मंगलवार, 16 जून 2015

सीतामढ़ी डायरी (Sitamarhi dayri)

सीतामढ़ी मै कभी नहीं गया, न ही मुझे जानने वाला वंहा कोई है. प्रभात रंजन की कहानियों के माध्यम से मै इसे अपने आस-पास महसूस करता हूँ.एक  कस्बाई शहर को केंद्र मे रखकर शायद ही किसी हिंदी साहित्यकार ने इतनी कहानियाँ लिखी  हों. कुछ उनकी कहानियाँ जो मैंने पढ़ी है
जनकीपुल
फ्रांसिस रेड वाइन
मीस लिली
कहानी बंडा भगत की अथ कथा ढेलमरवा गोंसाई 
                
अंतिम तो अदभुत है. मैं यह नहीं जनता कि प्रभात रंजन सीतामढ़ी के है अथवा नहीं , पर मजेदार कथावाचक हैं. हिंदी कहानी से धीरे-धीरे कहानीपन गायब हो रहा है. इनकी कहानियों मे इसकी वापसी का एहसास होता है. इनकी कहनियों कि पृष्ठभूमि में उत्तर बिहार के अन्य शहर यथा  भागलपुर, मुजफ्फरपुर,दरभंगा  ही रहते हैं. 
                                                                                  रेणु के बाद छोटे शहर-कस्बों  को केंद्र में रखकर अधिक रचनाये करने से साहित्यकार परहेज करते रहे, उन्हें भय था कि हिंदी  साहित्य के माफिया आलोचकों द्वारा आंचलिकता का मुहर लगाकर दरकिनार कर दिया जायेगा. रेणु के  मैला आँचल की  पाण्डुलिपि लम्बे अरसे तक उस दौर के एक नामचीन कवि  के पास पड़ी रही जो उन दिनों पूर्णिया कालेज में हिंदी के शिक्षक थे. रेणु ने यह उन्हें पढ़ने के लिये दिया था, कई महीने टहलाने के बाद इसे  कूड़ा कहकर लौटा दिया . इसके बाद इसके प्रकाशन मे बड़ी कठिनाईयां आई  , इस उपन्यास ने लोकप्रियता का अपना  एक इतिहास बनाया पर आलोचक इसे पचा न सके और इस उपन्यास को आँचलिक कह  हिंदी साहित्य में एक नयी श्रेणी बना इसे दरकिनार कर दिया. 
                                                     इस परिदृश्य में प्रभात जी का दु:साहस सराहनीय है. इतना ही नहीं उन्होंने  अपने  नए कहानी संकलन के मुखपृष्ठ पर अंकित किया है की इसमें मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की कहानीयाँ है. हमें इस संकलन का इंतजार है. 


मंगलवार, 9 जून 2015

जहनाबाद डायरी :2 (Jehanabad / Jahanabad dayri)

संतोष श्रीवास्तव की डायरी
संतोष जी की ‘जहानाबाद-अरवल डायरी’ जहानाबाद शहर का पर्याय है. वे अपने माता-पिता कि स्मृति में इस डायरी को प्रकाशित करते है.
                जब मै पहली बार इस शहर में आया तो मैं इस डायरी कि मदद से कुछ ही मिनटों में  शहर के बारे में काफी कुछ जान गया . इसमें जहनाबाद का सक्षिप्त परिचय है. स्वतंत्रता-पूर्व, उसके बाद तथा वर्तमान युग में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं कि सम्पूर्ण सूचि है. वर्तमान साहित्यिक संस्थओं का संक्षिप्त विवरण है. प्रारम्भ से लेकर अब तक के विधायक-सांसद , नगर-परिषद जिला-परिषद अध्यक्ष , डी० एम० ,एस० पी० , डी० जे०  की सूचि है.
       इस डायरी में जिले के सभी क्षेत्रों से जुड़े लोगों को अलग-अलग सूचीबद्ध कर उनका सम्पर्क नम्बर दिया गया है. जैसे डॉक्टर, साहित्यकार, कलाकार, धर्माचार्य, इमाम, अधिवक्ता, व्यवसाकर्मचारीयिक, मिस्त्री, टेंट-हाउस सरकारी पदाधिकारी-कर्मचारी, मुखिया, अख़बार, पत्रकार , अस्पताल, गैस-एजेंसी’ पत्रकार इत्यादि. यह इस शहर के बुद्धिजीिवयों का पीला-पन्ना है.
     यह डायरी इस शहर में रहने वालों की आवश्यकता है, प्राय सभी प्रबुद्धजनों के पास यह हैं. श्री श्रीवास्तव ने इसका कोई मूल्य नहीं रखा है, अपने खर्चे पर प्रकाशित कराकर लोगों में बांटते है.

           भविष्य में जब कभी क्षेत्रिय इतिहास लिखने कि परम्परा विकसित होती है तो यह डायरी जहानाबाद के संदर्भ में महत्वपूर्ण स्त्रोत- सामग्री होगी. मैं बिहार झारखण्ड के आठ-दस शहरों में रह चुका हूँ पर यह परम्परा मैंने कंही नहीं देखी है. वह भी व्यक्तिगत प्रयास से. इस ६’ गुणे ४’ गुणे १/२’ इंच की डायरी मे पूरा अरवल जहानाबाद सिमटा है.  

शनिवार, 6 जून 2015

पूर्णिया डायरी : 3 (Purnea dayri-3)

''दुनिया सब बौरी होक, घर-घर बाघिन पोसे''
चन्द्रकिशोर जायसवाल जी की आठ वर्ष पूर्व प्रकाशित कहानी 'बाघिन की सवारी '  एक वैविध्य्पूर्ण रोचक कहानी है.
इसका पूर्वार्द्ध तो अदभुत है. आध्यात्मिक झुकाव के बाद एक व्यक्ति के साधु बनने और समाज में  वापस लौटने की कहानी है. उतरार्ध भी कम रोचक नहीं है . इसमें पंचायती राज व्यवस्था से उत्पन परिस्थितियों के बाद सामाजिक ताने-बाने में बदलाब कि भी कहानी है. यह जायसवाल जी कि पैनी दृष्टि और गहन शोध का परिणाम है.
बीस साल बाद हरिलाल जब साधु चरणदास  बनकर लौटता है तो उसका बाल-सखा रामबदन उससे घर बसाने की बात करता है तो चरणदास कहता है
         '  दिन का मोहिनी रात कि बाघिन 
            पलक पलक लहू चूसे 
            दुनिया सब बौरी होक 
            घर-घर बाघिन पोसे  '
तब रामबदन गुस्से में कहता है कि 'हम सब बाघिन पोसे हुए है.'
हरिलाल समझता है कि यह साधु के लिए है. साधु समाज का आदर्श बताते हुए कहता है
          नारी निरखि न देखिये
          निरखि न कीजे दौर
          देखे ही ते बीस चढ़े
          मन आवे कछु और 
          नयनों काजर लाईके 
          गाढे बांधे केश 
          हाथ मेहँदी लाईके 
          बाघिन खाया देश 
यह जानना रोचक है की साधु समाज के उक्त  आदर्श का पालन करने वाले चरणदास किन परिस्थितियों में बाघिन की सवारी का निर्णय लेते है.
         जायसवाल जी ने इस कहानी के माध्यम से पाठकों को मठ, आश्रम और आखाड़ो कि दुनिया की यात्रा भी कराते है. नब्बे के दशक के बाद के कथाकारों के लिए यह लगभग अछूता विषय है. समालोचको द्वरा अच्छी कहनी की कई विशेषतायें निर्धारित  की गयी  है, पर मेरे दृष्टीकोण से अच्छी कहानी वह है, जो पाठकों को वर्षो याद रहे . यह कहानी आठ वर्षों बाद मुझे अभी भी याद है.
                            श्री चन्द्रकिशोर जायसवाल जी पूर्णिया के ही है, उनकी यह कहानी 'बया' के जून २००७ अंक में छपी थी. 
          

गुरुवार, 4 जून 2015

दरभंगा डायरी-2 (Darbhanga dayri)

हेलबरी कॉलेज कि स्थापना १८०६ ई० में लन्दन से बारह  मील उत्तर हेटफोर्ट के निकट हुई  थी. इसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी मे नियुक्त होने वाले सिविल सर्वेन्ट्स के लिए हुई थी. १८०६ से १८५७ तक कई मशहूर प्रसाशकों  ने यंहा प्रशिक्षण लिया. इस प्रथम आई. सी. एस  प्रशिक्षण संस्थान में माल्थस और सर जेम्स स्टीफेंस जैसे शिक्षक थे.
                    सेठ गुलाम हैदर फारसी के विद्वान थे. इन्हें जब इस कॉलेज के बारे मे जानकारी हुई तो १८०६ ई० मे लन्दन पँहुचे . यह वह दौर था जब इंग्लैंड में पर्सियन शिक्षक की माँग थी. भारत आने वाले उत्साही सैनिक व्यापारी के लिए पर्सियन भाषा का ज्ञान एक आवश्यक शर्त थी. पर्सियन जानने और न जानने वालों में वेतन का भी अंतर था. यदि वे इंग्लैंड से पर्सियन सीखकर नहीं आते तो उन्हें भारतीय मुंशी से ट्यूशन लेनी पड़ती थी इसके लिए उन्हें ट्यूशन भत्ता मिलता था.
                                      सेठ गुलाम हैदर ने लन्दन पंहुचकर    हेलबरी कॉलेज में पर्सियन राइटर मास्टर के लिए आवेदन दिया . इन्हें २०० पौंड सालाना वेतन  पर यंहा  शिक्षक नियुक्त कर लिया गया.


( गुलाम हैदर साहब का दुर्लभ रेखाचित्र )
 इस कॉलेज के प्रथम भारतीय शिक्षक होने का गौरव  सेठ गुलाम हैदर को है . शायद ही दरभंगा मे कोई यह जनता होगा कि  सेठ गुलाम हैदर दरभंगा के थे. 

सोमवार, 1 जून 2015

पूर्णिया डायरी -2 (Purnea dayri- 2)

दक्षिण भारत का एक युवक रोजगार की तलाश में किसी कारवाँ के साथ भटकता हुआ उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में सत्तर के दशक में आया.
   इंडो-चीन सीमा तनाव से उत्पन्न परिस्थितियों के करण यंहा सामरिक महत्व के बड़े संस्थान का निर्माण किया जा रहा . उसे वंहा निर्माणाधीन संस्स्थान के केंटिन में भोजन सामग्री आपूर्ति का काम मिला . आवश्यकता अनुसार सभी सामग्रियों को जुटाकर आपूर्ति करना इस सीमावर्ती शहर में कठिन काम था. सभी सामग्रियां तो मिल जाती पर माँग के अनुरूप केला इस शहर मे नहीं मिलता . दूर के दूसरे शहर से लाकर यंहा आपूर्ति करना घाटे का सौदा था.
  उस दक्षिण भारतीय युवक ने कुछ स्थानिय किसानों से बात कर उन्हें केले की खेती करने को प्रोत्साहित किया और उनसे पूरी उपज खरीद लेने का आश्वाशन भी दिया. एकाद किसान ने उसकी बात मान  ली .युवक ने उन्नत नस्ल के पौधे उपलब्ध कराने में भी उनकी मदद की. किसान को सौदा लाभ का लगने लगा . कई किसान देखा-देखी केले की फसल लगाने लगे.
संस्थन का निर्माण काम पूरा हो गया. अब उस दक्षिण भरतीय युवक के लिए वंहा कोई रोजगार नहीं रहा. इस दौरान उसके संबंध कई किसानों से हो गये , उनमे से कुछ पढ़े – लिखे थे. युवक ने उसी शहर में एक नर्सरी खोल ली. केले के उन्नत नस्ल के पौधे और आवश्यक सहयोग और प्रेरणा किसानों को देते रहे. केले कि खेती का इस क्षेत्र में व्यापक प्रसार हुआ. सदियों पुरानी खेती की पद्धति बदल गई . इसका श्रेय उस दक्षिण भरतीय युवक को ही जाता है.
स्वप्रेरणा से इस क्षेत्र में केले की खेती होते देख सरकार और कृषि शोध संस्थनों कि भी अभिरुचि इसमें जगी, उन्होंने भी आगे बढ़कर सहयोग किया. केले के उत्पादन केंद्र में विकसित होने के कारण व्यापारी सीधे किसानों को अग्रिम दे सौदा करने लगे. इस क्षेत्र में केले कि खेती का क्षेत्रफल उतरोतर बढ़ता गया.
 वह दक्षिण भरतीय युवक नर्सरी का संचालन करते हुए वृद्ध हो गये. वे इसी शहर में बस गये. सम्भवतः इस शहर का एकमात्र दक्षिण भरतीय परिवार. इनकी नर्सरी इतनी व्यवस्थित थी कि प्रदेश के राजभवन, मुख्यमंत्री-आवास और सचिवालय मे यंहा से पौधे मंगाए जाते थे.
कालान्तर में उस वृद्ध दक्षिण भारतीय कि मृत्यु हो गयी. अब उनके पुत्र और पुत्रवधु उस नर्सरी का  संचालन करते हैं.
जी हाँ यह एक पहेली जैसी कहानी है पर सच्ची है. उस दक्षिण भारतीय युवक का नाम तो मुझे अब याद नहीं है, पर वह उत्तर भरतीय शहर पूर्णिया है और वंहा स्थापित नर्सरी का नाम ग्रो मोर नर्सरी है. संस्थान जो वहाँ निर्माणाधीन था, वह चुनापूर वायुसेना का बेसकैम्प और हवाई-अड्डा था .