बुधवार, 29 मई 2019

पूर्णिया डायरी-20 (लेकिन आप क्या करेंगें साहिब किस्मत/But what would you sahib kissmat.)

पूर्णिया डायरी-19  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
डिप्टी कंजरवेटर ऑफ फारेस्ट का प्रस्ताव था कि खाली झोपड़ियों के आस-पास बिखरी सड़ती लाशों को हाथियों की मदद से एकत्रित कर उन पर झोपड़ियों को डालकर आग लगा दिया जाये. उसी दिन दोपहर में पच्चीस हाथी तथा वन विभाग के साठ संथाल कर्मचारी को लाया गया. संथालों को भय और बड़ी बख्शीस का प्रलोभन देकर लाया गया था. एक लंबी सिकड़ एवं छड़ी जिसके एक सिरे पर हुक लगा हो, की व्यवस्था की गयी. इसका प्रयोग वैसी लाशों को खिंचकर लाने के लिये जाना था जो झोपड़ियों से दूर थे. 
 संथाल लाश को हूक में फंसाते और हाथी उसे खाली झोपड़ियों के दरवाजे तक खिंच लाते. काफी मशक्कत के बाद तीन फुट उँचा और तीस फुट लंबा लाशों का ढेर तैयार के लिया गया. इसके बाद आसपास की खाली झोपड़ियों को इसपर रखा गया. फोर्ब्स ने  लिखा है कि हाथियों को मानो समझ आ गया हो कि आगे क्या करना है. ढेर पर टनों लकड़ियाँ और झाड़ियां लाकर रख दी गई. इसके बाद संथालों ने इसपर दर्जनों बैरल पेट्रोल उड़ेलकर आग लगा दिया.गिद्धों का झुंड जो इस सारी प्रक्रिया को दूर से देख रहे थे, अपनी कर्कश आवाज के साथ उड़ चले. पर रात में सियारों की डरावनी आवाजें आती. जलने के बाद अवशेष बच गये टुकड़ों के लिये लड़ते. 
          महामारी का प्रभाव धीरे-धीरे घटने लगा. लोग वापस अपने रोजगार पर लौटने लगे. कुछ अमीर कुछ गरीब पर किसी मे मृत लोगों के प्रति विशष शोक का भाव न था. लेकिन आप क्या करेंगें साहिब किस्मत.

सोमवार, 27 मई 2019

पूर्णिया डायरी-19(लाशों के निस्तारण के लिए जब हाथियों की मदद ली गई./When the help of elephants was taken for the disposal of corpses)

पूर्णिया डायरी-18  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
महामारी फैलने के आठ दिनों बाद पूर्णिया में मरने वालों की संख्या घटने लगी. पलायन कर गये लोग, वापस घरों को लौटने लगे, पर यंहा रह नहीं सके .सङ रही लाशों की बदबू इतनी भयानक थी कि इनके बीच एक भी  रात बिताना शहादत देने जैसा था. एक सुबह शहर के बाहरी हिस्से में फेंके गये लाशों की गणना फोर्ब्स ने की थी जो सात सौ पचास से कम न थी. ये सभी लाशें सड़ कर शहर के वातावरण में भीषण बदबू फैला रही थी.                                                     शासन की इस उपेक्षा को छिपाते हुए फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि , मामला इसी तरह नही चलता रहा लाशों के निस्तारण के सम्बंध में 'उपर' बेतार संवाद भेजकर निर्देश मांगे गये. पर उपर से एक ही उतर आता जितनी जल्दी हो लाशों को जला या दफना कर निस्तारित किया जाये. यह कहना तो आसान था , पर यहां स्थनीय प्रशासन के सामने यक्ष  प्रश्न यह था कि, इतनी बड़ी संख्या में लाशों को जलाये या दफनायेगा कौन ? पूर्णिया के आसपास कई मील तक इस काम के लिये कोई तैयार न हुआ.

     काफी मंथन के बाद डिप्टी कन्जरवेटर ऑफ फाॅरेस्ट ने यह प्रस्ताव दिया की सड़ती लाशों को निपटाने के लिये हाथियों की मदद ली जाये. हाथियों की मदद से लाशों को निपटाने की जो कार्य योजना बनी उसपर सभी ने सहमती दी. इस काम के लिये पच्चीस हाथियों को लगाने का निर्णय हुआ.
                            
                                     क्रमशः ........

शनिवार, 25 मई 2019

पूर्णिया डायरी-18 ( दूध न देने की सजा पन्द्रह साल की जेल /When the punishment for not giving milk was fifteen years of imprisonment)

पूर्णिया डायरी-17  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
इस महामारी में पूर्णियावासियों के असह्य कष्ट और दरिद्रता का वर्णन नहीं किया जा सकता है. इलाके की सभी दूकानें धीरे-धीरे बंद हो गई. या तो दूकानदार मर गये या पलायन कर गये या उनके परिवार के ज्यादातर सदस्य का सफाया हो गया जिसके कारण वे दूकान खोलने की स्थिती में नहीं थे. अनाज और अन्य खाद्य सामग्रियां बैलगाङियों से दूर से लायी जा रही थी. 
 कई बार सामान लाने गया गाङीवान रास्ते पर हाथ में लगाम लिये मृत पाया जाता.परन्तु इस महामारी में भी कुछ लोग मौके का लाभ उठाना नहीं चुकते. एक सुबह फोर्ब्स कहीं जा रहे थे, रास्ते में तालाब पर कुछ महिलायें कमर भर पानी मे कपङे धो रही थी. ये कपङे उन बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे (न जाने फोर्ब्स ने किस आधार पर इतना विश्वास के साथ यह लिखा कि ये कपङे उन्हीं बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे). एक ग्वाला उधर से दूध लेकर जा रहा था, वहाँ रुककर वह उनसे गप्प करने लगा. पूर्णिया में दूध का स्त्रोत गाँव से इसे लेकर आने वाले ग्वाले ही थे. अस्पताल में दूध की कमी रहती थी . गप्प खत्म होने के बाद  फोर्ब्स ने उस ग्वाले को अपना दूध बाजार में न बेचकर अस्पताल में लाकर बेचने को कहा . परन्तु ग्वाले ने उसकी बात सुनकर पुरा का पुरा दूध तालाब में बहा दिया. शायद भय और घृणा से. 
                                   फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि उसका दूध तो कभी अस्पताल नहीं पहुँच सका पर, वह पंदरह साल के लिये जेल जरूर चला गया.

                                           क्रमशः .......

गुरुवार, 23 मई 2019

पूर्णिया डायरी-17 (पूर्णिया में नरबलि/ Human Sacrifice in purniya )

पूर्णिया डायरी-16  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
महामारी के दौरान की घटना की एक  जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. इस घटना ने पूर्णिया को कलंकित किया है. इतिहास केवल गौरव गाथा नहीं. विफलता लाचारी और कुंठा के कारण  घटित  घटनाएँ जो जन -जीवन को प्रभावित करती है वह भी इसका अंग है.  
                                        आकस्मिक हालत में फोर्ब्स एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जा रहे थे जिसकी दूरी दो मील थी. रास्ते में खुले स्थान पर कोंड जनजातियों का एक समूह मिला, ये जनजाति मुख्य रूप से कोंड-महाल ओड़िसा के थे. जो मजदूरी के लिए पूर्णिया लाये गये थे, और यहीं बस गये थे. भीड़ में से आ रही पैशाचिक चिल्लाहट तेज होती जा रही थी. उन लोगों का उत्साह चरम पर था. फोर्ब्स समीप पंहुंचे, एक को बुलाकर पूछा कि क्या हो रहा है. उसने एक ही उत्तर दिया की सब ठीक है. वे उत्सुकतावश उस भीड़ में घुस गये. भीड़ के बीच में लकड़ी की ऊँची वेदी थी, जिसपर चार-पांच साल के बच्चे को लिटाया गया था. वेदी के पास एक कोंड पूजारी बड़ा सा चाकू लिए खड़ा था. फोर्ब्स समझ पाते की यंहा क्या हो रहा है इससे पहले ही उसने चाकू बच्चे के सीने में उतार दिया . भीड़ और हत्यारे पूजारी पर पैशाचिक प्रवृती इस कदर  हावी थी की वंहा एक भी शब्द कहना खतरे से खाली नहीं था.ऐसा फोर्ब्स ने लिखा है. यदि Ducarel जैसा साहस वे दिखाते तो बच्चे को बचा सकते थे , पूर्णिया की धरती कलंकित नहीं होती . 
                  खैर फोर्ब्स ने उस भीड़ में से एक को पहचान लिया जो पास के नील की  फैक्ट्री में कुली का काम करता था.अगले दिन उससे पूछ-ताछ की गयी. उसने स्वीकार किया कि महामारी और मृत्यु से भयभीत कोंडो ने अपने भगवान को खुश करने के लिए उस बच्चे की बलि दी थी. बच्चे की माँ उसी दिन सुबह में महामारी से मरी थी, उसे चुराकर लाया गया था. इस कांड का मुख्य कर्ता कभी गिरफ्तार नहीं किया जा सका. सड़े मांस खाने की आदत के कारण  दो-तीन दिनों के अन्दर महामारी की चपेट में आ काल के गाल में समां गये.

               क्रमशः...... 

बुधवार, 22 मई 2019

पूर्णिया डायरी-16 ( पांच दिनों में तीन हजार लोग काल-कलवित हुये)

पूर्णिया डायरी-15  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
पूर्णिया के "नेटिव" समाज के बड़े तबके का यूरोपीय चिकित्सा व्यवस्था में विश्वास नहीं रहने के बावजूद जितने लोग अस्पताल आ रहे थे उनके इलाज के लिए कम से कम बीस डॉक्टरों की आवश्यकता थी. फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि नेटिव कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे थे. पांच दिनों के अन्दर तीन हजार लोग काल-कलवित हुए. जो गरीब थे जिनके परिवार में कोइ नहीं बचा था उनका अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका. लाशों के सड़ने से 'नेटिव' बस्तियों में भयंकर बदबू फ़ैल रही थी. 
               श्मशान से रात -दिन धुंये का अम्बार उठकर आसमान में विलीन हो रहा था. मुसलमानों के कब्रिस्तान भी बिना दफ़न किये गए लाशों से भरे पड़े थे. इसके ऊपर चिल-गिद्ध ऐसे मंडराते रहते मानो काले बादल उमड़-घुमड़ रहे हों. 
  हिन्दुओं की जो भी खाली जमीन थी उसपर काली की पूजा हो रही थी. यह बात आम-आवाम के मन में घर कर गयी थी कि माँ काली के कोप से ही यह महामारी पूर्णिया में फैली है, जो रोज सैकड़ो लोगों को लील रही है. इधर मस्जिदों में शरण लेने वाले मुसलमानों की संख्या भी बढती जा रही थी. उनका विश्वास था कि इस पवित्र भवन की शरण में आकर वे उस मृत्यु से बच सकते हैं जो उनके घरों में इंतजार कर रही है. परन्तु जल्द ही मस्जिद मुक्ति धाम बन गया. बीमार व्यक्ति मस्जिद में आता प्रार्थना करता पर संक्रमण इतना होता कि वह प्रार्थना पर भारी पड़ता . बीमार आदमी मर जाता. मृत शरीर को मस्जिद से निकलने वाला कोइ नहीं था.लाशों की संख्या बढती, उसके सड़ने से भीषण बदबू फैलने लगती . मुल्ला और मोईजिन मस्जिद छोड़कर अन्यत्र चले जाते .

क्रमशः 

मंगलवार, 21 मई 2019

पूर्णिया डायरी-15 (महामारी में जादू-टोना )

पूर्णिया डायरी-14 से आगे....
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
डा० सांडर्स को दफ़न करके पूर्णिया लौटने पर फोर्ब्स के कानों में हिन्दुओं का शवयात्रा मन्त्र " राम-राम सीताराम" और मुसलमानों का "अल्लाह इल्ला अल्लाह" गूंजता रहा. श्मशान और कब्रिस्तान में लाशों के जाने का सिलसिला देर रात तक चलता रहा.इस बीच फोर्ब्स को न जाने कब नींद आ गई.
              . हैजा महामारी का रूप ले चूका था, पर पूर्णिया में कोई डाक्टर नहीं था. कमिश्नर  जिले में दूसरे सिविल सर्जन के पदस्थापन के लिए टेलीग्राम भेज चुके थे.उसने फोर्ब्स से अनुरोध किया कि जबतक कलकत्ता से कोई दूसरा डॉक्टर नहीं  आ जाता वे सिविल-सर्जन के दायित्वों का निर्वहन करें. आगे के दिनों में आनेवाली कठिनाईयों को समझते हुए भी फोर्ब्स ने इस चुनौती को स्वीकार कर रोगियों का इलाज प्रारंभ कर दिया.
                                            नील की फैक्ट्री , खलिहान, या कोई एसा भवन जिसे इस विपदा की घड़ी में अस्पताल बनया  जा सकता था,  बना दिया गया .  " नेटिव" हिन्दुओं में सबसे निम्न जाति के लोग ही यूरोपीय इलाज और दवा का लाभ उठा सके. हिन्दुओं के किसी उच्च जाति के रोगी का इलाज के लिए यंहा आना असंभव था. वे यदि इस महामारी से पीड़ित होते तो एक ब्राह्मण ओझा को उनके पास भेजा जाता. वह जादू-टोना-टोटका करता . पीड़ित व्यक्ति की स्थिती में कोई सुधार नहीं होता तो फिर  वे सभी कर्म-कांड कराये जाते जो मोक्ष के लिए आवश्यक है. उसके बाद मनहूस रोगी को मरने के लिया छोड़ दिया जाता था. मान लिया जाता की उसे मोक्ष प्राप्त होगा.
                              मुसलमानों के मामले में बात थोड़ी अलग थी. कुछ मुसलमान बीमार पड़ते तो अस्पताल आते. दवा दिए जाने पर वह इसे समीप के मस्जिद के मुल्ला के पास ले जाते. मुल्ला उसकी जाँच-परख कर  यह तय करता की दवा रोगी के लिए उपुक्त है या नहीं. यदि वह इसे सही पाता तो कागज के एक टुकड़े पर कुरान की एक आयत लिख दवा के बोतल की गर्दन में बांध देता , जो दवा की क्षमता को और बढ़ा देता .दूसरी ओर यदि मुल्ला दवा को सही नहीं बताता तो लोग उसे फेंक देते और उन फिरंगियों को कोसते हुये घर लौटते जिसने गलत दवा दी थी.
                                                   
                                                                           क्रमशः .....
    

सोमवार, 20 मई 2019

पूर्णिया डायरी-14 (डा० सांडर्स की कहानी/story of Dr sanders )

पूर्णिया डायरी-13 से आगे.....
पूर्णिया 1887 ईस्वी 
डा० सांडर्स के अंतिम संस्कार के बाद फोर्ब्स दुखी मन से पूर्णिया अपने बंगले पर लौट आया . अपने मित्र की आकस्मिक मृत्यु से वे विचलित था . मृत्यु के कारण को जानने के लिए उनके नौकर को बुलवा भेजा . उसने बताया कि रात दस बजे एक गरीब नेटिव डा० को बुलाने आया जिसका बेटा बिमार था. डा० उसके साथ गये और रात भर बीमार बच्चे के साथ रहकर उसकी तीमारदारी की. वह हैजे से पीड़ित था. उस गरीब का बेटा तो बच गया पर डा० सांडर्स हैजे की बलि चढ़ गए. डाक्टर ने हिपोक्रेतिस के नाम पर ली गई शपथ को पूरा किया. आज पूर्णिया में चार सौ से अधिक डाक्टर है. पर मुझे नहीं लगता की इनमे से कोई गरीब व्यक्ति की मदद उस तरह करता होगा जैसा डा० सांडर्स ने किया
                                                 क्रमशः.......

शुक्रवार, 17 मई 2019

पूर्णिया डायरी-13 (जब पूर्णियावासियों ने एक अंग्रेज की कब्र खोदने से इंकार कर दिया)

पूर्णिया डायरी-12 से आगे....
 पूर्णिया  1887 ईस्वी
डा० सांडर्स की लाश पालकी के अन्दर फोर्ब्स के बंगले की ड्योढ़ी में पड़ी थी . उस समय पूर्णिया की यूरोपिन कॉलोनी में रौनक हुआ करती थी . इसका विस्तार वर्तमान रंगभूमि मैदान के उतर पश्चिम था. यंहा कई लोगों के सरकारी बंगले थे जिसमे केवल ब्रिटेन ही नहीं बल्कि यूरोप के प्राय: सभी देश के मूल के लोग यथा फ्रांस आयरलैंड , जर्मनी, पुर्तगाल के लोग रहते थे. नेटिव इस ओर जाने से बचते थे. इसी कॉलोनी के पूरब सिविल लाइन बाज़ार था जो आज लाइन बाज़ार के रूप में जाना जाता है. फ़ोर्ब्स ने तत्काल तीन हरकारा (संदेशवाहक) जो तेज धावक होते थे, को बुलवाया ; इन्हे जिले के मजिस्ट्रेट , कमिश्नर , और कमांडिंग ऑफिसर के पास  डा ०  सांडर्स के मृत्यु की सूचना देने हेतु भेजा. एक अश्वारोही संदेशवाहक को मि० मुर्री  के पास यह कहवाकर भेजा कि वे जितनी जल्दी हो अपने घोड़े पर सवार हो आयें.  मि ० मुर्री नील की खेती कराने वाले बड़े जमींदार थे, जिन्हें स्थानीय लोग निलहा फिरंगी कहते थे.
                           मि० मुर्री दो घंटे में पहुँच गये. उनकी मदद से डा० सांडर्स के मृत शरीर को पालकी के अन्दर से निकाल कर कमरे में रखा गया, जंहा अब दफनाने तक इंतजार करना था. कमिश्नर शाम में पंहुचे. कैंटोनमेंट के छोटे कब्रिस्तान में लाश को दफ़नाने की तैयारी की जाने लगी जो पास में ही था. स्थानीय लोग जिसे अंग्रेज 'नेटिव' कह सम्बोधित करते थे ; में यह खबर जंगल के आग की तरह फ़ैल गयी कि हैजा महामारी का रूप ले चुका है, जिससे जिले के सबसे बड़े अंग्रेज डाक्टर की मौत हो गई है. भय लोगों में इस तरह व्याप्त था की मृत डॉक्टर की कब्र खोदने के लिए कोई तैयार न हुआ. सूचना पाकर अन्य अंग्रेज ऑफिसर असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट एवं फारेस्ट कांसेर्वेटर भी पंहुंच गए. शाम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने के बाद भी जब ग्यारह बजे रात  तक कोई नेटिव कब्र खोदने को तैयार नहीं हुआ तब  फोर्ब्स , मि० मुर्री असिस्टेंट पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट एवं फारेस्ट कांसेर्वेटर  ने स्वयं कब्र खोदना प्रारंभ किया. इन्हे छह घंटे कब्र खोदने में लगे .  सुबह पांच बजे डा० सांडर्स के मृत शरीर को दफ़न किया गया. रातभर कब्रिस्तान में बिताने के बाद सब वापस लौटे. यह पूर्णिया के इतिहास की एक भयानक रात थी.

                                                                                          क्रमशः .....   

मंगलवार, 14 मई 2019

नवादा डायरी-2 (सहेबकोठी: 2010)


कल (२३//१०सावन की आखिरी सोमवारी थी नवादा में भी इसे शिव  भक्तो ने बड़ी धूम-धाम से मनाया, यूँ तो पुरे सावन महीने यहाँ बाबा वैद्नाथधाम जानेवाले   यात्रियों का ताँता लगा रहता है. झारखण्ड और दक्षिणी बिहार के कांवरियों का देवघर जाने और आने का यह एक सुगम मार्ग है. गत एक माह से यहाँ की मुख्य सड़को पर केसरिया रंग के आवरण में कांवरियों से भरे गाडियों में को चौबीसों घंटे देखे जा सकते थे

 इस शहर में भक्ति की ऐसी लहर चलती है की , सभी भोजनालय एवं  सामान्य फुटपाथी दुकानों पर भी खाने और नाश्ते के सामानों में लहसुन-प्याज का प्रयोग बंद कर दिया जाता है

नवादा शहर की ह्रदयस्थली साहेब कोठी में एक अति प्राचीन शिवालय अवस्थित है  यह मंदिर लगभग २५० वर्ष पुराना है   यहाँ के पुजारी ने बताया की वे अपने परिवार के पांचवी पीढ़ी के है उनके परिवार की पांचवी पीढ़ी एस मंदिर में पूजा करवा रही है  इस शिवालय में कई चीजे ऐसी है ; जो इसके और प्राचीन होने को स्थापित करती है  एस मंदिर का स्थापत्य आजकल के मंदिरों से बिलकुल अलग है  इसकी दीवारे २०-२५ इंच मोती है  आसपास के भू भाग से मंदिर का गर्भ-गृह - फीट नीची है  मंदिर में काले बैसाल्ट पत्थर की बनी कुछ मुर्तिया जो मध्यकाल या उससे पूर्व की है  यहाँ का शिव लिंग भी अद्भुत है शिवलिंग पर शिव की मुखाकृति अंकित है

मंदिर के पुजारी ने बड़े ही अच्छे ढंग से मंदिर और शिवलिंग को सजाया था। यदपि वह इसकी प्राचीनता से अनभिज्ञ था