शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

पटना कॉलेज डायरी


(23 अक्टूबर 2018) 
कमलेश वर्मा हिंदी के ऐसोसिएट प्रोफेसर हैं सेवापुरी उत्तर प्रदेश में, हिंदी के प्रखर सेवक कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. सन् 1989 से उनसे मेरा परिचय है, जब हम दोनों ने पटना कॉलेज के इंटर में दाखिला लिया था.
ऐसा कम ही होता है कि इंटर (आज का प्लस टू) में कोई मानविकी (Humanities) विषय लेकर पढ़ाई करें .
मैं अपने परिवार में पिछली तीन-चार पिढ़ियों में पहला व्यक्ति था जिसने इंटर से ही मानविकीय विषय की पढ़ाई की.




कमलेश जी जैक्सन छात्रावास में गये मैं मिंटो में,  पटना कॉलेज की दाखिले की सूची में कमलेश जी का नाम शीर्ष पर था. कई छात्रों के साथ मैं भी आश्चर्य में था की 728 (कुल 900 में) नंबर लाकर इस लड़के ने साइंस कॉलेज में दाखिला क्यों नहीं लिया.
यही जिज्ञासा प्रारंभिक जुड़ाव का कारण बनी. उन दिनों मैट्रिक में 700 अंको का बैरियर तोड़ पाना एक चुनौती थी.
700 अर्थात 78% आजकल सी.बी.एस.ई की परीक्षा में 94% से कम नंबर आते मैंने किसी को नहीं सुना .मिंटो हॉस्टल में आकर पहली बार मुझे जाति-व्यवस्था के पद सोपान की जानकारी हुई. इससे पहले मैं जमशेदपुर में था, वहाँ मरे स्कूल में जाति का मतलब उड़ीया,तामिल,मद्रासी,बँगली,गुजराती,सरदार(पँजाबी),क्रिश्चन,इत्यादि था जहाँ मेरी जाति का मतलब बिहारी था. 
                                छात्रावास में बिहार के विभिन्न जिलों से छात्र आये थे जो ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे. यहीं मुझे ज्ञात हुआ कि जाति-व्यवस्था की संरचना में मैं कहाँ हूँ.
पर, कुछ अच्छी बातें भी हुई, सुभाष झा और अभय जैस अन्तेवासियों न मेरा परिचय मिथिला संस्कृति से कराया. सुभाष ने पहली बार मुझे एक मैथिलि गीत सुनाया
         "घर में बैठल हत सजनिया डिबिया बार-बार के,
         सीता बाट तकै छत पि के डिबिया बार-बार के,"
मैं इसे बार-बार सुनने की जिद करता पर, हर बार मुझे कोई नया मैथिलि गीत सुना जाता.
          कमलेश जी की दो चीजों का कायल मैं आज भी हूँ, पहली हस्तलिपि और दूसरी पुस्तकों को सहेज कर रखने की कला. उनकी सभी पुस्तकों पर सलीके से भूरे रंग की जिल्द लगी होती; उस पर सुंदर हैंडराइटिंग में पुस्तक लेखक और कमलेश वर्मा का नाम काले स्केच पेन से लिखा होता. अक्षर ऐसा मानो मोती रख दिए गए हो. जगन्नाथ गुप्ता भी पुस्तकों पर बड़ी अच्छी जिल्द लगाते थे "टाइम्स ऑफ इंडिया" का रविवारीय अंक के चिकने पन्ने पढ़ने से ज्यादा जिल्द लगाने के काम आता था.
उनके जिल्द लगाने के तरीके में अखबार का कोई भी हिस्सा व्यर्थ नहीं जाता था. 
         इंटर की परीक्षा के बाद पटना कॉलेज से दिल्ली की ओर जबरदस्त पलायन हुआ जिसमें सदन झा, विभांशु शेखर, आनंद गुप्ता, इमामुद्दीन अहमद ,अभय, आलोक शुक्ला, अलोक झा, अतुल, सुजीत चौधरी और कई सहपाठी  जिनका नाम  अब मुझे याद नहीं है बह गए. बच गया मैं, कमलेश वर्मा, प्रवीण, रंजन धिमल, अमर, जगन्नाथ गुप्ता, उमेश, ब्रजेश, सौमित्र , सुजीत घोष, प्रमेंद्र, अनुराधा,अश्विनी,नितेश और कई जिनका नाम अब स्मरण में नहीं है. 
     इनमें से कुछ मित्रों ने मिलकर "जिज्ञासा" का गठन किया "अ क्यूजिंग एंड डिबेटिंग सोसायटी" जिसका सदस्य मैं भी था. राजनीति विज्ञान विभाग का बड़ा हॉल हमारा अड्डा हुआ करता था. यहाँ सप्ताह में दो बैठकें होती जिसने हम सबों को धार दी. वही अरुण कमल वाली धार.
 "सब तो लिया उधार,
 सारा लोहा उन लोगों का
 अपनी केवल धार" 
बची-खुची शान कॉलेज के विद्वान शिक्षक इम्तियाज अहमद सर, आर० एन० नंदी सर, भारती संतोष कुमार मैडम, ओम प्रकाश सर, प्रशांत दत्ता सर ने चढ़ा दिया. 
     चूंकि बैठकें राजनीति विज्ञान विभाग के क्लास रूम में होती थी इसलिए राही सर को जिज्ञासा का संरक्षक बनाया गया था. 
                      मैंने इतिहास में और कमलेश जी ने हिंदी साहित्य में स्नातक की परीक्षा 'सम्मान' के साथ पास कर प्रतिष्ठा प्राप्त की. अन्य मित्रों ने भी अपने-अपने विषय में 'सम्मान' के साथ प्रतिष्ठा प्राप्त किया .कमलेश जी हिंदी की साधना में लग गए वे जे० एन0 यू ० चले गए और मैं नौकरी के तलाश की साधना में लग गया. कुछ मित्रों-सहपाठियों ने नौकरी की प्रतियोगिता परीक्षा देने के लिए संपूर्ण भारत की यात्रा की जिसे हम परीक्षाटन कहते थे .
                                                         कमलेश जी के साथ सौमित्र ,सुजीत और विभांशु शेखर जैसे कुछ सहपाठी भी जे० एन० यू० चले गए, इनसे मेरा पत्राचार होता रहता था .कुछ पत्र आज भी सुरक्षित है उस समय मुझे अहसास नहीं था कि, पत्र-युग  का होने वाला है. यह बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के उत्तरार्ध का काल था. हम 21वीं सदी के मुहाने पर खड़े थे. पत्र-युग के अंत की दस्तक सुनाई देने लगी थी. लोगों का पत्र लिखना घट गया था. मुझे एक ऐसा पत्र भी मिला जिसमें एक ही पन्ने के आगे और पीछे दो अलग-अलग मित्रों ने पत्र लिखा था एक ओर सौमित्र ने दूसरी ओर सुजीत ने. 21वीं सदी के साथ मोबाइल का जमाना आया और पत्र लिखना लोग भूलते गए. हम कह सकते हैं कि मोबाइल ने पत्र की हत्या कर दी.
                       मेरी जानकारी में कमलेश जी ने हिंदी के लेक्चरर के अलावा किसी नौकरी के लिए कोई परीक्षा नहीं दी. जिस लक्ष्य को लेकर चले थे उसे हासिल कर लिया. जे० एन० यू० से लौटे सुचिता जी के साथ, पर बनारस में ही रह गये. नौकरी ने उन्हें रोक लिया.


"जाति के प्रश्न पर कबीर" पुस्तक के साथ हिंदी आलोचना जगत के शीर्षस्थ आलोचकों में उनका नाम गिना जाने लगा. यह पुस्तक कबीर के संबंध में इस विषय पर तमाम स्थापनाओं को चुनौती देता हुआ सामने आया और तर्क की कसौटी पर खरा है. धर्मी-विधर्मी सभी इसे पढ़कर हाँफ रहे हैं.कुछ बाई में अल-बल बोल रहे है, पर अब तक किसी ने ऐसा तर्क प्रस्तुत नहीं किया है जिसके आधार पर इस पुस्तक मे प्रतिपादित स्थापनाओं को काटा जा सके. हिंदी साहित्य से ज्यादा महत्वपूर्ण यह पुस्तक समाजशास्त्र के अध्येता के लिए है. कमलेश जी अपनी तमाम गुरुजनों के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए गुरु-ऋण स्वीकारने वाले, अपवाद छात्रों में से है. परंतु साहस इतना की नैतिक भय के बावजूद गुरु द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की आलोचना करते हैं और नैतिक भय को स्वीकारते भी हैं . पर गुरु तो गुरु शिष्य की उपलब्धि पर आशीर्वाद ही देते हैं. हिंदी साहित्य को कमलेश जी और सुचिता जी का दूसरा अवदान "प्रसाद काव्य कोश " है

जो उनके 10  बर्षों के श्रम का प्रतिफल है. यह पुस्तक विश्वविद्यालय और अध्यापकों के लिए एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ बन चुका है. यही कारण है कि प्रकाशन के 10 महीना के अंदर ही इसकी सभी प्रतियां बिक चुकी है. हिंदी साहित्य में ऐसा कम ही सुनने को को मिलता है.
               हिंदी आलोचना के दो ध्रुवों पर बैठे गुरु पर समभाव से संतुलित पुस्तक और पत्रिका निकालना कमलेश वर्मा और सुचिता वर्मा जैसे शिष्य से ही संभव है.
मैनेजर पांडे पर पुस्तक "आलोचना का शुक्ल पक्ष"  और वीर भारत तलवार पर केंद्रित  "सत्राची" पत्रिका के विशेषांक  का संपादन; इससे बेहतर गुरु को सम्मान देने का तरीका और क्या हो सकता है.
परसों अचानक उनका फोन आया की वे पटना आए हुए और रंजन धिमल के साथ कल आ गए. यह मुलाकात लगभग 20 वर्ष बाद हुई थी पर जीवंतता वही जैक्शन-मिंटो वाली. हम तीनो नें पुराने दिनों को याद किया. हम तीनों ने कुछ सामाजिक वर्जना को तोड़ा था जो कहीं ना कहीं रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की अभिव्यक्ति थी कालांतर में सभी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया.
समकालीन हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर अरुण नारायण भी थोड़ी देर में आ गए, फिर कुछ साहित्य चर्चा हुई. कमलेश जी ने शाम का कार्यक्रम तय किया. बोझिल मनसे कमलेश जी को विदा कहा.

कल शाम वे गुरुवर श्री नंदकिशोर नवल जी, साहित्यकार प्रेम कुमार मणि जी एवं अन्य कुछ लोगों से मिलकर आज पटना से बनारस के लिए प्रस्थान कर गए .उनका संदेश आया "वापसी की यात्रा शुरू हो गयी" 
                                      कॉलेज के दिनों को याद करता हूँ तो पाता हूँ कि कमलेश जी पटना से दिल्ली गए दिल्ली से फिर पटना नहीं  बनारस में ही ठहर गए. सदन झा दरभंगा से पटना पटना से दिल्ली, दिल्ली से सूरत चले गए, सुजीत घोष पटना से दिल्ली, दिल्ली से विभिन्न देशों में समय व्यतीत कर रहे हैं. सौमित्र मोहन पटना से दिल्ली के दिल्ली से पश्चिम बंगाल चले गए, विभांशु शेखर नवादा से पटना, पटना से दिल्ली, दिल्ली से अमेरिका चले गये रोजगार की तलाश में माइग्रेशन एक अनिवार्य शर्त है . आलोक शुक्ला जैसे कुछ ही लोग दिल्ली से लौट कर वापस अपने घर आये.एक दिन  मैं सोच रहा था की आज मैं जिस घर में रह रहा हूं वह मेरे जीवन का 20वां घर है. पिताजी की नौकरी और अपनी नौकरी के कारण लगातार माइग्रेशन जारी है . यहाँ माइग्रेशन पर हाल ही में प्रकाशित सदन झा के आलेख "From calcutta comes my husband, From Darbhanga he comes....का जिक्र करना अप्रसांगिक न होगा.