बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

राजगीर डायरी-2 (सप्तपर्णी गुहा की पहचान )


(गतांक से आगे ......)

करीब 4.5 कि0मी0 की चढाई और दो-तीन जैन मँदिरों को पार कर हमलोग लगभग 1300 फुट की ऊँचाई पर पहुँचे. यहाँ एक बड़ा जैन मंदिर मिला जिसके पश्चिमोत्तर छोर से एक रास्ता नीचे सप्तपर्णी गुहा की ओर जाता है. इसके संबंध मे यह मान्यता है कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण (486 ई0 पू0) के बाद प्रथम बौद्ध संगिती यहीं हुई थी.  करीब 500 बौद्ध भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया था. यह सम्मेलन मगध सम्राट अजातशत्रु के संरक्षण में हुई थी, तब मगध की राजधानी राजगृह हुआ करती थी.इस सम्मेलन के बाद बुद्ध के उपदेशों को विनय पिटक और अभिधम्म पिटक मे संकलित किया गया, ताकि उनके जाने के बाद अनुयायियों को मार्ग-दर्शन देने मे कोई कठिनाई और विवाद न हो.
 अब यहाँ से हमें उस स्थान पर जाना था जहाँ आज का साहित्यिक आयोजन था. लोग वहाँ पहुँच चुके थे हम हीं बिलंब से थे. तभी सामने से कवि विकल जी आते दिखे. उन्होने बताया की वे पश्चिम की ओर से लौट रहे हैं जहाँ अंतीम जैन मंदीर है. यह भी बताया की आगे एक जैन तिर्थयात्री के सोने की चेन को बदमाशों ने झपट लिया है. तब यह तय हुआ कि वहाँ से तिहत्तर सिढियाँ उतरकर सप्तपर्णी गुहा की ओर चला जाये आयोजन वहीं हो रहा होगा. तभी उस ओर से एक व्यक्ति आता दिखा, मैनें उससे आयोजन के मुताल्लिक पुछा तो उसने अनभिग्यता जाहिर की. हमलोग असमंजस मे पड़ गये. आयोजकों से लगातार मोबाईल फोन पर संपर्क करने का प्रयास किया जा रहा था पर संपर्क नहीं हो पा रहा था.   
सप्तपर्णी गुहा वस्तुतः चार-पाँच प्राकृतिक गुफाओं की एक श्रृँखला है. जिसके आगे के प्लेटफार्म की लम्बाई-चौड़ाई लगभग 40 *20 मीटर है. सबसे बड़ी गुफा की गहराई 10 मीटर से अधिक नहीं है ,यहाँ 500 आदमी एक साथ बैठ ही नहीं सकते. संभव है कि प्रथम बौद्ध संगिती के दौरान आचार्य महाकश्यप या अन्य दिग्गज भिक्षुक रात्री विश्राम या ध्यान साधना करते हों.
 तभी आयोजकों से संपर्क स्थापित हो गया. उन्होने उसी मार्ग पर आने की सलाह दी जहाँ से विकल जी लौट आये थे. 1 कि0मी0 चलने के बाद आशुतोष जी मिले जो हमे पूरब की ओर अनगढ रास्ते पर ले गये 1/2 कि0मी0 की दूरी तय करने के बाद हम उस चौरस जगह पर पहुँचे जहाँ आयोजन चल रहा था. हैंड-माईक पर धीमे स्वर मेंचल रहा काव्य पाठ इस रम्य वातावरण को और रमणिक बना रहा था. हमारा काव्यातमक स्वागत किया गया.


             
प्रो0 (डा0) लक्ष्मीकांत जी का तर्क है कि इस स्थान पर प्रथम बौद्ध संगिती हुई थी. यहाँ जल स्त्रोत है. वस्तुतः यह स्थान एक प्राकृतिक जल-संचयिनी है. बिना किसी जल स्त्रोत के 500 बौद्ध भिक्षुओं का वास यहाँ कैसे हो सकता है. इतिहासकारों द्वारा सप्तपर्णी गुहा के पहचान का आधार मेगास्थनिज का यत्रा वृतांत है, जो प्रथम बौद्ध संगिती के लगभग 1000 साल बाद यहाँ आये थे. उन्होने भी जनश्रुतियों के आधार पर इस स्थान की पहचान की. बहुत कम इतिहासकारों ने इस स्थल के पहचान के संबंध मे यहाँ की यात्रा की है. प्रो0 (डा0) लक्ष्मीकांत जी ने बताया की इस स्थल को स्थानिय लोग बेल्वा-डोव कहते है, जो बौद्ध-डिह का अपभ्रंश रूप है, इसके पूरब एक मंदिर है जिसे जैन धर्मावलंबी गौतम गणधर का मानते है . यह वस्तुतः गौतम बुद्ध से जुड़ा मंदिर है.
      बहरहाल 3 घंटे के पर्वतारोहण के उपरांत हम हस स्थान पर आ गये जहाँ आज से २५०० वर्ष पूर्व प्रथम बौद्ध संगिती हुई थी, आज यहाँ साहित्यकारो की गोष्ठी हुई. यह आश्चर्य का विषय है कि इस आयोजन मे हिन्दी के तीन प्रमुख दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर के जिला स्तर के ब्युरो-चीफ उपस्थित थे जो सामान्य परिस्थितियों मे रिपोर्टिंग के लिये कम जाते है.   
                                                                                (क्रमशः ......)

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

राजगीर डायरी -1 (glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म /fossils of glossopteris)

22 दिसंबर 2019
आज राजगीर जाने की तैयारी है. इससे पहले 15 दिसंबर को कार्यक्रम निर्धारित किया गया था, पर बे-मौसम बरसात और अचानक बढ गई ठंढ के कारण तिथि बढा दी गई थी. मै दोपहर 12.30 बजे ब्रह्मकुंड पहुंच गया, साथ में लाल बाबू सिंह, विलास जी और ऋतुराज जी भी थे. हमलोग दो घंटे बिलंब से पहुंचे थे सो गर्म कुंड मे स्नान की हसरत मन में ही रह गई.  ब्रह्मकुंड के सीढियों चबुतरों और मंदिरों को पारकर वैभारगिरी की ओर बढ गये. यह मार्ग पर्वत शिखर पर जैन मंदिरों की श्रृंखला की ओर जाता है. दिसंबर की गुनगुनी धुप और रमणीक हरियाली एक मोहक आवरण के साथ, निहारते रहने को लुभा रहा था. मार्ग में ज्यादातर पर्यटक जैन तिर्थयात्री थे. कुछ वृद्ध यात्री खटोले (चार व्यक्तियों द्वारा कंधे पर ढोयी जानेवाली सवारी). साहित्यिक आयोजन के हिसाब से वैभारगिरी पर्वत पर सप्तपर्णी गुफा के समीप बेल्वाडोव एक दुर्गम स्थल है.
                  वैभारगिरी चढने के लिये सीढियाँ बनी थी जो जैन मँदिरों की श्रृँखला तक जाती है, मै दल-बल के साथ पर्वतारोहण का आनंद ले रहा था, तभी मेरा ध्यान आस-पास की चट्टानों पर गयी . मै कुछ चट्टानो को देख आश्चर्य में पड़ गया.


   इस पर glossopteris नामक वृक्ष के पत्तों के जीवाश्म थे. यद्यपि मेरे मोबाईल फोन का कैमरा पत्थर पर अंकित जीवाश्म मे परिवर्तीत  glossopteris के विशाल पत्तों की महिन रेखाकृतियों को कैद करने मे उतना सक्षम नही था, तथापि मैंने इसे कैद करने की कोशिश की .




 glossopteris के वृक्ष आज से लगभग 300 मिलियन वर्ष पहले super continent पैंजियाना के दक्षिणी भाग में पाये जाते थे.पैंजियाना का दक्षिणी भाग  जो भूगर्भिक आंतरिक प्रक्रियाओं के कारण धीरे-धीरे अलग हुआ, गोंडवाना कहलाता है.


यह  दक्षिणी गोलार्द्ध के महाद्विपों के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप एवं अरब प्रायद्वीप की जननी है. अन्य साक्ष्यों के साथ glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म भी यह प्रमाणित करते हैं कि गोंडवाना लैंड से ही अलग होकर  दक्षीण अमेरिका, अफ्रिका, आस्ट्रेलिया, अरब प्रायद्वीप एवं भारतीय उपमहाद्वीप बने हैं. इन क्षेत्रों मे glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म मिलते हैं.


यह वृक्ष PERMIAN एवं TRIASSIC PERIOD मे आज से 20-30 करोङ साल पहले (300 to 200 million )गोंडवाना मे पाये जाते थे. 
  राजगीर के वैभारगिरी पर्वत पर इसकी भरमार है, परन्तु यह अबतक कहीं रिपोर्टेड नहीं है. किसी पुराजिवाश्मशास्त्री (PALAEONTOLOGIST) ने राजगीर की पहाङियों पर बिखरे जिवाश्मों का अध्ययन नही किया है. इस तरह के जिवाश्म अफ्रिका और दक्षीण अमेरिका मे 1995 ई0 मे  भी मिले हैं. दक्षिणी गोलार्द्ध के सभी महाद्विपों पर glossopteris वृक्ष के पत्तों के जिवाश्म पाये जाते हैं. भारत मे बहुत कम स्थानों से इसके मिलने की सूचना है. इस प्रकार राजगीर  पुरातत्व के साथ पुराजिवाश्म का भी खुला संग्रहालय है ,  जिसे हमे संरक्षित करना है.