शनिवार, 19 दिसंबर 2015

मधुबनी डायरी (Madhubani dayri)

भौडागढी, तिरहुत सरकार की पहली राजधानी थी और करीब 200 साल तक तिरहुत की सत्‍ता यहीं से चलती थी। दरभंगा प्रमंडल के मधुबनी जिले में भौडागढी एतिहासिक और पुरात्‍वविक महत्‍व का अदभुत केंद्र है। भारत में खंडवाला राजवंश को छोड कर किसी राजवंश के पास यह आधिकारिक जानकारी नहीं है कि उसका पहला डीह कौन सा है। तिरहुत सरकार की पहली राजधानी भौडागढी का इतिहास अब तक अनजाना सा ही है। मुगल बादशाह ने मिथिला के गरीब पंडित महेश ठाकुर को तिरहुत का राज 1556 के आसपास दिया था, लेकिन महेश ठाकुर जब तक राज पाट समझते 1558 में उनका निधन हो गया। उनके बाद उनके बडे पुत्र गोपाल ठाकुर राजा बने, लेकिन वो भी अधिक दिनों तक राज नहीं कर सके और उनका भी जल्‍द ही निधन हो गया। वे नि:संतान थे, इसलिए महेश ठाकुर के दूसरे बेटे परमानंद ठाकुर को सिंहासन मिला, लेकिन इन्‍हें भी पुत्र नहीं हुआ और अल्‍पआयु में ही निधन हो गया। इसके बाद तीसरे और चौथे पुत्र ने राजा बनने से इनकार कर दिया और महेश ठाकुर के सबसे छोटे बेटे शुभंकर ठाकुर राजकाज संभालने को तैयार हुए। इसी दौरान उन्‍हें डीह बदलने की सलाह मिली और वो भौडग्राम(राजग्राम) से भौडागढी आ गये और यहां अपनी नूतन राजधानी बनायी। उन्‍होंने राज में लगान को नियमित करना शुरु किया और आसपास के राजवारे सक्रिय होने लगे। 1607 में उनके निधन के बाद पुरुषोत्‍तम ठाकुर पिता की जगह राजा बने। 1623 में पडोसी राज्‍य नेपाली ने तिरहुत पर आक्रमण कर दिया। इस दौरान तिरहुत सरकार पुरुषोत्‍तम ठाकुर वीरगति को प्राप्‍त हुए। खंडवाला कुल में वो अकेले राजा हैं, जो युद्ध के दौरान मारे गये। पुरुषोत्‍तम ठाकुर के बेटे नारायण ठाकुर और फिर रघु ठाकुर तिरहुत के सिंहासन पर बैठे। 1700 से 1736 के दौरान रघु ठाकुर ने तिरहुत की न केवल सीमा विस्‍तार किया, बल्कि भौडागढी में महल और किले का भी निर्माण कराया। वर्तमान महल उसी नींव पर बना है। कहा जाता है कि यह बिहार में जमीन के ऊपर बना सबसे पुराना महल है। इसकी नींव तो 1736 के पूर्व की है, लेकिन इसका वर्तमान स्‍वरूप भी 1880 के आसपास का है। वैसे 1762 में राजा प्रताप सिंह ने तिरहुत की राजधानी भौडागढी से दरभंगा ले आये। वैसे राजा नरेंद्र सिंह ही दरभंगा में सिंहासन ले जाने की मंजूरी दे चुके थे। दरअसल राजा नरेंद्र सिंह संतानहीन थे और प्रताप सिंह को उन्‍होंने गोद लिया था। ऐसे में प्रताप सिंह के लिए नयी राजधानी दरभंगा का चयन किया गया। राजा नरेंद्र सिंह के साथ ही भौडागढी का भी राजनीतिक समाधि हो गयी। दरभंगा के राजधानी बनने के ठीक 200 साल बाद 1962 को खंडवाला राजवंश के आखिरी राजा कामेश्‍वर सिंह का निधन हो गया। भौडागढी में 110 एकड में फैला राज महल के अलावा खंडवा से लायी गयी काली की प्रतिमा है। साथ ही 20वीं शताब्‍दी में यहां एक छोटा सा एयरपोर्ट का भी निर्माण कराया गया था। सब कुछ मरनासन्‍न है। बिहार सरकार ने इस अनुपम धरोहर को संरक्षित करने के बदले यहां पुलिस लाइन खोल रखा है और इस जर्जर महल में करीब 400 जवान रहते हैं। बाकी तसवीरों के साथ एक दो दिनों में ।


महल के कैफेटेरिया का हाल देखकर कोई भी संजीदा हो जायेगा, लेकिन स्‍थानीय लोग इसे देखने ही नहीं जाते।



भौडागढी स्थित राज महल का दरबार हॉल। सोने का पानी चढा इसका फाल्‍स सिलिंग आज काला पड चुका है, दीवारें रो रही हैं।





भारत में खंडवाला राजवंश को छोड कर किसी राजवंश के पास यह आधिकारिक जानकारी नहीं है कि उसका पहला डीह कौन सा है। तिरहुत सरकार की पहली राजधानी भौडागढी का इतिहास आप लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में लगी हूं। महेश ठाकुर को तिरहुत का राज 1554 के आसपास मिला। महेश ठाकुर का निधन 1558 में हो गया। उनके बाद उनके बडे पुत्र गोपाल ठाकुर राजा बने, लेकिन वो नि:संतान थे, इसलिए दूसरे भाई परमानंद ठाकुर को सिंहासन मिला, लेकिन इन्‍हें भी पुत्र नहीं हुआ और अल्‍पआयु में ही इनका निधन हो गया। इसके बाद तीसरे और चौथे पुत्र ने राजा बनने से इनकार कर दिया और महेश ठाकुर के सबसे छोटे बेटे शुभंकर ठाकुर राजकाज संभालने लगे। इसी दौरान उन्‍हें डीह बदलने की सलाह मिली और वो भौडग्राम(राजग्राम) से भौडागढी आ गये और यहां अपनी नूतन राजधानी बनायी। 1607 में उनके निधन के बाद पुरुषोत्‍तम ठाकुर पिता की जगह राजा बने। 1623 में नेपाली आक्रमण के दौरान तिरहुत सरकार पुरुषोत्‍तम ठाकुर वीरगति को प्राप्‍त हुए खंडवाला कुल में वो अकेले राजा हैं जो युद्ध के दौरान मारे गये।पुरुषोत्‍तम ठाकुर के बेटे नारायण ठाकुर और फिर रघु ठाकुर तिरहुत के सिंहासन पर बैठे। 1700 से 1736 के दौरान रघु ठाकुर ने तिरहुत की न केवल सीमा विस्‍तार किया, बल्कि भौडागढी में महल और किले का भी निर्माण कराया। वर्तमान महल उसी नींव पर बनी हुई है। यह बिहार में जमीन के ऊपर बना सबसे पुराना महल है। इसकी नींव तो 1736 के पूर्व की है, लेकिन इसका वर्तमान स्‍वरूप भी 1880 के आसपास का है। वैसे 1762 में राजा प्रताप सिंह तिरहुत की राजधानी भौडागढी से दरभंगा ले आये। वैसे राजा नरेंद्र सिंह ही दरभंगा में सिंहासन ले जाने की मंजूरी दे चुके थे। ठीक 200

 (फेसबुक पर कुमुद सिंह की टिपण्णी )

बुधवार, 30 सितंबर 2015

बिहारशरीफ डायरी (Biharsharif dayri)

बिहारशरीफ में अभी आये हुए मुझे कुछ ही दिन हुए हैं . शहर इसकी सड़को से मैं धीरे -धीरे वाकिफ हो रहा हूँ. मुहल्लों चौक-चौरहों के नाम मेरे लिए नए हैं, ये सभी नाम स्वत: स्फूर्त विभिन्न काल खंडों से जुड़े है जिस कारण इनमे एक अलग तरह का आकर्षण है.
   भरावपर ,
 महिषासुर- चौक
 धनेश्वर-घाट
 मुनीराम बाबा का अखाडा
 गगन-दीवान
 मेहरपर
 सोंगरा स्कूल
 कटरा
 नवाब-रोड
 कोनहासराय
 मोगालकुंआ-चौकी
 लहेरी
 महलपर
खासगंज
 सोहसराय,
सलेमपुर
 सहोखर
 सोहडीह
सिंगाराहट
 अम्बेर
 शेखना
 इमादपुर
 नई सराय
 दायरा
 बारादरी
 खंदकपर
 पुलपर
 दरगाह-तीराहा
 झींग-नगर
 सालुगंज
 बन-औलिया
 मीर-दाद
 छज्जू मोहल्ला
बंधू-बाज़ार
 इतवारी-मोड़
 आलमगंज
 वैगनाबाद
 कागजी-मोहल्ला
 सकुनतगंज
 गढ़पर
 शेरपुर
 कोलसुमनगर
 जलालपुर
 कमरुदिन्नगंज
 पंडित-गली,
 रामचन्द्रपुर
 बबुरबन्ना
मोरा-तालाब
 पहरपुरा
नीमगंज-चौकी

इन नामों के पीछे अपना इतिहास है . इतना तो अनुमान लगाया ही जा सकता है की इस शहर का उदय तीसरी नगरीय क्रांति के दौरान हुई. मध्य-काल में यह एक संपन्न शहर रहा होगा.       

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

पूर्णिया डायरी - 4 (Purnea dayri - 4)

( राकेश रोहित का आलेख "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताए" का अंश)
चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी हिंगवा घाट में पानी रे हंसमई 1987)  आजादी के बाद के हमारे प्रांतीय यथार्थ की एक विशिष्ट रचना है. इसमें जायसवाल जी ने ढह रहे सामंतवाद और पनप रहे नव्यतम राजनीतिक स्टंटों व छद्मों की गिरफ्त में फंसे भनटा और उसके समाज के दबावों को सामने रखा है. वर्तमान समय में भनटा जैसे लोगों की भोली आशाएं छली जाती रही हैं और इस छले जाने को भनटा अंत में स्वीकार भी करता है. पर अगर भनटा में स्थानीय स्तर पर सुरो बाबू से मुक्त होने की किसी चेतना का विस्तार नहीं हो रहा और भनटा खुद को शोषण की परंपरा में शामिल किये जाने को अहसान के साथ स्वीकारता है तो लगता है इनके यहां कहानियां अपनी अतिस्वाभाविकता में विचार को ‘ओवरटेक’ कर जाती हैं और इस तरह वे यथार्थ का अतिक्रमण करने की कोशिश में कोई समांतर यथार्थ नहीं रच पाती हैं. इस वर्ष चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी अभागा (हंसअप्रैल 1991) आयी. अपराधआपरेशन जोनाकीदेवी सिंह कौन जैसी कहानियों के एक अंतराल के बाद इस कहानी (अभागाको एक घटना के रूप में होना चाहिए क्योंकि यह कहानी परिवर्तन की मध्यवर्गीय इच्छा की शिनाख्त करना चाहती है. पर इसमें पूर्व पीढ़ी के मध्यकालीन अभियानों में शामिल होने की अभौतिक इच्छा का आनंद है और इस आनंद में लेखक इतना डूबता है कि वह उस पीढ़ीजो यथास्थिति को पोषित करती हैको एक मजाकिये चरित्र में बदल देता है और नयी पीढ़ी के जीवन-विचार का संकट अनछुआ रह जाता है. इन सबके बावजूद चन्द्र किशोर जायसवाल की भाषा पर अद्भुत पकड़ यथार्थ के डीटेल्स को पकड़ने में नहीं चूकती है और कथात्मकता का एक सुन्दर वितान रचा जाता है.

(" हिंगवा घाट में पानी रे " की पृष्ठभूमि बनमनखी की है )

रविवार, 13 सितंबर 2015

दरभंगा डायरी-4 (Darbhanga dayri - 4)

आजादी की बात चली तो मुगलिया सल्तनत की बात कैसे न हो। अंग्रेज 200 साल में अपना ना हो सका, लेकिन मुगल ऐसे घुल मिल गये कि हम उनके नेतृत्व में ही आजादी की पहली लडाई लडी। दिल्ली के लालकिले के अंदर शायर दिल शंहशाह तो बस एक प्रतीक मात्र था। शायद यही कारण रहा है उसे जीते जी मार देने के लिए अंग्रेजों ने थाली में उसके बेटों का सिर परोस कर उसके सामने रख दिया। मुगलिया सल्तनत की वो आखिरी पीढी थी, क्योंकि बहादुर शाह अपने सबसे बडे पोते जुबैरुद्दीन गोरगन को युवराज घोषित करने से पहले ही उनका लालकिला हमेशा के लिए अंग्रेजों के कब्जेे में चला गया और अंग्रेज मुगलिया सल्तानत के इस उत्तराधिकारी को दिल्ली से तरिपार कर दिया और हिंदुस्तान में तीन साल से ज्यादा किसी एक जगह रहने की अनुमति भी नहीं दी। खानाबदोश जीवन जीते हुए एक बार उसकी मुलाकात दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से हुई। उन्होंने महाराज को जैसे ही अपना परिचय दिया, महाराज खडे हो गये, उसे देखने लगे। वो जमीन काशी की थी और वहां उनका तीसरा साल था। अनुरोध था कि दरभंगा में अगले पडाव की अनुमति दी जाये। लक्ष्मेश्वर सिंह ने तत्काल जैबुउदीन को अपने साथ लेकर दरभंगा रवाना हो गये। दरभंगा में उसे राज अतिथि का दर्जा दिया और गुजर के लिए भत्ते‍ और नौकर की व्यवस्था की। अंग्रेज सरकार ने खासा विरोध किया और उन्हें महाराजाधिराज की उपाधि नहीं देने की धमकी दी। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने कहा कि जिसने राज दिया अगर उसकी रक्षा नहीं कर पाउंगा, तो महाराजाधिराज कहला कर क्‍या करूंगा। 1857 का विद्रोह अगर सफल होता तो जैबुउदीन निश्चित तौर पर मुगलिया सल्‍तनत का अगला शंहशाह होता। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने उनकी तीन साल बाद जगह बदलने का फरमान भी खत्म करबा दिया और वो बाकी का जीवन दरभंगा में बडे आराम से काटा। इस दौरान उन्होंने एतिहासिक किताब मौज-ए-सुल्तानी लिखी। इस किताब में बहुत सारी बातें उस समय के तिरहुत और वहां की शासन व्यवस्था की कहानी कहती है। मुझे लाल किले और ताजमहल से ज्यादा दरभंगा स्थित जैबुउदीन का मजार मुगलिया सल्तनत की याद दिलाता है।
    आतिश -ए - पिन्हाँ ' के लेखक मुश्ताक अहमद की माने तो महराज का - हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स - में काफी असर था। जान की सुरक्षा से निश्चिन्त हो जुबैरुद्दीन ने जीवन के बाकि के साल किताबें लिखते हुए बिताई। दरभंगा में रहकर उन्होंने तीन किताबें लिखी। उनकी लिखी ' चमनिस्तान - ए - सुखन ' कविता संग्रह है जबकि ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' महाकाव्य है। जुबैरुद्दीन की तीसरी रचना ' मौज - ए - सुलतानी ' है। इसमें देश की विभिन्न रियासतों की शासन व्यवस्था का जिक्र है। खास बात ये है कि महाकाव्य ' मशनबी दुर -ए - सहसबार ' में राज दरभंगा और मिथिला की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को तफसील से बताया गया है। राज परिवार की अंतिम महारानी के द्वारा संचालित कल्याणी फाउंडेशन की ओर से ''मौज -ए -सुलतानी ' को प्रकाशित कराया गया है। कल्याणी फाउंडेशन के लाएब्रेरियन पारस के मुताबिक़ मौज ए सुल्तानी की मूल प्रतियों में से एक राज परिवार के पास है। मुश्ताक अहमद भी इसकी तसदीक करते हैं। उनके अनुसार ये प्रति कुमार शुभेश्वर सिंह की लाएब्रेरी में उन्होंने देखी थी। वे दावा करते है कि इस प्रति में जुबैरुद्दीन का मूल हस्ताक्षर भी है। विलियम डलरिम्पल अपनी किताब में दारा बखत की बार - बार चर्चा करते हैं जबकि जुबैरुद्दीन पर वे मौन हैं। उधर लाला श्रीराम अपनी किताब 'खुम - खान ए - जाबेद ' में बहादुरशाह की वंशावली का जिक्र करते हैं। इस किताब में दावा किया गया है कि जुबैरुद्दीन ही बहादुरशाह के वारिश थे। असल में बहादुरशाह के सबसे बड़े बेटे दारा बख्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे। लेकिन सिपाही विद्रोह के बाद सब कुछ बदल गया। बहादुरशाह के पांच बेटों को अंग्रेजों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के निकट बेरहमी से मार दिया। स्व महाराजाधीराज लक्ष्मीश्वर सिंह ने काजी मुहल्ला में उनके लिए घर बनवा दिया। काजी मोहल्ला ही आज का कटहल वाड़ी है। जुबैर के लिए मस्जिद भी बना दी गई। लेकिन बदकिस्मती ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जुबैरुद्दीन के दो बेटों की मौत हैजा से हो गई। ये साल 1902 की बात है। इसी साल ग़मगीन उनकी पत्नी भी दुनिया छोड़ गई। जुबैरुद्दीन का इंतकाल 1910 में हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिग्घी लेक के किनारे किया गया। राज परिवार की तरफ से 1914 में उस जगह पर एक मजार बनबाया गया। रेड सैंड स्टोन से बना ये मजार जर्जर हालत में है। दीवार में लगे खूबसूरत झरोखे कई जगह से टूट गए हैं। मजार के अन्दर कंटीले घास उग आए हैं। इसके अन्दर जाने वाली सीढ़ी खस्ताहाल है। दरवाजे पर बना आर्क भी दरकने लगा है। मजार के केयरटेकर उस्मान को इस बात का अंदाजा नहीं है कि ये मजार मुगलों के अंतिम वारिश की है। ... अगली वार विलियम डलरिंपल भारत आएं तो दरभंगा के संस्कृति प्रेम पर अट्टहास करते इस मजार को जरूर देखें।
( फेसबुक पर कुमुद सिंह की टिप्पणी )

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

समस्तीपुर डायरी (Samastipur dayri)

रेलवे स्‍टेशन था। इस धरोहर को जनता के लिए बचा कर रखना चाहिए था। एक ओर जहां पैलेस आन व्‍हील गायब कर दिया गया, वहीं इस स्‍टेशन को भी नष्‍ट करने में भगवान जगन्‍नाथ ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अगर यह धरोहरों बचा कर रखा जाता तो आज अन्‍य पैलेस आन व्‍हील की तरह तिरहुत का भी अपना शाही ट्रेन होता। वहीं मिथिला विश्‍वविद्यालय विश्‍व का इकलौता विश्‍वविद्यालय होता जिसके परिसर में रेलवे टर्मिनल होता। बनारस और जेएनयू में जब बस टर्मिनल देखने को मिला जो यह स्‍टेशन याद आ गया। अब बात बरौनी में रखे गये पैलेस आन व्‍हील की करू तो 1975 में उसे आग के हवाले कर दिया गया। कहा जाता है कि उसे जलाने से पहले उसके कीमती सामनों को लूटा गया। खैर तिरहुत रेलवे का इतिहास हम बताते रहेंगे...अभी आप इतना ही समझ लें तो काफी है कि तिरहुत में बिछी 70 फीसदी पटरी तिरहुत रेलवे के दौरान ही बिछायी गयी थी। आजाद भारत में महज 30 फीसदी का विस्‍तार हुआ है। आप अगर इन तसवीरों का प्रयोग करें तो श्री हेतुकर झा, प्रबंधन न्‍यासी, महाराजा कामेश्‍वर सिंह फाउंडेश को साभार देना मत भूलें, उनकी वजह से बहुत कुछ आज हम और आप देख और पढ रहे हैं। 
(फेसबुक पर कुमुद सिंह की टिपण्णी)

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

दरभंगा डायरी - 3 (Darbhanga dayri - 3)

उन्‍नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मिथिला में विवाह के बाद महिलाओं
 की स्थिति में हो रहे ह्रास की चिन्‍ता समाज में व्‍याप्‍त थी। बंगाल की कुलीन विवाह व्‍यवस्‍था का कुप्रभाव मिथिला पर कम से कम पड़े इसके लिए उपाय ढूंढने थे। समाज में जो व्‍यवस्‍था प्रचलित थी, उसमें ही और सुधार करना श्रेयस्‍कर माना गया। 1876 में दरभंगा में समिति गठन होने के बाद मधुबनी के एस.डी.ओ. ग्रियर्सन, आरा के पियारे लाल और दरभंगा महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह सौराठ सभा का भ्रमण किए। महाराजा ने अपनी ओर से इस सभा स्‍थल के विकास के लिए निधि का आवंटन भी किया। इसके पीछे उद्देश्‍य था कि जब समाज के लोगों के समक्ष, बिलकुल खुले ढंग से, शादी की बात तय होगी तो इसमें भ्रष्‍टाचार की कम से कम गुंजाइश रहेगी। सौराठ सभा गाछी में प्रत्‍येक मूल या गांव के लोगों के लिए अलग-अलग वासा बनाया गया जहां लड़का पक्ष के लोग अपने वर को लेकर सभा गाछी पहुंचते थे। लड़की वालों का अलग वासा होता था। दोनों के बीच में समन्‍वय कराने की जिम्‍मेदारी 'घटक' की होती थी और अंतिम निर्णय 'पंजीकार' का होता था जो अपनी पंजी के आधार पर, तार के पत्ते पर अश्‍वजन लिखकर देता था कि लड़का और लड़की के बीच, पिता के संबंधों के आधार पर सात पीढ़ी और मॉं के संबंधों के आधार पर पांच पीढ़ी तक कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। विवाह की बात तय होने के बाद शादी के रस्‍म के बारे में विमर्श होता था। मिथिला में इस परिपाटी को बढ़ावा देने के लिए अन्‍य 14 गांवों को चिन्हित किया गया और वहां पर भी सभा की स्‍थापना की गई। इन गांवों में सौराठ, कर्णगढ़ी, परतापुर, शिवहर
, गोविन्‍दपुर, फत्तेपुर, सझौल, सुखसैना, अखराही, हेमनगर, बलुआ, बरौली, समौल, सहसौला हैं। इसके अतिरिक्‍त पूर्णिया जिला में भी कई

 स्‍थानों पर सभा गाछी लगने का संदर्भ मिल रहा है। सौराठ में सभा लगने की परंपरा कायम रही जबकि बाकी गांवों में धीरे-धीरे यह परंपरा समाप्‍त हो गई। सौराठ गांव में आरंभ में पंजिकार के पांच परिवार रहते थे। नीति निर्माताओं का मूल उद्देश्‍य था कि अधिक से अधिक लड़कियों की शादी कम से कम खर्च में हो जाए ताकि सामाजिक रूप से महिलाओं की स्थिति
 में सुधार हो। इधर, लड़की की मॉं अपने पति/परिवार के लोगों को सभा गाछी भेजती थी और अपने घर में चुड़ा-दही का इंतजाम करके रखती थी। पता नहीं, किस दिन सभा गाछी से 'वर' लेकर उनके पतिदेव आ पहुंचे। बहुत ही सादगी से, परन्‍तु वैदिक मंत्र के साथ विवाह की रस्‍म संपन्‍न होती थी। जो विस्‍तार करना हो, कोजागरा में होता था। उस दिन सभी सगे-सम्‍बन्धियों को आमंत्रण दिया जाता था। नटुआ-गवैया आदि का भी
 इंतजाम होता था। भोज वगैरह भी होता था। लेकिन घटक, पंजिकार और दहेज व्‍यवस्‍था ने सौराठ सभा की सारी व्‍यवस्‍था को अपने ढंग से 'नियंत्रित' कर लिया। अब यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है कि सभा गाछी में
 बिना दहेज की शादी तय होती है। जब मिथिला में दहेज व्‍यवस्‍था रहेगी तो फिर बिकौआ विवाह, बाल विवाह, बेमेल विवाह या बहु विवाह किसी न किसी स्‍वरूप में कैसे नहीं रहेगी। हॉं, समय के साथ इसमें परिवर्तन तो होता ही है।
(फेसबुक पर दर्ज भैरव लाल दास की टिपण्णी )

रविवार, 16 अगस्त 2015

सिवान डायरी-1 (Siwan dayri-1)

सिवान मे एक प्रखंड है पंचरुखी जंहाँ एक गाँव है  पपौर . आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व यहाँ अमेरिका से इतिहास के छात्रों का एक अध्ययन दल आया था. ये अपने अध्ययन-यात्रा में भगवान बुद्ध के निर्वाण से जुड़े स्थलों कि तलाश कर रहे थे . इस दल को पपौर में कुशेश्वर नाथ तिवारी से भेंट हुई, जो उन दिनों एक विद्यार्थी थे . कुशेश्वर जी को जानकर आश्चर्य हुआ कि भगवान बुद्ध ने आपना अंतिम भोजन उन्ही के गाँव में चुंद स्वर्णकार के घर खाया था, जिसके बाद उनका परिनिर्वाण हुआ .
   अपने गाँव के इतिहास को जानने  के लिए उन्होंने बुद्ध से जुडी कई पुस्तकों का अध्ययन किया . इन पुस्तकों मे के० पी० जायसवाल शोध संस्थान के के पूर्व निदेशक डा० जगदीश्वर पाण्डेय की पुस्तक ‘’Footprints of budha’’ भी थी . इस पुस्तक में प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है कि पपौर ग्राम में भोजन ग्रहण करने के  सिवान मे दाहा नदी के तट पर ही भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था. कुशीनगर के मल्ल राजाओं को इसकी सूचना मिली तो वे सोने के शवयान मे विशेष औषधिय द्रव से उपचारित कर उनके शव को कुशीनगर ले गये . कहा जाता है कि इसी करण इस स्थान का नाम सिवान पड़ा .
       इसके बाद कुशेश्वरनाथ तिवारी एक योधा कि तरह अपने गाँव के एतिहासिक पहचान को स्थापित करने के लिए इतिहास से जुड़े सभी शोध संस्थान , बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय ,  भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कार्यालयों का चक्कर लगाने लगे . कई बार जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कार्यालय दिल्ली जाने के क्रम में रेल में आरक्षित टिकट नहीं मिला तो साधरण डब्बे मे खड़ा रहकर  सिवान से दिल्ली तक की यात्रा की. अंततः उनका बीस वर्षों का परिश्रम सफल रहा . ३१ जुलाई १५’ से पपौर में  भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के देख-रेख मे खुदाई का कार्य चल रहा है. एन० बी० पी० डव्लू० एवं भगवान बुद्ध के काल के कई  पुरातात्विक साक्ष्य मिलने की सूचना है.

         पुरातात्विक विरासत के संरक्षण के लिए हमें प्रत्येक पंचयात और कस्बे में हमें एसे योध्या की जरूरत है.

सोमवार, 20 जुलाई 2015

जहानाबाद (काको) : डायरी (Jehanabad /Jahanabad : Kako - dayri)

अहमद शम्सी बिहार के पहले मुस्लिम आई० पी० एस० अफसर थे. शम्सी साहब ने १९३३ में आई० पी० एस० की परीक्षा पास की .  अपने मेहनत और लगन  के बल पर गवर्नर-जेनरल लार्ड  लिंग्लिथ्गो एवं लार्ड वैवल के मुख्य सुरक्षा अधिकारी के रूप में कार्य किया . १९४५ में शिमला कांफ्रेंस के अगले ही दिन उनकी तबियत बिगड़ी ; वंहा से दिल्ली लाया गया जंहा उनका इंतकाल हो गया.
                                         शम्सी साहब मूलतः काको के ही हैं. अलीगढ़ विश्वविद्यालय से पढ़े उनके एकलौते पुत्र काको में ही रहते हैं. इनकी आयु लगभग अस्सी वर्ष है. पुराने दिनों को याद कर भावुक हो उठते हैं. इनका जन्म वायसराय-आवास (वर्तमान राष्ट्रपति-भवन ) में हुआ था. उनसे मुलाकत हुई तो उन्होंने बताया . उन्होंने यह भी  बताया की शिमला में उनकी एक एक  बड़ा बंगला था जो बिक गया , शायद लाल कोठी नाम बताया था. इस हवेलीनुमा कोठी में कई मशहूर फिल्मों की शूटिंग भी हुई है.
लतीफ शम्सी अच्छे शायर है. अंजुम काकवी तखल्लुस से मुशायरों में प्रसिद्ध है. साठ के दशक में उन्होंने अलीगढ़ के मुशायरे में जब यह शेर पढ़ा -
ये तो मुमकिन है की तामीर न होने पाये ;
वरना हर जेहन में एक ताजमहल होता है .
तो जिगर मुरादाबादी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया. आजकल काको पर केन्द्रित उर्दू में एक संस्मरणात्मक पुस्तक पर काम कर है, जिसकी पाण्डुलिपि उन्होंने मुझे दिखाई.

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

शिक्षक डायरी (teacher's dayri)

सुधांशु शेखर की टिपण्णी 

इन दिनों शिक्षकों के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ जाने के कारण घर में रोज़ घमासान होता है......!
कुछ साल पहले की बात है.....
सरकारी तंत्र द्वारा मुझे विद्यालय निरीक्षण करने भेजा गया ! 
विद्यालय पहुँचते हीं पाया कि दस में से आठ शिक्षक बिना अवकाश लिए ग़ायब थे । मैंने ग़ुस्से में उनके वेतन बंद करने का आदेश दिया ।
शिक्षक भी आख़िर शिक्षक होते है.......!
अपनी व्यथा को लेकर मेरे गाँव जाकर पिता से मिले....!
मेरे पूज्य पिता, जो सरकारी विद्यालय में गुरूजी थे, ने ग़ुस्से में दूरभाष पर कहा----
अरे मूर्ख ! तुमने गुरूजी का वेतन बंद कर दिया ? गुरू तो ब्रह्मा-विष्णु से भी बड़े होते है । मुझे अफ़सोस है कि मैंने तुझ जैसे नालायक को जन्म दिया !
इसके बाद गुरू के प्रति आई श्रद्धा के कारण मेरे जाँच रिपोर्ट पर कई बार मेरा वेतन बंद हो चुका है !
और पत्नी भी विद्रोह कर चुकी है...........!

मंगलवार, 16 जून 2015

सीतामढ़ी डायरी (Sitamarhi dayri)

सीतामढ़ी मै कभी नहीं गया, न ही मुझे जानने वाला वंहा कोई है. प्रभात रंजन की कहानियों के माध्यम से मै इसे अपने आस-पास महसूस करता हूँ.एक  कस्बाई शहर को केंद्र मे रखकर शायद ही किसी हिंदी साहित्यकार ने इतनी कहानियाँ लिखी  हों. कुछ उनकी कहानियाँ जो मैंने पढ़ी है
जनकीपुल
फ्रांसिस रेड वाइन
मीस लिली
कहानी बंडा भगत की अथ कथा ढेलमरवा गोंसाई 
                
अंतिम तो अदभुत है. मैं यह नहीं जनता कि प्रभात रंजन सीतामढ़ी के है अथवा नहीं , पर मजेदार कथावाचक हैं. हिंदी कहानी से धीरे-धीरे कहानीपन गायब हो रहा है. इनकी कहानियों मे इसकी वापसी का एहसास होता है. इनकी कहनियों कि पृष्ठभूमि में उत्तर बिहार के अन्य शहर यथा  भागलपुर, मुजफ्फरपुर,दरभंगा  ही रहते हैं. 
                                                                                  रेणु के बाद छोटे शहर-कस्बों  को केंद्र में रखकर अधिक रचनाये करने से साहित्यकार परहेज करते रहे, उन्हें भय था कि हिंदी  साहित्य के माफिया आलोचकों द्वारा आंचलिकता का मुहर लगाकर दरकिनार कर दिया जायेगा. रेणु के  मैला आँचल की  पाण्डुलिपि लम्बे अरसे तक उस दौर के एक नामचीन कवि  के पास पड़ी रही जो उन दिनों पूर्णिया कालेज में हिंदी के शिक्षक थे. रेणु ने यह उन्हें पढ़ने के लिये दिया था, कई महीने टहलाने के बाद इसे  कूड़ा कहकर लौटा दिया . इसके बाद इसके प्रकाशन मे बड़ी कठिनाईयां आई  , इस उपन्यास ने लोकप्रियता का अपना  एक इतिहास बनाया पर आलोचक इसे पचा न सके और इस उपन्यास को आँचलिक कह  हिंदी साहित्य में एक नयी श्रेणी बना इसे दरकिनार कर दिया. 
                                                     इस परिदृश्य में प्रभात जी का दु:साहस सराहनीय है. इतना ही नहीं उन्होंने  अपने  नए कहानी संकलन के मुखपृष्ठ पर अंकित किया है की इसमें मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की कहानीयाँ है. हमें इस संकलन का इंतजार है. 


मंगलवार, 9 जून 2015

जहनाबाद डायरी :2 (Jehanabad / Jahanabad dayri)

संतोष श्रीवास्तव की डायरी
संतोष जी की ‘जहानाबाद-अरवल डायरी’ जहानाबाद शहर का पर्याय है. वे अपने माता-पिता कि स्मृति में इस डायरी को प्रकाशित करते है.
                जब मै पहली बार इस शहर में आया तो मैं इस डायरी कि मदद से कुछ ही मिनटों में  शहर के बारे में काफी कुछ जान गया . इसमें जहनाबाद का सक्षिप्त परिचय है. स्वतंत्रता-पूर्व, उसके बाद तथा वर्तमान युग में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं कि सम्पूर्ण सूचि है. वर्तमान साहित्यिक संस्थओं का संक्षिप्त विवरण है. प्रारम्भ से लेकर अब तक के विधायक-सांसद , नगर-परिषद जिला-परिषद अध्यक्ष , डी० एम० ,एस० पी० , डी० जे०  की सूचि है.
       इस डायरी में जिले के सभी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को अलग-अलग सूचीबद्ध कर उनका सम्पर्क नम्बर दिया गया है. जैसे डॉक्टर, साहित्यकार, कलाकार, धर्माचार्य, इमाम, अधिवक्ता, व्यवसाकर्मचारीयिक, मिस्त्री, टेंट-हाउस सरकारी पदाधिकारी-कर्मचारी, मुखिया, अख़बार, पत्रकार , अस्पताल, गैस-एजेंसी’ पत्रकार इत्यादि. यह इस शहर के बुद्धिजीिवयों का पीला-पन्ना है.
     यह डायरी इस शहर में रहने वालों की आवश्यकता है, प्राय सभी प्रबुद्धजनों के पास यह हैं. श्री श्रीवास्तव ने इसका कोई मूल्य नहीं रखा है, अपने खर्चे पर प्रकाशित कराकर लोगों में बांटते है.

           भविष्य में जब कभी क्षेत्रिय इतिहास लिखने कि परम्परा विकसित होती है तो यह डायरी जहानाबाद के संदर्भ में महत्वपूर्ण स्त्रोत- सामग्री होगी. मैं बिहार झारखण्ड के आठ-दस शहरों में रह चुका हूँ पर यह परम्परा मैंने कंही नहीं देखी है. वह भी व्यक्तिगत प्रयास से. इस ६’ गुणे ४’ गुणे १/२’ इंच की डायरी मे पूरा अरवल जहानाबाद सिमटा है.  

शनिवार, 6 जून 2015

पूर्णिया डायरी : 3 (Purnea dayri-3)

''दुनिया सब बौरी होक, घर-घर बाघिन पोसे''
चन्द्रकिशोर जायसवाल जी की आठ वर्ष पूर्व प्रकाशित कहानी 'बाघिन की सवारी '  एक वैविध्य्पूर्ण रोचक कहानी है.
इसका पूर्वार्द्ध तो अदभुत है. आध्यात्मिक झुकाव के बाद एक व्यक्ति के साधु बनने और समाज में  वापस लौटने की कहानी है. उतरार्ध भी कम रोचक नहीं है . इसमें पंचायती राज व्यवस्था से उत्पन परिस्थितियों के बाद सामाजिक ताने-बाने में बदलाब कि भी कहानी है. यह जायसवाल जी कि पैनी दृष्टि और गहन शोध का परिणाम है.
बीस साल बाद हरिलाल जब साधु चरणदास  बनकर लौटता है तो उसका बाल-सखा रामबदन उससे घर बसाने की बात करता है तो चरणदास कहता है
         '  दिन का मोहिनी रात कि बाघिन 
            पलक पलक लहू चूसे 
            दुनिया सब बौरी होक 
            घर-घर बाघिन पोसे  '
तब रामबदन गुस्से में कहता है कि 'हम सब बाघिन पोसे हुए है.'
हरिलाल समझता है कि यह साधु के लिए है. साधु समाज का आदर्श बताते हुए कहता है
          नारी निरखि न देखिये
          निरखि न कीजे दौर
          देखे ही ते बीस चढ़े
          मन आवे कछु और 
          नयनों काजर लाईके 
          गाढे बांधे केश 
          हाथ मेहँदी लाईके 
          बाघिन खाया देश 
यह जानना रोचक है की साधु समाज के उक्त  आदर्श का पालन करने वाले चरणदास किन परिस्थितियों में बाघिन की सवारी का निर्णय लेते है.
         जायसवाल जी ने इस कहानी के माध्यम से पाठकों को मठ, आश्रम और आखाड़ो कि दुनिया की यात्रा भी कराते है. नब्बे के दशक के बाद के कथाकारों के लिए यह लगभग अछूता विषय है. समालोचको द्वरा अच्छी कहनी की कई विशेषतायें निर्धारित  की गयी  है, पर मेरे दृष्टीकोण से अच्छी कहानी वह है, जो पाठकों को वर्षो याद रहे . यह कहानी आठ वर्षों बाद मुझे अभी भी याद है.
                            श्री चन्द्रकिशोर जायसवाल जी पूर्णिया के ही है, उनकी यह कहानी 'बया' के जून २००७ अंक में छपी थी. 
          

गुरुवार, 4 जून 2015

दरभंगा डायरी-2 (Darbhanga dayri)

हेलबरी कॉलेज कि स्थापना १८०६ ई० में लन्दन से बारह  मील उत्तर हेटफोर्ट के निकट हुई  थी. इसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी मे नियुक्त होने वाले सिविल सर्वेन्ट्स के लिए हुई थी. १८०६ से १८५७ तक कई मशहूर प्रसाशकों  ने यंहा प्रशिक्षण लिया. इस प्रथम आई. सी. एस  प्रशिक्षण संस्थान में माल्थस और सर जेम्स स्टीफेंस जैसे शिक्षक थे.
                    सेठ गुलाम हैदर फारसी के विद्वान थे. इन्हें जब इस कॉलेज के बारे मे जानकारी हुई तो १८०६ ई० मे लन्दन पँहुचे . यह वह दौर था जब इंग्लैंड में पर्सियन शिक्षक की माँग थी. भारत आने वाले उत्साही सैनिक व्यापारी के लिए पर्सियन भाषा का ज्ञान एक आवश्यक शर्त थी. पर्सियन जानने और न जानने वालों में वेतन का भी अंतर था. यदि वे इंग्लैंड से पर्सियन सीखकर नहीं आते तो उन्हें भारतीय मुंशी से ट्यूशन लेनी पड़ती थी इसके लिए उन्हें ट्यूशन भत्ता मिलता था.
                                      सेठ गुलाम हैदर ने लन्दन पंहुचकर    हेलबरी कॉलेज में पर्सियन राइटर मास्टर के लिए आवेदन दिया . इन्हें २०० पौंड सालाना वेतन  पर यंहा  शिक्षक नियुक्त कर लिया गया.


( गुलाम हैदर साहब का दुर्लभ रेखाचित्र )
 इस कॉलेज के प्रथम भारतीय शिक्षक होने का गौरव  सेठ गुलाम हैदर को है . शायद ही दरभंगा मे कोई यह जनता होगा कि  सेठ गुलाम हैदर दरभंगा के थे. 

सोमवार, 1 जून 2015

पूर्णिया डायरी -2 (Purnea dayri- 2)

दक्षिण भारत का एक युवक रोजगार की तलाश में किसी कारवाँ के साथ भटकता हुआ उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में सत्तर के दशक में आया.
   इंडो-चीन सीमा तनाव से उत्पन्न परिस्थितियों के करण यंहा सामरिक महत्व के बड़े संस्थान का निर्माण किया जा रहा . उसे वंहा निर्माणाधीन संस्स्थान के केंटिन में भोजन सामग्री आपूर्ति का काम मिला . आवश्यकता अनुसार सभी सामग्रियों को जुटाकर आपूर्ति करना इस सीमावर्ती शहर में कठिन काम था. सभी सामग्रियां तो मिल जाती पर माँग के अनुरूप केला इस शहर मे नहीं मिलता . दूर के दूसरे शहर से लाकर यंहा आपूर्ति करना घाटे का सौदा था.
  उस दक्षिण भारतीय युवक ने कुछ स्थानिय किसानों से बात कर उन्हें केले की खेती करने को प्रोत्साहित किया और उनसे पूरी उपज खरीद लेने का आश्वाशन भी दिया. एकाद किसान ने उसकी बात मान  ली .युवक ने उन्नत नस्ल के पौधे उपलब्ध कराने में भी उनकी मदद की. किसान को सौदा लाभ का लगने लगा . कई किसान देखा-देखी केले की फसल लगाने लगे.
संस्थन का निर्माण काम पूरा हो गया. अब उस दक्षिण भरतीय युवक के लिए वंहा कोई रोजगार नहीं रहा. इस दौरान उसके संबंध कई किसानों से हो गये , उनमे से कुछ पढ़े – लिखे थे. युवक ने उसी शहर में एक नर्सरी खोल ली. केले के उन्नत नस्ल के पौधे और आवश्यक सहयोग और प्रेरणा किसानों को देते रहे. केले कि खेती का इस क्षेत्र में व्यापक प्रसार हुआ. सदियों पुरानी खेती की पद्धति बदल गई . इसका श्रेय उस दक्षिण भरतीय युवक को ही जाता है.
स्वप्रेरणा से इस क्षेत्र में केले की खेती होते देख सरकार और कृषि शोध संस्थनों कि भी अभिरुचि इसमें जगी, उन्होंने भी आगे बढ़कर सहयोग किया. केले के उत्पादन केंद्र में विकसित होने के कारण व्यापारी सीधे किसानों को अग्रिम दे सौदा करने लगे. इस क्षेत्र में केले कि खेती का क्षेत्रफल उतरोतर बढ़ता गया.
 वह दक्षिण भरतीय युवक नर्सरी का संचालन करते हुए वृद्ध हो गये. वे इसी शहर में बस गये. सम्भवतः इस शहर का एकमात्र दक्षिण भरतीय परिवार. इनकी नर्सरी इतनी व्यवस्थित थी कि प्रदेश के राजभवन, मुख्यमंत्री-आवास और सचिवालय मे यंहा से पौधे मंगाए जाते थे.
कालान्तर में उस वृद्ध दक्षिण भारतीय कि मृत्यु हो गयी. अब उनके पुत्र और पुत्रवधु उस नर्सरी का  संचालन करते हैं.
जी हाँ यह एक पहेली जैसी कहानी है पर सच्ची है. उस दक्षिण भारतीय युवक का नाम तो मुझे अब याद नहीं है, पर वह उत्तर भरतीय शहर पूर्णिया है और वंहा स्थापित नर्सरी का नाम ग्रो मोर नर्सरी है. संस्थान जो वहाँ निर्माणाधीन था, वह चुनापूर वायुसेना का बेसकैम्प और हवाई-अड्डा था .

शनिवार, 23 मई 2015

नालंदा डायरी : (तेल्हारा) (Nalanda dayri - telhara)

posted by obaidur rahman on his fb page

Telhara Birth place of Dr. Kaleem Aajiz 
Telhara is a small village in the Hilsa subdivision of the Nalanda Dist. in Bihar. It is about 29 K.m. west of Nalanda, the Dist. headquarter. This place was visited by the Chinese traveller, Heun Tsang in the 7th Century AD., and it was mentioned as Teleadaka in his account. In course of excavation at the site a good number of Pala sculpture have been discovered including both Buddhist & Hindu deities. The site, under Turkish ruler became an important settlement of Muslims during medieval period. This place is also mentioned in the Ain-i-Akbari as Tiladah and is shown as one of the 46 mahals of Sarkar Bihar. In the survey map prepared by the company administration in 1842-45 the Telahara had been mentioned as Pargana. Buchanan mentioned this village as an important estate of Bihar. There is a mosque towards the eastern side of the mound, It is said that the mosque was built with the materials carried from the ruins of the Buddhist monastry. It is mentioned that Bakhtiyar
Khilji during his conquest of Odantapuri moved south from Maner towards Tiladah. i.e. Telahara (The account in Minhaj's Tabqat-i-Nasiri). It is very possible that Bakhtiyar camped at Telhara before conquering Odantapuri. Adjacent to the mosque (Sangi Masjid) there is a huge mound measuring
about 200m x 100m which might be a monastery site. About 10 K.m. south of Telahara is a village called Ongar, in which there isa splendid tank called the Suraj Pokhar. To the north of this tank, there is a temple containing an images of Surya and Buddhist figure. About 4 k.m. of Ongari, there remains of large village called Biswak & Biswa. Like Telhara,
this place is also mentioned as a pargana, which according to the Ain-i-Akbar, once contained 35,318 bighas, which stretches away as far as east bank of the Panchana. There are two enormous tanks to the east of the village, and two mud forts of considerable size and antiquity. Remains of Buddhist vihara is remarkable. Islampur is another important site south-west of Telahara, from here also remains of another vihara has been reported. Another site Icchos about 25 kms./South-West of Islampur was an important Buddhist sites. A huge mound marking the site of temple or vihara is reported at Mubarakpur South-West of
Icchos. Near this ruins, is a village known as Afzalpur Sarunda covered with mud fortification and also a large tank from where several Buddhist figures were found. Telhara or Teladhaka was one of the monastic establishments most extensively describe by Heun-Tsang, who visited India in the the 7th Century A.D. A large number of stone sculptures were
noticed by Broadley from Telahara. The famous Maitreya and twelve armed Avalokiteswar image are at present displayed in the Indian Museum Kolkata. Perhaps the best known Pala sculpture from
Telhara is now in Rietbarg Muzeum. Zurich. Even today, many Buddhist as well as Hindu sculptures are found in the village Telhara.
Telhara monastic site was first mentioned in 1872 by A M Broadley, the then Magistrate of Nalanda and letter on 1875-78 by Alexander Cunningham. The excavation work on nearly 35' high Bulandi mound at Telhara by a team of archaeologists of state Govt. unearthed the evidence of three-storeyed structural remains, as mentioned by Huen T sang in his travel account. Evidence of prayer hall and residential cells for monks in the Monastery, have been found in course of the recent diggings. The recent excavation work at the site was started in December 2009. Evidence of ancient monastic structure has been discovered at the site within a short period of excavation. The excavation has yielded a good number of antiquities besides heavy structural remains as stated above. A fairly good number of pottery and images belonging to Gupta age to later Pal period have been found. Digging have also revealed a 34 meter long floor lined by a number of cells. The large floor is dotted with a number of platforms with images of Buddha installed on them. A -4' high blue basalt image of Buddha in Abhay Mudra another in Dharma Chakra Mudra and miniature images like Hariti, Manjushri etc. have also been found on the floor. It appears to be a prayer hall, mentioned
by the Chinease traveller. A stone plaque with 8 lines inscriptions in Proto-Nagari and a black colour terracotta seal have also have been found on this floor. Another brick paved floor with a wall almost 12' in height has been discovered below this prayer hall in eastern side. Above this floor a well was found in which some broken images of Buddha have been discovered. On the northern side of the mound two brick cells have been unearthed with paved floor. After cutting the floor, a 4.25 mt. sand deposit was noticed after that an exciting discovery was made by findings of N.B.P. Black & Red ware. Another striking feature of the site is that lot of inscriptions in Proto-nagri script were also found on potteries.
A small images of Buddha in red sand stone reveals that this monastery was in existence during Gupta period. In course of further excavation at the site we have come across with Gupta Age monastery. Nearly 60 mt. long brick wall of the monastry structure has been found at the depth of 8 mt. Below this wall another structure remains running in north-south direction has been encountered.
A large number of antiquities, including the basalt image of Yamantak, with seven faces and a stone figurine of Marichi have been found. A unique piece of Terracotta seals with inscription having the symbol of Chakra flanked by deer have been found indicative of monastic seals, besides this more seals with inscriptions, on top of which are the symbol of bull & lions are found. After decipherable of the seals, the date regarding monastery remains can be determined with exact chronology of the site. However, during the course of current excavation some copper coins have also been encountered.

गुरुवार, 21 मई 2015

औरंगाबाद डायरी (Aurangabad dayri)

शब्द के चितेरे’ मिथिलेश मधुकर द्वारा सम्पादित पुस्तक है. यह औरंगाबाद जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्वाधान मे वर्ष २००५ में प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक  साहित्य के इतिहास और उसके विकास के लिए महत्वपूर्ण अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराती हैं. इसमें औरंगाबाद जिला प्रक्षेत्र के बीसवीं शताब्दी के साहित्यकारों का वर्णन है, इसके साथ कुछ साहित्यकारों के रचना का भी अंश भी है. इस में जिले के एक सौ पच्चिस साहित्यकारों का विवरण हैं. इस तरह के पुस्तक के प्रकाशन मे आर्थिक कठिनाई आती है. इस पुस्तक के प्रकाशन मे भी अमिताभ सिंह के विशेष आर्थिक सहयोग का उल्लेख है .
     औरंगाबाद मगध का उर्वर साहित्यिक क्षेत्र रहा है. कामता प्रसाद काम इसी जिले से थे. उनकी स्मृति में स्थापित ‘कामता सेवा केंद्र’ कभी देश भर के साहित्यकारों के मिलन का प्रमुख केंद्र था, जंहा उनकी पुण्य तिथि पर नियमित रूप से साहित्यिक आयोजन होते है.
  'शब्द के चितेरे' जैसा प्रयास अन्य जिलों मे भी होना चहिए. आज साहित्य,कला,समाजसेवा,राजनीति, इत्यादि क्षेत्रों में स्थनीय नायकों के पहचान का संकट गहराता जा रहा है. उनके अच्छे कामों को उनके जीवन काल के बाद विस्मृत कर दिया जाता है. प्रत्येक जिलों में इस तरह के नायकों के कृतियों को अभिलिखित किया जाना आवश्यक है.   

शनिवार, 16 मई 2015

दरभंगा डायरी ( Darbhnga dayri)


जब  भी लोग दरभंगा के बारे में विमर्श करते हैं, एकपक्षीय हो जाते हैं। राजा और जमींदार के बारे में इतिहासकारों ने जो छवि 'पेंट' की है, उसी का यह असर है। लेकिन इसकी बहुत बड़ी क्षति हुई है कि हम राजा के अच्‍छी चीजों से भी घृणा करने लगते हैं। न हम राजतंत्र के समर्थक हैं और न राजा द्वारा किए गए गलत कार्यों का। लेकिन हम उनमें से नहीं हैं जो आंख मूंदकर इतिहास पढ़े। 1885 में बंगाल टेनेन्‍सी एक्‍ट पर जब चर्चा हो रही थी, दरभंगा महाराजा भी भाग ले रहे थे। पहली बार उन्‍होंने प्रस्‍ताव रखा कि जमीन का सेट्लमेंट उसके नाम कर दिया जाए जो जमीन जोतता है। तत्‍कालीन सरकार हिल गई थी उनके प्रस्‍ताव पर। नहीं माना गया उनका प्रस्‍ताव। सदन में संख्‍या बल की कमी थी। बंगाल टेनेन्‍सी एक्‍ट तो अंग्रेज सरकार ने पारित करवा लिया लेकिन वह भाषण आंदोलनकारियों के लिए गुरुमंत्र साबित हो गया। जो लोग बिहार के काश्‍तकारी आंदोलन को नजदीक से जानते हैं वे लोग भी स्‍वामी सहजानंद के किसान आंदोलन को ही बिहार में इसकी शुरूआत मानते हैं और बोधगया महंथ घटना पर आकर रुक जाते हैं। उन्‍हें राजा रामगढ़ और के.बी.सहाय एपिसोड में मसाला मिलता है। लेकिन किन्‍हें याद है महाराज दरभंगा का वह 'विजनरी' भाषण। के.बी.सहाय के जमींदारी उन्‍मूलन बिल और लैंड सिलिंग बिल के बाद ऐसा कौन सा मुख्‍यमंत्री बना जिन्‍होंने महाराज दरभंगा की बातों को याद रखा है। बिहार की जनता ने कई लोकप्रिय मुख्‍यमंत्री देखे हैं। उस श्रेणी में समाजवादी आंदोलन के मिथिलांचल के सपूत कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी आते हैं। आखिर क्‍या कारण है कि महाराज दरभंगा की दलील आज भी जनता की अदालत में अनिर्णीय है। 'क्रोमेटिक दरभंगा' में इस पर चर्चा नहीं हो तो क्‍या हो।
(भैरव लाल दास जी ने यह टिपण्णी अपने फेसबुक पर दर्ज कि है . जिसे यथावत रख रहा हूँ.)

गुरुवार, 14 मई 2015

पूर्णिया डायरी (Purnea dayri)

डा० फ्रांसिस बुकानन ने १८०९-१८१० में पूर्णिया का व्यापक और विस्तृत सर्वेक्षण किया था. उस समय पूर्णिया जिले का विस्तार दार्जलिंग, नेपाल भागलपुर और कोशी की सीमओं तक था. बुकानन ने सम्पूर्ण क्षेत्र का भ्रमण टमटम , इक्का, पालकी, हाथी और पैदल तय किया था. आश्चर्यजनक रूप से इतने कम समय में यंहा  की भू-संपदा , सामजिक जीवन , व्यापर, कृषि , वन्य जीव जंतु एवं कई अन्य क्षेत्रों से सम्बंधित  आंकड़े एकत्रित किये जो इस्ट इंडिया कम्पनी के लिए उपयोगी थे . भारत के इतिहास में पहली बार आंकड़ो का इतना व्यापक और प्रमाणिक संकलन किया गया था. आंकड़ो का विश्लेषण कर वैज्ञानिक तरिके से किसी निष्कर्ष तक पंहुचने की परम्परा भी यंही से  शुरू होती दिखती है.
   बुकानन ने १८०७ से १८१४ तक बिहार  बंगाल और उत्तर-प्रदेश के कई जिलों का सर्वेक्षण किया. ये आज इतिहास का महत्वपूर्ण मौलिक स्त्रोत है. दुःख की बात यह है की कई जिलों का सर्वेक्षण प्रतिवेदन अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है. यह इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लन्दन में बंद है. गंगा नदी की मछलियों का सबसे व्यापक सर्वेक्षण भी बुकानन ने किया था.
  एक मित्र ने एक आलेख जो उनके जीवन पर था , मुझसे माँगा तो उनकी याद आ गई.

मंगलवार, 12 मई 2015

नवादा डायरी (nawada dayri)

                                    

आज से तीन-चार साल पहले मै निगम भरद्वाज से नवादा मे मिला था. निगम जी बौद्ध धर्म-दर्शन-इतिहास और पाली भाषा के विद्वान् है. विज्ञान मे स्नातक निगम यायावर किस्म के आदमी है. वायु सेना कि नौकरी छोड़कर इतिहास में रूचि के कारण नव नालंदा महाविहार से एम्०ए० किया. मगध विश्वविद्यालय से पी०एच०डी० किया. शोध का विषय था " बौद्ध साहित्य में वर्णित वनस्पतियों का महत्त्व ". निगम नवादा के ही हैं .
     अब तक इनकी चार शोधपरक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं . दो हिंदी में दो अंग्रेजी में.
१.प्राचिन भारतीय शिक्षण व्यवस्था 
२.नालंदा का पुरातात्विक वैभव 
3.symbols and iconography of tantric budhism : an introduction
4.the ancient indian medical science with special reference to pali litarature
                                                इसके अतिरिक्त बीसियों सेमिनार में पेपर प्रेजेंट किया. पचिसियों आलेख. कल ही उनसे फिर लम्बे अरसे बाद मुलाकात हुई . कुछ महीनो.से वे प्राचिन लिपियों को समझने के लिए मनोहर पोथी जैसी वर्णमाला कि पुस्तक विकसित करने में लगे है. ब्राह्मी  लिपि कि मनोहर पोथी कि पाण्डुलिपि उन्होंने मुझे दिखाई. उनका दावा है कि कोई बच्चा भी इसे पढ़कर. अभिलेखों को सीधे पढ़ सकता है. पाण्डुलिपि देखकर मुझे उनका दावा सच लगा.
           उच्च शिक्षण व्यवस्था मे निगम जी को कोई स्थाई जगह नहीं मिल सका है.
मुझे कॉलेज के दिनों में हिंदी कि कक्षा में एक शिक्षक की कही यह बात याद आ गई कि" हम एक एसी  व्यवस्था मे जी रहे है, जंहा हरगोविंद खुराना को  लैब असिस्टेंट और मुक्तिबोध को शिक्षक कि नौकरी नहीं मिलती."   

रविवार, 10 मई 2015

जहानाबाद डायरी ( jehanabad/jahanabad dayri)

जहानाबाद के मखदुमपुर प्रखंड से धरौअत  की ओर जाने वाली सड़क पर है, 'वाणी-वितान' . प्रो० हंस का निवास. गोपालगंज के कॉलेज से अवकाशप्राप्ति के बाद वे इसी जगह लौट आये. मगही व्याकरण पर प्रमाणिक ग्रन्थ के अलावा दर्जनों पुस्तकों की रचना उन्होंने की. जहानाबाद का जनसामान्य उन्हें नहीं जनता. भला हो संतोष श्रीवास्तव का जिनकी जहानाबाद डायरी से उनके बारे में सूचना मिली और मै लगभग छह माह पहले उनसे मिला.