनवरी 2001 मे  ए0 टी0 आई0 से बुलावा आया. फिर शुरु हुआ नौकरी का सबसे खूबसूरत और बिंदास दौर जो लौटकर फिर न आया. पर अबतक  एक कमी थी, तीन माह से ज्यादा हो गया था, बिहार झारखंड के चक्कर मे वेतन का दर्शन नही हुआ था . कक्षा मे बोर्ड पर किसी ने अपनी पीड़ा लिख दी.
वे-तन
तन-खा
उसके नीचे किसी ने जोड़ दिया 
घर जा
पैसा ला
फिर खा
अब तक घर से ही पैसा लेकर खा रहे थे. तभी पता चला की ए0 टी0 आई0 की बाउन्ड्री से सटे बंगले मे झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री जी का आवास है. कुछ उत्साही युवा मित्र वहाँ तक पहुँच अपनी समस्या रखने मे सफल हो गये. कुछ ही दिनों बाद तीन माह का वेतन एक साथ मिला अठ्ठाईस हजार तीन सौ इकतिस  रुपये. उन दिनो वेतन नगद मिलता था . सौ-सौ की तीन गड्डियाँ हाथ मे थी , सहसा विश्वास ही नही हुआ की ये सारे रुपये मेरे है. इसमे से मैने तीन हजार निकाला और शेष अगली इतवार "कृष्णा रथ" पर सवार हो पटना माँ के चरणों मे अर्पित कर आया. उस तीन हजार रुपये से मैने ए0 टी0 आई0 मे बचे ढाई महिने काटे और मजे से राँची भी घुमा.
                  एक वो दिन और एक आज का दिन. मोबाईल का स्क्रिन गिरकर दो माह पहले टूट गया है. एक दिन बाकरगंज से बनवा कर लौट रहा था, तभी शुक्ला जी का फोन आया पूछे कहाँ थे , बताया तो ठठाकर हँसे और ताकिद की कि किसी और को ये वाकया न बताऊँ कि मोबाइल फोन बनवाने गया था. बजट में खिंचतान कर नया मोबाईल खरीदने की फिराक मे हूँ, पर लखपति बन जाने के बाद भी अबतक सफलता नही मिली है.  
                 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

किताब-ए-बिहार(बिहार से जुड़ी किताबों की महफिल)-2

 शशिकांत मिश्र का उपन्यास "नान रेजिडेंट बिहारी " वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ. कथानक कटिहार से प्रारम्भ होकर दिल्ली मुखर्जी नगर तक फैला है.
साथ में एक प्रेम कहानी  भी चलती है कटिहार और दिल्ली के बीच. संभवतः बिहार, मुखर्जी नगर, और यू0 पी0 एस0 सी0 की तैयारी को केन्द्र मे रखकर लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है , जो वर्ष 2015 मे ही प्रकाशित उपन्यास निलोत्पल के "डार्क हार्स" मे विस्तार पाता है. कथाक्रम मे बिखराव दिखता है, जो न चाहते हुए भी बताता है की यह लेखक का पहला उपन्यास है. शुरुआत ही एक बच्चे के जन्म के  प्रसंग से होता है. यह नाटकियता का चरम और लेखक के अपरिपक्वता का परिचायक है. यदि उपन्यास के इन प्रारंभिक दो पन्नों को हटा दिया जाता तो यह और दमदार होता. उपन्यास का काल विस्तार  यू0 पी0 एस0 सी0 के चार अटैम्प्ट तक फैला है.  पुरे उपन्यास पर प्रेमकथा हावी है, तमाम संघर्ष को नेपथ्य मे धकेलते हुये.

बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

वल्लमीचक डायरी

24.09.19 - वल्लमीचक (अनिसाबाद)  पटना की सीमा पर बसा एक गाँव था, जो अब पटना का एक मोहल्ला है जिसके अंदर कई उप-मोहल्ले हैं. यहां रहते है श्री घमंडी राम.आज घमंडी राम जी से उनके आवास पर मिला . कुछ लिख रहे थे. ये मगही-हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार है. इन्होंने अब तक कुल 26 पुस्तकों की रचना की है और 13-14 प्रकाशनाधीन हैं, कई पुस्तकों और पत्रिकाओं का भी संपादन किया है.



साहित्य की प्रायः सभी विद्याओं यथा कहानी, कविता, शब्दचित्र, एकांकी, लोकगीत, गीत, अभियानगीत, गजल, लघुकथा, संस्मरण, निबंध, प्रबंधकाव्य, महाकाव्य, इत्यादि में इनकी रचनायें है सिवाय उपन्यास के. कछ ख्याति प्राप्त पुस्तकें है-


माटी के मरम(मगही शब्दचित्र) 
       धरती के गीत (मगही लोकगीत संग्रह)
 स्वर के पँख (हिन्दी कविता संग्रह)
          ढाई आखर प्रेम का (हिन्दी निबंध संग्रह)
एकलव्य (मगही महाकाव्य)
          जिन्दगी अतुकान्त कविता (मगही संस्मरण)

नाम के उलट घमंडी बाबू की सादगी और शालिनता उनके प्रति मन मे आदर का भाव लाता है. पटना के बेनीबिगहा (बिक्रम) मे जन्मे श्री राम बिहार शिक्षा सेवा से वर्ष 2006 मे अवकाशप्राप्त हुए. इन्होने बताया कि वर्ग आठ से कवितायें लिख रहे है. इनकी  लिखी किताबें विभिन्न विश्वविद्यालयों के मगही भाषा एवं साहित्य विषय के पाठ्यक्रम में शामिल है.


नालंदा खुला विश्वविद्यालय (एम0 ए0)में शामिल पुस्तकें 
1. एकलव्य (प्रबंध काव्य)
2.कजरिया(कहानी-संग्रह) 
मगध विश्वविद्यालय(बी0 ए0) मे शामिल पुस्तके
1.खोंइचा के चाउर (निबंध-संग्रह)
2.माटी के सिंगार (शब्द-चित्र)
3.माटी के मर्म (शब्द-चित्र)

इनकी साहित्य साधना के लिये ग्रियर्सन पुरस्कार ,लोकभाषा साहित्यकार पुरस्कार एवं कृष्णमोहन स्मृति सम्मान सहित कई पुरस्कारो से सम्मानित किया गया है.



ऐसे व्यक्तित्व से मिलकर आज का दिन मेरे लिये यादगार रहेगा . उन्होने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक "जिन्दगी अतुकान्त कविता" जो हाल ही मे प्रकाशित हुई है, मुझे भेंट की.

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

किताब-ए-बिहार(बिहार से जुड़ी किताबों की महफिल)-1


नीलोतप्ल मृणाल संग्रामपुर मुँगेर के रहने वाले है. 2012-13 मे दिल्ली के मुखर्जी नगर में आई0 ए0 एस0 की तैयारी करने गये.  आई0 ए0 एस0 तो नही बन सके परन्तु वापस लौटे तो साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ. वर्ष 2015 मे मुखर्जी नगर और हिंदी-पट्टी के अभ्यार्थियों को केन्द्र में रखकर "डार्क हार्स" ऩामक उपन्यास लिखा जिसे खूब पढा जा रहा है . वर्ष 2016 मे साहित्य अकादमी  युवा साहित्यकार पुरस्कार मिला.    


            
 उपन्यास का कथा विन्यास भागलपुर से प्रारंभ होकर दिल्ली के मुखर्जी नगर में विस्तार पाता है. १२० पन्ने के उपन्यास में मुखर्जी नगर के शरीर से बिहार की आत्मा लगातार झाँकती रहती है. भाषा पर पटना की बोली हावी है. सहज भाषा और संवाद इसे रोचक बनाता है. पात्रों का कम होना पाठक को कथानक के साथ चलने में सुगम बनाता है, कुल 10-12 किरदार में से 8 आई0 ए0 एस0 के अभ्यार्थी ही है. कथा में जिग्यासा सिर्फ पात्रों की सफलता-असफलता को लेकर होती है.
       मैंने सुना था कि राही मासूम रजाँ के उपन्यास " आधा गाँव" को साहित्य अकादमी पुरस्कार इसलिए नहीं मिला क्योंकि उसमें गालियाँ अधिक थी. परन्तु  "डार्क हार्स" में "झाँट " " भकलंड" "बकचोदी" जैसे शब्दो का धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है .अकादमी की यह स्वीकार्यता मन मे संशय पैदा करता है, "आधा गाँव" और "काशी का अस्सी" जैसे उपन्यासों को अकादमी पुरस्कार नही मिलने पर. उपन्यास ख़ूब बिक रहा है , कई संस्करण निकल चुके है.
     पुस्तक की भूमिका के बाद पाँच लोगों की टिप्पणी है, पाँच मे से चार टिप्पणीकार आई0 ए0 एस0 है.जिसे देखकर लगता है कि लेखक उस 'भौकाल' से मुक्त नहीं हो सके है जिसे खंडित करने के लिये यह रचना की गई है. 

सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

बिहटा डायरी-4(प्रो0 हाउजर की अपराध-बोध से मुक्ति)

सीताराम आश्रम से प्रो0 हाउजर द्वारा भारत के किसी ऐतिहासिक महत्व के दस्तावेज को अपने साथ बिना सरकार की अनुमती के ले जाना विधि-विरूद्ध था. यह जानते हुए भी उन्होने ऐसा क्यों किया यह जाँच का विषय है. यदि आश्रम में दस्तावेज अच्छी स्थिती मे नहीं थे तो उन्हे इन दस्तावेजों को राज्य सरकार के अभिलेखागार में संरक्षित करवाने का प्रयास करना चाहिये था. यह एक तरह से ऐतिहासिक दसतावेजों की चोरी तो थी ही इतिहासकार के ethics के भी प्रतिकूल था. ऐसा कर उन्होने कई शोधार्थियों को, जो इन विषयों पर शोध कर रहे थे उन्हें इन दस्तावेजों से वंचित कर दिया. एक सार्वजनिक संपदा को निजी संपत्ती बना दिया.
      प्रो० हाउजर  संभवतः इस अपराध-बोध से ग्रस्त रहे. जीवन के अंतीम पङाव में उन्होंने इन दस्तावेजों को बिहार सरकार को लौटाने का निर्णय लिया. दिनांक 01.07.2018 को पटना  ए0 एन0 सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान आकर एक संक्षिप्त कार्यक्रम में इसे केन्द्र सरकार के मंत्री की उपस्थिती में बिहार सरकार के उपमुख्यमंत्री को लौटा दिया. कार्यक्रम में उनके शोध सहायक श्री कैलाश चंद्र झा ने कहा की प्रो0 हाउजर सी0 आई0 ए0 ऐजेंट नही थे. इस घटना के ग्यारह माह बाद 01 जून 2019 को 92 वर्ष की आयु उनकी मृत्यु हो गयी, मानो यह बोझ उनकी मुक्ति मार्ग में बाधक बन खड़ा था.

बिहटा डायरी-3(क्या प्रो० हाउजर सी० आई० ए० के एजेंट थे ?)


प्रो0 हाउजर का बिहार किसान आन्दोलन से लगाव के कारण बिहटा के सीताराम आश्रम और ए0 एन0 सिंह समाज अध्ययन संस्थान आना जाना लगा रहा. 60-70 के दौरान शोध के क्रम में वे सीताराम आश्रम से कुछ दस्तावेज जो स्वामी सहजानंद से जुड़े थे ; को अमेरिका लेते गये. इस प्रकरण ने बाद मे एक नये विवाद को जन्म दिया. उनपर आरोप लगा कि वे इतिहासकार के  छद्म वेश में सी0 आई0 ए0 के ऐजेंट है, और यहाँ से महत्वपूर्ण दस्तावेज की चोरी कर रहे है. इसकी अनुगूँज बिहार विधान मंडल में भी सुनाई देने लगी. पर हाउजर का काम जारी रहा. 1974 में रसायन शास्त्र से स्नातक कैलाश चंद्र झा जो पटना से है, उनके शोध सहायक बने. जब 1985 मे वे प्रो0 हाउजर के सहयोग से किडनी का ईलाज कराने अमेरिका गये तो उन्होंने उन दस्तावेजों को देखा जिसे प्रो0 हाउजर ने उतकृष्ट तरीके से संरक्षित कर रखा था.
   उन्होंने इस बात का खुलासा कभी भी नही किया कि इन दस्तावेजों को कैसे हासिल किया खरिदा या चुराया !

                                                                                         क्रमशः ....... 

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

बिहटा डायरी-2 (सीताराम आश्रम एवं प्रो०वाल्टर हाउजर /Sitaram Ashram and Professor walter Hauser )


बिहटा के सीताराम आश्रम ने कई विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित किया . इन्ही में से एक थे वाल्टर हाउजर जो शिकागो विश्वविद्यालय में इतिहास के छात्र थे . 1957 में बिहार प्रदेश किसान सभा पर शोध प्रारंभ किया. इसके बाद इनका सीताराम आश्रम बिहटा और पटना लगातार आना-जाना होता रहा.
किसान नेता यदुनंदन शर्मा से मिले. शोध के दौरान इन्होंने डा0 राजेन्द्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिंह  ,के0 बी0 सहाय ,जयप्रकाश नारायण एवं कर्पूरी ठाकुर जैसे शिर्ष नेताओं का साक्षात्कार लिया . सन् 1961 मे इनका पी० एच० डी० का शोध आलेख पुरा हुआ. इसके बाद वे वर्जिनिया विश्वविद्यालय के दक्षीण एशियायी अध्ययन केन्द्र में इतिहास के प्रोफेसर बने. 
                                                      बिहार से इनका लगाव कम नहीं हुआ बल्कि बढता गया. बिहार का किसान आन्दोलन उनका प्रिय विषय था.  वे इससे जुङे अन्य विषयों पर शोधरत रहे. कई पुस्तकों की रचना की जो इस  मील का पत्थर हैं.उनकी कुछ पुस्तकओं का विवरण निम्न प्रकार है. 


Swami Sahajanand and the Peasants of Jharkhand: A View from 1941 


The Bihar Provincial Kisan Sabha 1929–1942: A Study of an Indian Peasant Movement


Sahajanand on Agricultural Labour and the Rural Poor

My Life Stuggle: A Translation of Swami Sahajanand Saraswati`s Mera Jivan Sangharsh


Culture, Vernacular Politics, and the Peasants: India, 1889-1950: An Edited Translation of Swami Sahajanand`s Memoir 

                           प्रो०  हाउजर लगातार छः दशक तक अपने छात्रों को  इस क्षेत्र मे शोध के लिये प्रेरित कर उनका मार्गदर्शन करते रहे हैं. उन्होंने ए0 यांग,विलियम पिंच, प्रो0 क्रिस्टोफर हिल और प्रो0 वेंडी सिंगर को बिहार विषयक शोध के लिये प्रेरित किया. इनमे से दो पुस्तको (My Life Stuggle और Culture, Vernacular Politics, and the Peasants: India, 1889-1950 ) में पटना के उनके शोध सहायक कैलाश चन्द्र झा भी सह लेखक है.
                                                          मैने पटना विश्विद्यालय से इतिहास में स्नातक की उपाधि प्राप्त की . किसान आन्दोलन मेरे पाठ्यक्रम मे शामिल था. मै प्राय: सभी  कक्षाओं में उपस्थित भी रहा  . विद्वान प्रोफेसरों का सानिध्य मिला. पर आज मुझे दुःख इस बात का है कि किसी ने मुझे प्रो0 हाउजर, उनकी किताबों या सीताराम आश्रम के बारे में कुछ नहीं बताया.
                                                                                   
                                                                                    क्रमशः ........... 

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

बिहटा डायरी-1


पटना से 34 कि0 मी0 पश्चिम बिहटा राघोपुर में "सीताराम आश्रम" है. इसकी स्थापना स्वामी सहजानंद सरस्वती ने सन् 1927 ई0 मे किया था. इसी वर्ष बिहार ''पटना पश्चिमी किसान सभा' का गठन हुआ था, जिसका कार्यालय ईसी आश्रम में था. 1929 में 'प्रांतीय किसान सभा' और 1936 से 1944 तक 'अखिल भारतीय किसान सभा' का कार्यालय रहा है.
इस दौरान यह किसान आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र रहा है. 1939-40 में इस आश्रम मे सुभाष चंद्र बोस का आगमन हुआ था.स्वामी सहजानंद जीवन पर्यन्त इस आश्रम से जुड़े रहे . इनकी समाधी भी आश्रम परिसर मे ही है. आगे चलकर यह परतंत्र भारत के किसान आन्दोलन पर शोध का प्रमुख केन्द्र बना.
                                                                                     क्रमशः......  

सोमवार, 30 सितंबर 2019

पटना डायरी-5 (डूबता पटनाः29.9.2019)

आज लगातार तीन दिनों से बारिश हो रही है. लोग बता रहे हैं कि साठ  साल का रिकार्ड टूट गया है.
कंकड़बाग, राजेन्द्र नगर ,कदमकुँआ जैसे निचले इलाकों में कमर से उपर पानी है. आपदा की स्थिति है.


पटना की पिछली दो पीढियों ने ऐसा हाल न देखा होगा , मैंने भी नहीं देखा था.

उभरेगा नेता बारिश के बाद 

होवै है बारिश 
त रोबे है पटना
डूबे है पटना
सुने है कि 
हथिया नक्षत्र है आया
सोबे था पटना
जागा है पटना

बनाबे है घर लोग
छोड़े न कोना
बनाकर के ढूढे.
कन्ने है नल्ली
कन्ने है गल्ली
अब गल्ली है नल्ली
नल्ली है गल्ली
चलोगे बाबू तो
डूबोगे ऐ में

बीता है दो दिन 
बरसते ई पानी
डूबा है टोला
डूबा मोहल्ला
फाँदा है पानी
रेमंड के अंदर
नल्ली से उपर 
गल्ली से उपर
घरे में घुसा जब
न मिला कोई रस्ता 
टेबुल के नीचे
कूलर के उपर
कुर्सी के पीछे
टी० वी० के आगे
बोरिंग के अंदर
ए० सी० के भीतर 
अब का करोगे पटना
रोबोगे-धोबोगे
पिटोगे छाती
दोषोगे किसको
कोसोगे किसको

अरे

सरकार है न
लपेटो उसी को
आया था बारीश 
पानी न खींचा
हमें क्या पड़ी है
क्यों छोड़े कोना
क्यों छोड़े नल्ली
क्यों छोड़े गल्ली

तू लुटियांस में बैठा
मजा ले रहा है
कर के मिटींग 
तर-माल खा रहा है
बना ले तू कानून
चाहे भी जितना
न छोड़ेगें कोना
न छोड़ेगें नल्ली
न छोड़ेगें गल्ली
लेके रहेगें पर
हम हक अपना

होगा इंकलाब
बारिश के बाद
दिया वोट हमने
बाकी सरकार देगी
बारिश को रोको
या
पानी को खिंचो

न त
रूक जा ओ राजा
फिर आबे इलेक्शन
हटावेगें तुमको
जितावेंगे उसको
जो खिंचेगा पानी

हहाकार मचा है
तू देखे तमाशा
बारिश के बाद
उभरेगा इक नेता
उठायेगा मुद्दा
संसद से सड़क तक

जब डूबा था पटना
कहाँ तुम खड़े थे
क्यों न खिंचा तू पानी 
कहाँ थी मशीनें

धरना, जुलूस,
 जलसे के बाद
जितेगा इलेक्शन
जा बैठेगा
लुटियांस के ऊँचे टिले पर

फिर आयेगी बारिश
उड़ेगा वो फर्र से
देखेगा नजारा
डूबा है पटना
रोकोगे कैसे

जैसे हो रोको
देखे है तमाशा
न छोड़ेगें कोना
न छोड़ेगें नल्ली
न छोड़ेगें गल्ली

आबे दे इलेक्शन
हटावेगें तोरो
उभरेगा नेता 
बारिश के बाद
बैठेगा लुटियांस के
 ऊँचे टिले पर ।



शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

प्रखंड डायरी

सन् 2001-2003 तक मैं साहेबगंज (दुमका) के गाँव मे था. दुरस्थ संथाल गाँव मे जाने का अवसर मुझे कई बार मिला. चारों ओर हरियाली ही दिखती थी, संथाल लोगों मे हरे रंग के प्रति जबरदस्त लगाव मैंने देखा. यह उनके प्रकृति प्रेम को इंगित करता है. हरे पेङ ,हरे खेत, हरे मैदान यहाँ तक की कपङे भी हरे. हरी साङी हरा पैंची. पैंची हरा रंग का बङा (लगभग दो मीटर का) गमछानुमा आवरण होता था. स्त्रियाँ इसे साङी के उपर लपेटे रहती और पुरुष सर पर. यह हस्तकरघा पर बनाया जाता था, इसे परंपरागत प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता. विशेष पत्तों से तैयार रंग इतना पक्का होता है कि पैंची फट जाता पर रंग नहीं जाता. हटिया के दिन पूरा बाज़ार हरा-हरा ही दीखता. साहेबगंज से लौटते वक्त मुझे दो पैंची उपहार में मिला था, पाँच वर्षों के बाद ही यह घीसकर फटा पर रंग न गया.
        बिहार के प्रायः सभी प्रखंडों मे प्रखंड विकास पदाधिकारी और अंचलाधिकारी हरे रंग वाली रिफिल का प्रयोग करते हैं. प्रखंड का अन्य कोई सरकारी कर्मी चाहे शिक्षक हो या चपरासी हरे रंग की स्याही का प्रयोग नहीं करता है. सहायक ब्लू स्याही, प्रधान सहायक लाल स्याही, हाकिम हरी स्याही. इसके पीछे कोई सरकारी आदेश निर्देश नहीं है , बस परंपरा. दूरस्थ प्रखंड मुख्यालय में एकाद दूकानदार ही हरे रिफिल वाली कलम रखता है. हरे रंग की स्याही का आकर्षण ऐसा है कि जिन राजनेताओं ने प्रखंड स्तर से अपनी राजनीति  की शुरुआत की और राजनैतिक नौकरशाही के शिर्ष तक पहुँचे वे भी हरे रंग की स्याही से  ही हस्ताक्षर करते हैं.
     शासन-प्रशासन जिसका प्रतीक  लाल रंग है. लाल फीता से बंधी फाइलें, लाल साटन मे लपेट कर रखा गया अभिलेख, ईजलास के आगे लगा लाल पर्दा , लाल कालीन , लाल पट्टा, लाल बत्ती. इस लाल रंग के मिथक को तोङकर हरा रंग कब शिर्ष पर जा बैठा यह शोध का विषय है. मेरे मित्र डा0 सदन झा रंगों के इतिहास और इतिहास के रंग पर वर्षों से काम कर रहे हैं, उनका ध्यान इस ओर आवश्य गया होगा.

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

जहानाबाद डायरी-4: शहर के पहले श्रमजीवी कलाकार वासुदेव प्रसाद केसरी उर्फ कल्लू पेंटर


वासुदेव प्रसाद केसरी उर्फ कल्लू पेंटर जहानाबाद के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यहाँ गाड़ी पेंट करने की शुरुआत की.इनके साथ रामजी मिस्त्री ने डेंटिंग की शुरुआत की. ये जन्मजात कलाकार थे. राजकुमार उर्फ राजू जी ने इनके बारे में मुझे बताया. इन्हें ये अपना गुरू मानते हैं.
 राजू जी अंतराष्र्टीय ख्याति प्राप्त चित्रकार है. श्री केसरी ने जीविका के लिये जहानाबाद बाज़ार मे "आधुनिक कला केन्द्र" खोला. कुछ दिनों बाद 1970 में कृष्णा खेतान ने "शिवशंकर चित्र मंदिर" सिनेमा हाल की शुरुआत की. तीन दशक तक यह इस शहर के का आकर्षण का केन्द्र बना रहा . यहाँ बाक्स आफिस की हिट फिल्में लगती, जिसका टिकट पा लेना बड़ी समस्या थी . लोग दूर-दूर से सिनेमा देखने आते. सिनेमा हाल खुलने के बाद खेतान जी श्री केसरी को बुलाकर ले आये. "आधुनिक कला केन्द्र" शिवशंकर चित्र मंदिर के पास आ गया. पहले पोस्टर से हीरो-हिरोईन के चित्र को काट पैनल पर लगाकर नाम लिखा जाता था. केशरी जी ने पहली बार सिनेमा हाल में लगने वाले पोस्टर की परंपरा मे नया आयाम दिया 15फिट लंबाई और चौड़ाई के पैनल पर बड़ा पेंटिंग बनाया. उसके बाद 40 फुट गुणा 8 फुट के पैनल पर दो भाग में बनाकर  इसे जोड़कर लगाया, जिसने हाल के साथ-साथ सिनेमा को भी भव्य बनाया . इसके बाद सिनेमा हाल में पोस्टर की जगह पेंटिंग लगाई जाने लगी. 1988 ई० मे 'आईना स्टूडिओ' खोला. सन् 1998 मे बड़े रंगीन पोस्टर छपकर आने लगे तब से पेंटिंग बनाने की परंपरा बंद हो गया. केसरी जी पेंटिंग ,स्थापत्य,फोटोग्राफी, वाहन पेंट , मूर्तिकला(पी० ओ० पी० )के उस्ताद थे, ज्ञान बाँटने मे विश्वास था.
             राजू जी ने आगे बताया कि 1977 ई० मे जब इंदिरा गाँधी जहानाबाद आई थी तो उनका जहाज खराब हो गया  . डैना किसी पक्षी से टकराकर क्षतिग्रस्त हो गया था. दिल्ली या पटना से इंजीनियर बुलाने की तैयारी हो रही थी. पायलट ने एक स्थानिय दो-भाषिये को अँग्रेजी में समस्या बताई, तब रामजी मिस्त्री और वासुदेव मिस्त्री ने मिलकर बैल के सिंघ से ठोककर डैने को ठीक किया और जहाज उड़ा. बैल के सिंघ की विशेषता  है कि इससे ठोकने पर  दाग नहीं आता है. 
  "आधुनिक कला केन्द्र" धीरे-धीरे शहर की पहचान बन गई. राजू जी ने भी कलाकार बनने की पहली तालिम यहीं से पाई, फिर पटना आर्ट कालेज गये. यहाँ हिट फिल्मों की टिकट के लोग पैरवी करते. जय माँ संतोषी फिल्म देखने के लिये इतने लोग आते थे कि इन्हें अपनी दूकान बंद करनी पड़ी. पाँच शो चलने के बाद भी लोग सुबह से बैलगाड़ी से आकर बैठे रहते. कृष्णा खेतान शौकिन आदमी थे. शिव शंकर चित्र मंदिर में लगे दो फिल्में "जुगनू" और "पूरब और पश्चिम" का हैंडबिल पूरे इलाके में हेलिकाप्टर से गिराये गये. सन् 77-78 में नरगिस एवं जाहिदा जहानाबाद आईं थी तो कृष्णा खेतान के घर ही गई थी.
      राजू जी ने बताया कि सुभाष घई 70' के दशक में जहानाबाद आये थे 10-15 दिनों तक सिढीया घाट पाठकटोली मे मदन बाबू के घर रहे थे. मदन बाबू कलाकार थे उन्होंने एक फिल्म "Murder in circus" में सुजीत कुमार के साथ काम किया था.
                 राजू जी अद्भुत कलाकार हैं .
गौतम बुद्ध उनके पेंटिंग का पसंदिदा विषय है.
चाकू से पेंटिंग करना कला के क्षेत्र में बिल्कुल नया प्रयोग है जिसका श्रेय इन्हीं को जाता है.
उपर के पेंटिंग को देखकर इनकी कला के ऊँचाई का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. कला श्री संस्था इन्होने 80' के दशक में अपने कला को जन सामान्य तक पहुचने के लिए बनाई. लोग बताते है की उस समय बहु-बेटियों को घर से निकलना इतना आसन नहीं था , पर इस संस्थान की उपलब्धि है की वे यंहा आकर नियमित सिखने लगी. 

   वाणावर महोत्सव 2014 के अवसर पर मैंने इनसे बराबर गुफाओं के इतिहास पर तीन पेंटिंग बनाने का अनुरोध किया
वे सहर्ष तैयार हो गये. इसकी थीम और पृष्ठभूमि मैने विस्तार से उन्हें बतायी पहला  कृष्ण-वाणासुर संग्राम से, दूसरा गौतम बुद्ध द्वारा बराबर पहाड़ के शिर्ष पर से मगध का अवलोकन एवम
तीसरा राजा दशरथ द्वारा आजीवकों को गुफा दान से संबंधित था.
इन पेंटिंग्स को वाणावर महोत्सव के अवसर पर माननीय मुख्यमंत्री एवम अन्य मंत्रीगण को भेंट की गई.
                राजू जी से श्री केसरी की चर्चा सुन मैंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की, पर  उन्होंने बताया की कुछ ही दिन पहले (2015 ई0 में)  वे अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर गये है. 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

टेंहटा डायरी / Tenhta Dayari

25 नबम्बर 2018 
ज्याँ द्रेज और अरुणंधती राय को सुनने की इच्छा लिये मेरे कदम ग्यान भवन (पटना)की ओर बढ. गये. 2.00 बजे अपराह्न हाल मे प्रवेश किया तो किसी अन्य वक्ता का भाषण चल रहा था. महिला सशक्तिकरण और समानता के सिद्धांत पर बात करते हुए वे बहक गये थे उपस्थित पुरुषों से पुछ रहे थे कि कितने लोग अपनी पत्नी के कपड़े धोते हैं. हाथ उठाने को कह रहे थे.
आगे की पंक्तियाँ भरी हुई थी, मैं पीछे की पंक्ति मे खाली कुर्सी तलाश रहा था, वक्ता सरदार वल्लभ भाई पटेल को दलित बता रहे थे. मेरे साथ हाल में उपस्थित कई लोग आश्चर्य में पड़ गये. बाद में पता चला कि ये दक्षिण भारत के दलित विमर्श के बड़े हस्ताक्षर हैं. इस आयोजन में बिहार के सरकारी कर्मचारी-पदाधिकारी के दलित संगठनों की अहम भूमिका है. इसके बाद अरुणधती राय का वक्तव्य प्रारंभ हुआ. उन्होंने मंच संचालक को पी॰ एच॰ डी॰ नही रहने के वाबजूद डाक्टर सम्बोधन के लिये धन्यवाद दिया.चीन और भारत की अर्थव्यवस्था के मौलिक अंतर का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि चीन में उत्पादक ही बिक्रेता है. श्रम बाजार को संचालित करता है, मार्गदर्शन देता है. परन्तु भारत में उत्पादक और बाजार के बीच एक व्यापारी वर्ग है, जिसमें परंपरागत रुप से एक खास जाति का वर्चस्व है. यही बाजार को संचालित करता है. विश्वविद्यालयों में दलित-विमर्श के साथ बनिया जाति और बाजार में उसके दबदबे पर भी शोध होना चाहिये. मुझे लगा कि हिन्दी से दूरी के कारण वे ऐसा बोल रही है, कई जातियों पर हिन्दी में शोध हुये है. दलित विमर्श या किसी अन्य विमर्श की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इस पर काम करने वाला या बोलने वाला कहीं न पक्षकार हो जाते हैं.
        ज्याँ द्रेज का वक्तव्य सबसे संतुलित और तर्कपूर्ण  था.  उनकी यह स्थापना कि भारत में बनने वाला कानून और इसे लागू करने वाली एजेंसी अंतीम पायदान पर बैठे लोगों के लिये नहीं है. इस संबंध में उन्होने मनरेगा कानून के लागू होने की विफलताओं का उल्लेख किया. काम माँगने का एक भी मामला पिछले दस सालों मे न्यायालय तक नहीं पहुँचा उल्टे मनरेगा के मुजफ्फरपुर के व्हिसील व्लोअर श्री सहनी ने लोगों को एकत्रित कर काम माँगा तो उन्हें कई अपराधिक मामलों मे अभियुक्त बना दिया गया.
  वक्तव्य के बाद आयोजकों ने सभी को स्मृति चिन्ह् एवं अंगवस्त्र देकर सम्मानित किया . स्मृति चिन्ह् कुछ जाना पहचाना लगा, अरे ! यह तो राजीव की कलाकृति है. राजीव पुआल (agriculture waste )से नायाब चित्र बनाते हैं. ये जहानाबाद जिला के मखदुमपुर प्रखंड के टेंहटा गाँव के निवासी हैं. इनका  बनाया बानावर गुफा-द्वारा का चित्र जहानाबाद जिला का प्रतीक-चिन्ह् बन गया है.

                        जिस मंच पर घंटों देश के बड़े-बड़े विद्वानों ने श्रम की महता बताते हुये इसकी उपेक्षा पर तंज कसा , वहीं राजीव की इस श्रमसाध्य कला पर आयोजकों द्वारा एक शब्द भी नहीं कहना विरोधाभाषी लगा. इसके बारे में न बताये जाने के कारण अतिथि इन स्मृति-चिन्ह् के महत्व को कभी नहीं जान पायेगें.
     इस कार्यक्रम की दो विषेशतायें थी, आज अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर साधु-संतों का अखिल भारतीय सम्मेलन चल रहा था. दूसरा इससे सभी राजनीतिक दल के नेताओं को दूर रखा गया था.

शनिवार, 22 जून 2019

सकरा डायरी / sakra Dayari

21.6.2019
सकरा मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत ढोली प्रखंड में  है. यंहा रहते है सोहन लाल आजाद. फक्कङ संत कबीर. लाख समझाने के बाद भी वे न माने .जब बिहार भीषण लू की चपेट में था, सैकड़ों लोग काल के गाल में समा चुके थे ; तब ये 18 जून को साईकिल से हजारों किलोमीटर लम्बी  शहीद यादगार यात्रा पर निकल पड़े.  आज पटना पहुँचे , कुछ लोग उनके स्वागत में शहीद स्मारक के पास एकत्रित हुऐ थे.
इस यात्रा में वे सकरा से मुजफ्फरपुर, पटना,बनारस,इलाहाबाद, दिल्ली, अमृतसर,कटक, मिदनापुर, के साथ कई शहीद स्मारकों का दर्शन करेगें. कब लौटेगें उन्हें खुद पता नहीं. सन् 1992 से श्री आजाद एैसी यात्रायें कर रहे हैं. साईकिल के मध्य डंडे में राष्टृीय ध्वज होता है , पीछे सिमेंट की खाली बोरी में कुछ जरुरी सामान.
किसी शुभचिंतक ने साईकिल खरीदकर दे दी, किसी ने झंडा, तो किसी ने अपना ए॰ टी॰ एम॰ दे दिया है .  श्री सोहन लाल आजाद  जी के पास न कोई जमीन है, न आय का कोई अन्य साधन. इन्होंने विवाह भी नहीं किया है. चूँकि ये गरीब है, अति पीछड़ी जाति से है, इसलिए इनकी यात्रा कभी खबर नहीं बन सकी

गुरुवार, 13 जून 2019

पटना डायरी-4 (तब सिपाही जमींदार बन जाते थे /When soldiers became landlords)

पलासी और बक्सर युद्ध में विजय के बाद कंपनी बहादुर का उत्साह सातवें आसमान पर था .इस जीत का श्रेय बंगाल आर्मी के सिपाहियों को था. इनकी  सेवा से खुश होकर 18 फरवरी 1789 को  ब्रितानी हुकूमत ने एक रेगुलेशन लाया; इसके अनुसार बंगाल आर्मी के सैन्य ओहदादरों ( रिसालदार से सिपाही तक ) के लिए अवकाश प्राप्ति के उपरांत कुछ गैर-आबाद , बंजर जमीन बंदोबस्ती की जाती थी. उसे कृषि योग्य बनाने हेतु ग्रेच्युटी की भी  व्यवस्था थी. यह पटना जिले के साथ बंगाल के लोअर प्रोविंस के सभी जिलों में लागू था. विभिन्न ओहदों के लिए भूमि और ग्रेच्युटी का पैमाना निम्न प्रकार निर्धारित था.
रसालदार को 600 बीघा जमीन और 150 रुपया ;
सूबेदार  को 400 बीघा जमीन और 100 रुपया ;
जमादार को 200 बीघा जमीन और 50 रुपया ;
हवलदार को 120 बीघा जमीन और 30 रुपया ;
नायक को 100 बीघा जमीन और 20 रुपया ;
सिपाही  को 80 बीघा जमीन और 15 रुपया ;
  यह जमीन इन सैनिकों को आजीवन लगान मुक्त(rent free) दी जाती थी. इनके मरनोपरांत समाहर्ता ऐसी जमीनों का स्थाई लगान (fix rent) निर्धारित करते थे . जिसकी अदायगी उनके वारिस करते थे. इसका १/१० भाग मालिकाना के रूप में प्रोपराइटर  को देना पड़ता था.
  आज शायद ही किसी एक व्यक्ति के नाम से बिहार में 200 बीघा जमीन हो. सन 1804 ईस्वी में भूमि आबंटन की सीमा घटा दी गयी.
 रसालदार को 100 बीघा जमीन;
 सूबेदार  को 50 बीघा जमीन ;
 जमादार को 200 बीघा जमीन ;
 हवलदार को 30 बीघा जमीन  ;
 नायक को 250 बीघा जमीन  ;
आधुनिक भारत में पेंशन और इसके नगदीकरण की शुरुआत यंही से हुई है.   

बुधवार, 29 मई 2019

पूर्णिया डायरी-20 (लेकिन आप क्या करेंगें साहिब किस्मत/But what would you sahib kissmat.)

पूर्णिया डायरी-19  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
डिप्टी कंजरवेटर ऑफ फारेस्ट का प्रस्ताव था कि खाली झोपड़ियों के आस-पास बिखरी सड़ती लाशों को हाथियों की मदद से एकत्रित कर उन पर झोपड़ियों को डालकर आग लगा दिया जाये. उसी दिन दोपहर में पच्चीस हाथी तथा वन विभाग के साठ संथाल कर्मचारी को लाया गया. संथालों को भय और बड़ी बख्शीस का प्रलोभन देकर लाया गया था. एक लंबी सिकड़ एवं छड़ी जिसके एक सिरे पर हुक लगा हो, की व्यवस्था की गयी. इसका प्रयोग वैसी लाशों को खिंचकर लाने के लिये जाना था जो झोपड़ियों से दूर थे. 
 संथाल लाश को हूक में फंसाते और हाथी उसे खाली झोपड़ियों के दरवाजे तक खिंच लाते. काफी मशक्कत के बाद तीन फुट उँचा और तीस फुट लंबा लाशों का ढेर तैयार के लिया गया. इसके बाद आसपास की खाली झोपड़ियों को इसपर रखा गया. फोर्ब्स ने  लिखा है कि हाथियों को मानो समझ आ गया हो कि आगे क्या करना है. ढेर पर टनों लकड़ियाँ और झाड़ियां लाकर रख दी गई. इसके बाद संथालों ने इसपर दर्जनों बैरल पेट्रोल उड़ेलकर आग लगा दिया.गिद्धों का झुंड जो इस सारी प्रक्रिया को दूर से देख रहे थे, अपनी कर्कश आवाज के साथ उड़ चले. पर रात में सियारों की डरावनी आवाजें आती. जलने के बाद अवशेष बच गये टुकड़ों के लिये लड़ते. 
          महामारी का प्रभाव धीरे-धीरे घटने लगा. लोग वापस अपने रोजगार पर लौटने लगे. कुछ अमीर कुछ गरीब पर किसी मे मृत लोगों के प्रति विशष शोक का भाव न था. लेकिन आप क्या करेंगें साहिब किस्मत.

सोमवार, 27 मई 2019

पूर्णिया डायरी-19(लाशों के निस्तारण के लिए जब हाथियों की मदद ली गई./When the help of elephants was taken for the disposal of corpses)

पूर्णिया डायरी-18  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
महामारी फैलने के आठ दिनों बाद पूर्णिया में मरने वालों की संख्या घटने लगी. पलायन कर गये लोग, वापस घरों को लौटने लगे, पर यंहा रह नहीं सके .सङ रही लाशों की बदबू इतनी भयानक थी कि इनके बीच एक भी  रात बिताना शहादत देने जैसा था. एक सुबह शहर के बाहरी हिस्से में फेंके गये लाशों की गणना फोर्ब्स ने की थी जो सात सौ पचास से कम न थी. ये सभी लाशें सड़ कर शहर के वातावरण में भीषण बदबू फैला रही थी.                                                     शासन की इस उपेक्षा को छिपाते हुए फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि , मामला इसी तरह नही चलता रहा लाशों के निस्तारण के सम्बंध में 'उपर' बेतार संवाद भेजकर निर्देश मांगे गये. पर उपर से एक ही उतर आता जितनी जल्दी हो लाशों को जला या दफना कर निस्तारित किया जाये. यह कहना तो आसान था , पर यहां स्थनीय प्रशासन के सामने यक्ष  प्रश्न यह था कि, इतनी बड़ी संख्या में लाशों को जलाये या दफनायेगा कौन ? पूर्णिया के आसपास कई मील तक इस काम के लिये कोई तैयार न हुआ.

     काफी मंथन के बाद डिप्टी कन्जरवेटर ऑफ फाॅरेस्ट ने यह प्रस्ताव दिया की सड़ती लाशों को निपटाने के लिये हाथियों की मदद ली जाये. हाथियों की मदद से लाशों को निपटाने की जो कार्य योजना बनी उसपर सभी ने सहमती दी. इस काम के लिये पच्चीस हाथियों को लगाने का निर्णय हुआ.
                            
                                     क्रमशः ........

शनिवार, 25 मई 2019

पूर्णिया डायरी-18 ( दूध न देने की सजा पन्द्रह साल की जेल /When the punishment for not giving milk was fifteen years of imprisonment)

पूर्णिया डायरी-17  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
इस महामारी में पूर्णियावासियों के असह्य कष्ट और दरिद्रता का वर्णन नहीं किया जा सकता है. इलाके की सभी दूकानें धीरे-धीरे बंद हो गई. या तो दूकानदार मर गये या पलायन कर गये या उनके परिवार के ज्यादातर सदस्य का सफाया हो गया जिसके कारण वे दूकान खोलने की स्थिती में नहीं थे. अनाज और अन्य खाद्य सामग्रियां बैलगाङियों से दूर से लायी जा रही थी. 
 कई बार सामान लाने गया गाङीवान रास्ते पर हाथ में लगाम लिये मृत पाया जाता.परन्तु इस महामारी में भी कुछ लोग मौके का लाभ उठाना नहीं चुकते. एक सुबह फोर्ब्स कहीं जा रहे थे, रास्ते में तालाब पर कुछ महिलायें कमर भर पानी मे कपङे धो रही थी. ये कपङे उन बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे (न जाने फोर्ब्स ने किस आधार पर इतना विश्वास के साथ यह लिखा कि ये कपङे उन्हीं बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे). एक ग्वाला उधर से दूध लेकर जा रहा था, वहाँ रुककर वह उनसे गप्प करने लगा. पूर्णिया में दूध का स्त्रोत गाँव से इसे लेकर आने वाले ग्वाले ही थे. अस्पताल में दूध की कमी रहती थी . गप्प खत्म होने के बाद  फोर्ब्स ने उस ग्वाले को अपना दूध बाजार में न बेचकर अस्पताल में लाकर बेचने को कहा . परन्तु ग्वाले ने उसकी बात सुनकर पुरा का पुरा दूध तालाब में बहा दिया. शायद भय और घृणा से. 
                                   फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि उसका दूध तो कभी अस्पताल नहीं पहुँच सका पर, वह पंदरह साल के लिये जेल जरूर चला गया.

                                           क्रमशः .......

गुरुवार, 23 मई 2019

पूर्णिया डायरी-17 (पूर्णिया में नरबलि/ Human Sacrifice in purniya )

पूर्णिया डायरी-16  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
महामारी के दौरान की घटना की एक  जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. इस घटना ने पूर्णिया को कलंकित किया है. इतिहास केवल गौरव गाथा नहीं. विफलता लाचारी और कुंठा के कारण  घटित  घटनाएँ जो जन -जीवन को प्रभावित करती है वह भी इसका अंग है.  
                                        आकस्मिक हालत में फोर्ब्स एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जा रहे थे जिसकी दूरी दो मील थी. रास्ते में खुले स्थान पर कोंड जनजातियों का एक समूह मिला, ये जनजाति मुख्य रूप से कोंड-महाल ओड़िसा के थे. जो मजदूरी के लिए पूर्णिया लाये गये थे, और यहीं बस गये थे. भीड़ में से आ रही पैशाचिक चिल्लाहट तेज होती जा रही थी. उन लोगों का उत्साह चरम पर था. फोर्ब्स समीप पंहुंचे, एक को बुलाकर पूछा कि क्या हो रहा है. उसने एक ही उत्तर दिया की सब ठीक है. वे उत्सुकतावश उस भीड़ में घुस गये. भीड़ के बीच में लकड़ी की ऊँची वेदी थी, जिसपर चार-पांच साल के बच्चे को लिटाया गया था. वेदी के पास एक कोंड पूजारी बड़ा सा चाकू लिए खड़ा था. फोर्ब्स समझ पाते की यंहा क्या हो रहा है इससे पहले ही उसने चाकू बच्चे के सीने में उतार दिया . भीड़ और हत्यारे पूजारी पर पैशाचिक प्रवृती इस कदर  हावी थी की वंहा एक भी शब्द कहना खतरे से खाली नहीं था.ऐसा फोर्ब्स ने लिखा है. यदि Ducarel जैसा साहस वे दिखाते तो बच्चे को बचा सकते थे , पूर्णिया की धरती कलंकित नहीं होती . 
                  खैर फोर्ब्स ने उस भीड़ में से एक को पहचान लिया जो पास के नील की  फैक्ट्री में कुली का काम करता था.अगले दिन उससे पूछ-ताछ की गयी. उसने स्वीकार किया कि महामारी और मृत्यु से भयभीत कोंडो ने अपने भगवान को खुश करने के लिए उस बच्चे की बलि दी थी. बच्चे की माँ उसी दिन सुबह में महामारी से मरी थी, उसे चुराकर लाया गया था. इस कांड का मुख्य कर्ता कभी गिरफ्तार नहीं किया जा सका. सड़े मांस खाने की आदत के कारण  दो-तीन दिनों के अन्दर महामारी की चपेट में आ काल के गाल में समां गये.

               क्रमशः...... 

बुधवार, 22 मई 2019

पूर्णिया डायरी-16 ( पांच दिनों में तीन हजार लोग काल-कलवित हुये)

पूर्णिया डायरी-15  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
पूर्णिया के "नेटिव" समाज के बड़े तबके का यूरोपीय चिकित्सा व्यवस्था में विश्वास नहीं रहने के बावजूद जितने लोग अस्पताल आ रहे थे उनके इलाज के लिए कम से कम बीस डॉक्टरों की आवश्यकता थी. फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि नेटिव कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे थे. पांच दिनों के अन्दर तीन हजार लोग काल-कलवित हुए. जो गरीब थे जिनके परिवार में कोइ नहीं बचा था उनका अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका. लाशों के सड़ने से 'नेटिव' बस्तियों में भयंकर बदबू फ़ैल रही थी. 
               श्मशान से रात -दिन धुंये का अम्बार उठकर आसमान में विलीन हो रहा था. मुसलमानों के कब्रिस्तान भी बिना दफ़न किये गए लाशों से भरे पड़े थे. इसके ऊपर चिल-गिद्ध ऐसे मंडराते रहते मानो काले बादल उमड़-घुमड़ रहे हों. 
  हिन्दुओं की जो भी खाली जमीन थी उसपर काली की पूजा हो रही थी. यह बात आम-आवाम के मन में घर कर गयी थी कि माँ काली के कोप से ही यह महामारी पूर्णिया में फैली है, जो रोज सैकड़ो लोगों को लील रही है. इधर मस्जिदों में शरण लेने वाले मुसलमानों की संख्या भी बढती जा रही थी. उनका विश्वास था कि इस पवित्र भवन की शरण में आकर वे उस मृत्यु से बच सकते हैं जो उनके घरों में इंतजार कर रही है. परन्तु जल्द ही मस्जिद मुक्ति धाम बन गया. बीमार व्यक्ति मस्जिद में आता प्रार्थना करता पर संक्रमण इतना होता कि वह प्रार्थना पर भारी पड़ता . बीमार आदमी मर जाता. मृत शरीर को मस्जिद से निकलने वाला कोइ नहीं था.लाशों की संख्या बढती, उसके सड़ने से भीषण बदबू फैलने लगती . मुल्ला और मोईजिन मस्जिद छोड़कर अन्यत्र चले जाते .

क्रमशः 

मंगलवार, 21 मई 2019

पूर्णिया डायरी-15 (महामारी में जादू-टोना )

पूर्णिया डायरी-14 से आगे....
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
डा० सांडर्स को दफ़न करके पूर्णिया लौटने पर फोर्ब्स के कानों में हिन्दुओं का शवयात्रा मन्त्र " राम-राम सीताराम" और मुसलमानों का "अल्लाह इल्ला अल्लाह" गूंजता रहा. श्मशान और कब्रिस्तान में लाशों के जाने का सिलसिला देर रात तक चलता रहा.इस बीच फोर्ब्स को न जाने कब नींद आ गई.
              . हैजा महामारी का रूप ले चूका था, पर पूर्णिया में कोई डाक्टर नहीं था. कमिश्नर  जिले में दूसरे सिविल सर्जन के पदस्थापन के लिए टेलीग्राम भेज चुके थे.उसने फोर्ब्स से अनुरोध किया कि जबतक कलकत्ता से कोई दूसरा डॉक्टर नहीं  आ जाता वे सिविल-सर्जन के दायित्वों का निर्वहन करें. आगे के दिनों में आनेवाली कठिनाईयों को समझते हुए भी फोर्ब्स ने इस चुनौती को स्वीकार कर रोगियों का इलाज प्रारंभ कर दिया.
                                            नील की फैक्ट्री , खलिहान, या कोई एसा भवन जिसे इस विपदा की घड़ी में अस्पताल बनया  जा सकता था,  बना दिया गया .  " नेटिव" हिन्दुओं में सबसे निम्न जाति के लोग ही यूरोपीय इलाज और दवा का लाभ उठा सके. हिन्दुओं के किसी उच्च जाति के रोगी का इलाज के लिए यंहा आना असंभव था. वे यदि इस महामारी से पीड़ित होते तो एक ब्राह्मण ओझा को उनके पास भेजा जाता. वह जादू-टोना-टोटका करता . पीड़ित व्यक्ति की स्थिती में कोई सुधार नहीं होता तो फिर  वे सभी कर्म-कांड कराये जाते जो मोक्ष के लिए आवश्यक है. उसके बाद मनहूस रोगी को मरने के लिया छोड़ दिया जाता था. मान लिया जाता की उसे मोक्ष प्राप्त होगा.
                              मुसलमानों के मामले में बात थोड़ी अलग थी. कुछ मुसलमान बीमार पड़ते तो अस्पताल आते. दवा दिए जाने पर वह इसे समीप के मस्जिद के मुल्ला के पास ले जाते. मुल्ला उसकी जाँच-परख कर  यह तय करता की दवा रोगी के लिए उपुक्त है या नहीं. यदि वह इसे सही पाता तो कागज के एक टुकड़े पर कुरान की एक आयत लिख दवा के बोतल की गर्दन में बांध देता , जो दवा की क्षमता को और बढ़ा देता .दूसरी ओर यदि मुल्ला दवा को सही नहीं बताता तो लोग उसे फेंक देते और उन फिरंगियों को कोसते हुये घर लौटते जिसने गलत दवा दी थी.
                                                   
                                                                           क्रमशः .....
    

सोमवार, 20 मई 2019

पूर्णिया डायरी-14 (डा० सांडर्स की कहानी/story of Dr sanders )

पूर्णिया डायरी-13 से आगे.....
पूर्णिया 1887 ईस्वी 
डा० सांडर्स के अंतिम संस्कार के बाद फोर्ब्स दुखी मन से पूर्णिया अपने बंगले पर लौट आया . अपने मित्र की आकस्मिक मृत्यु से वे विचलित था . मृत्यु के कारण को जानने के लिए उनके नौकर को बुलवा भेजा . उसने बताया कि रात दस बजे एक गरीब नेटिव डा० को बुलाने आया जिसका बेटा बिमार था. डा० उसके साथ गये और रात भर बीमार बच्चे के साथ रहकर उसकी तीमारदारी की. वह हैजे से पीड़ित था. उस गरीब का बेटा तो बच गया पर डा० सांडर्स हैजे की बलि चढ़ गए. डाक्टर ने हिपोक्रेतिस के नाम पर ली गई शपथ को पूरा किया. आज पूर्णिया में चार सौ से अधिक डाक्टर है. पर मुझे नहीं लगता की इनमे से कोई गरीब व्यक्ति की मदद उस तरह करता होगा जैसा डा० सांडर्स ने किया
                                                 क्रमशः.......

शुक्रवार, 17 मई 2019

पूर्णिया डायरी-13 (जब पूर्णियावासियों ने एक अंग्रेज की कब्र खोदने से इंकार कर दिया)

पूर्णिया डायरी-12 से आगे....
 पूर्णिया  1887 ईस्वी
डा० सांडर्स की लाश पालकी के अन्दर फोर्ब्स के बंगले की ड्योढ़ी में पड़ी थी . उस समय पूर्णिया की यूरोपिन कॉलोनी में रौनक हुआ करती थी . इसका विस्तार वर्तमान रंगभूमि मैदान के उतर पश्चिम था. यंहा कई लोगों के सरकारी बंगले थे जिसमे केवल ब्रिटेन ही नहीं बल्कि यूरोप के प्राय: सभी देश के मूल के लोग यथा फ्रांस आयरलैंड , जर्मनी, पुर्तगाल के लोग रहते थे. नेटिव इस ओर जाने से बचते थे. इसी कॉलोनी के पूरब सिविल लाइन बाज़ार था जो आज लाइन बाज़ार के रूप में जाना जाता है. फ़ोर्ब्स ने तत्काल तीन हरकारा (संदेशवाहक) जो तेज धावक होते थे, को बुलवाया ; इन्हे जिले के मजिस्ट्रेट , कमिश्नर , और कमांडिंग ऑफिसर के पास  डा ०  सांडर्स के मृत्यु की सूचना देने हेतु भेजा. एक अश्वारोही संदेशवाहक को मि० मुर्री  के पास यह कहवाकर भेजा कि वे जितनी जल्दी हो अपने घोड़े पर सवार हो आयें.  मि ० मुर्री नील की खेती कराने वाले बड़े जमींदार थे, जिन्हें स्थानीय लोग निलहा फिरंगी कहते थे.
                           मि० मुर्री दो घंटे में पहुँच गये. उनकी मदद से डा० सांडर्स के मृत शरीर को पालकी के अन्दर से निकाल कर कमरे में रखा गया, जंहा अब दफनाने तक इंतजार करना था. कमिश्नर शाम में पंहुचे. कैंटोनमेंट के छोटे कब्रिस्तान में लाश को दफ़नाने की तैयारी की जाने लगी जो पास में ही था. स्थानीय लोग जिसे अंग्रेज 'नेटिव' कह सम्बोधित करते थे ; में यह खबर जंगल के आग की तरह फ़ैल गयी कि हैजा महामारी का रूप ले चुका है, जिससे जिले के सबसे बड़े अंग्रेज डाक्टर की मौत हो गई है. भय लोगों में इस तरह व्याप्त था की मृत डॉक्टर की कब्र खोदने के लिए कोई तैयार न हुआ. सूचना पाकर अन्य अंग्रेज ऑफिसर असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट एवं फारेस्ट कांसेर्वेटर भी पंहुंच गए. शाम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने के बाद भी जब ग्यारह बजे रात  तक कोई नेटिव कब्र खोदने को तैयार नहीं हुआ तब  फोर्ब्स , मि० मुर्री असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट एवं फारेस्ट कांसेर्वेटर  ने स्वयं कब्र खोदना प्रारंभ किया. इन्हे छह घंटे कब्र खोदने में लगे .  सुबह पांच बजे डा० सांडर्स के मृत शरीर को दफ़न किया गया. रातभर कब्रिस्तान में बिताने के बाद सब वापस लौटे. यह पूर्णिया के इतिहास की एक भयानक रात थी.

                                                                                          क्रमशः .....   

मंगलवार, 14 मई 2019

नवादा डायरी-2 (सहेबकोठी: 2010)


कल (२३//१०सावन की आखिरी सोमवारी थी नवादा में भी इसे शिव  भक्तो ने बड़ी धूम-धाम से मनाया, यूँ तो पुरे सावन महीने यहाँ बाबा वैद्नाथधाम जानेवाले   यात्रियों का ताँता लगा रहता है. झारखण्ड और दक्षिणी बिहार के कांवरियों का देवघर जाने और आने का यह एक सुगम मार्ग है. गत एक माह से यहाँ की मुख्य सड़को पर केसरिया रंग के आवरण में कांवरियों से भरे गाडियों में को चौबीसों घंटे देखे जा सकते थे

 इस शहर में भक्ति की ऐसी लहर चलती है की , सभी भोजनालय एवं  सामान्य फुटपाथी दुकानों पर भी खाने और नाश्ते के सामानों में लहसुन-प्याज का प्रयोग बंद कर दिया जाता है

नवादा शहर की ह्रदयस्थली साहेब कोठी में एक अति प्राचीन शिवालय अवस्थित है  यह मंदिर लगभग २५० वर्ष पुराना है   यहाँ के पुजारी ने बताया की वे अपने परिवार के पांचवी पीढ़ी के है उनके परिवार की पांचवी पीढ़ी एस मंदिर में पूजा करवा रही है  इस शिवालय में कई चीजे ऐसी है ; जो इसके और प्राचीन होने को स्थापित करती है  एस मंदिर का स्थापत्य आजकल के मंदिरों से बिलकुल अलग है  इसकी दीवारे २०-२५ इंच मोती है  आसपास के भू भाग से मंदिर का गर्भ-गृह - फीट नीची है  मंदिर में काले बैसाल्ट पत्थर की बनी कुछ मुर्तिया जो मध्यकाल या उससे पूर्व की है  यहाँ का शिव लिंग भी अद्भुत है शिवलिंग पर शिव की मुखाकृति अंकित है

मंदिर के पुजारी ने बड़े ही अच्छे ढंग से मंदिर और शिवलिंग को सजाया था। यदपि वह इसकी प्राचीनता से अनभिज्ञ था