शनिवार, 16 दिसंबर 2017

इस्लामपुर डायरी (islampur diary) - 2

इस्लामपुर का लाल किला जिसे दिल्ली दरबार के नाम से भी जाना जाता है। इसके निर्माण की तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है । इसकी स्थापत्य शैली अद्भुत है ऐसा लगता है कि स्थापत्य कला इतिहासकारों का ध्यान इस ओर अभी तक नहीं गया है ।
दिल्ली के लाल किले से प्रेरित होकर इस का निर्माण किए जाने की बात सही प्रतीत होती है .हो भी क्यों ना लाल किला मुगलिया दौर में सत्ता का केंद्र था जो मनसबदारों, क्षेत्रीय राजाओं, प्रांतिय सूबेदारों की  महत्वाकांक्षा का प्रेरणा स्रोत था 
इस्लामपुर का चौधरी खानदान भी इससे अछूता नहीं था । इसमें कोई संदेह नहीं कि किले का निर्माण सैनिकों के रहने उनके रखरखाव और दैनिक कवायदात के लिए किया गया था। इन सबसे ऊपर इस्लामपुर की सुरक्षा और लगान वसूली में मदद जिस पर यह राजसी ठाठ चल रहा था।
स्थाई बंदोबस्त के कुछ सालों बाद जमींदारों से पुलिस प्रशासन का अधिकार वापस ले लिया गया । उसके बाद इस किले की उपयोगिता घट गई । फीलवक्त यह किला इंडो-इस्लामिक, गोथिक , के साथ पुनर्जागरण (Renascence) स्थापत्य शैली के सामंजस्य का नमूना है।
किले का मुख्य द्वार पूरब की ओर है । यह एक विशाल प्रवेश द्वार है जो इंडो-इस्लामिक शैली में बना है ।मुख्य द्वार उत्तर और दक्षिण की तरफ दो भूजाओं की तरह लंबे बरामदे हैं ।
इससे जुड़े मेहराबदार दरवाजों वाले कमरे  हैं जो सैनिकों के लिए बने थे । किले की सुरक्षा के लिए छत के उत्तरी और दक्षिणी छोर पर बनाअष्टकोणिय गुंबदनुमा प्रहरी छतरी है ।
                
इसके निर्माण में बड़े पैमाने पर पक्की ईटों का प्रयोग किया गया था ।ईटो को जोड़ने के लिए सूर्खी-  चूने का मिश्रण(lime mortar) प्रयुक्त होता था। यह मिश्रण एडहेसिव मीडियम है। इसमें ईटों को जोड़ने के लिए सूर्खी-  चूने के अतिरिक्त गज-ऐ-सरीन (gipsum), सिरीस(tred glue) उरद दाल और सन(जूट)का प्रयोग किया जाता था। सभी का मिश्रण तैयार कर 21 दिनों तक छोड दिया जाता थातब इसका प्रयोग ईटों को जोड़ने के लिए गारे(mortar) के रुप में किया जाता था । इससे ईटों के ऊपर प्लास्टर और उन पर अलंकृत डिजाइन तैयार किया जाता था । 21 दिन से ज्यादां समय इसे सेट होने में लगता था। एक बार सेट होने के बाद यह पत्थर से भी अधिक मजबूत हो जाता था ।
इस किले के बाहरी दीवारों पर प्लास्टर नहीं है लेकिन अंदर की दीवारों पर प्लास्टर है।
किले के उत्तरी एवं दक्षिणी छोर पर दो अष्टकोणिय बुर्ज बने थे , इनमें से एक किले का उतरी भाग के ध्वस्त हो जाने के कारण अस्तित्व में नहीं है । यह बुर्ज पर्सियन स्थापत्य शैली में निर्मित है ।अष्टकोणिय बुर्ज मुगलकालीन शासकीय और धार्मिक भावनों की अपरिहार्य विशेषता हैं । सासाराम मैं निर्मित शेरशाह का मकबर भी इसी तरह का एक वृहताकार अष्टकोणिय गुंबद है ।
यह सोलह बलुआ पत्थरों के स्तंभ पर  ईंटों का अष्टकोणिय गुंबद है , जिसे संभवतः किले के सुरक्षा के प्रहरियों के लिए बनाया गया था ।
यहां से चारों ओर देखा जा सकता था ।16 स्तंभों के कारण इसकी संरचना ऐसी है कि नीचे से कोई कितना भी बड़ा निशानेबाज क्यों ना हो वह ऊपर खड़े सैनिक पर सही निशाना नहीं लगा सकता था। इसके उलट यदि ऊपर से नीचे निशाना  लगाया जाए तो वह कभी नहीं चुकता था।
इस किले के पश्चिमी ओर मुख्य दरवाजे से दक्षिण की त्रिकोणीय शिर्ष संरचना पर रोमन गोथिक शैली का प्रभाव देखा जा सकता है । इसका तिकोना शिखर और उसके आगे बने कॉलम गोथिक शैली में बने पटना कॉलेज के मुख्य प्रशासनिक भवन की याद दिलाता है जिसे अंग्रेज से पहले डचों ने अफीम भंडारण के लिए बनाया था । इस तरह की संरचना पुनर्जागरण काल के पूर्व रोम के साथ पूरे यूरोप के स्थापत्य की विशेषता रही है ।
मुख्य दरवाजे के दोनों ओर बने दो लंबे पिलर पुनर्जागरण कालीन स्थापत्य शैली कोः  प्रतिबिंबित करता है जो यूरोप में पुनर्जागरण के उपरांत इटली में विकसित हुआ। कालांतर में संपूर्ण विश्व के स्थापत्य पर अपना प्रभाव डाला । मुख्य द्वार के दोनों ओर इस तरह के कॉलम बनाए जाने की विशेषता इंडो- इस्लामिक स्थापत्य में नहीं बल्कि भवन के चारों कोनों पर ऊंची मिनार बना जाता  है ,जो इस किले में नहीं है । मुझे ऐसा लगता है कि इंडो-इस्लामिक गोथिक और पुनर्जागरण कालीन स्थापत्य शैली की विशेषताएं समेट इस्लामपुर किला बिहार का अकेला उदाहरण है। इस किले के गुमनाम शिल्पकारों को मेरा नमन ।