रविवार, 10 जुलाई 2016

बेतिया डायरी : bettiah /west champaran dayri

                                 
सज्जाद लाईब्रेरी
                                                     पश्चिमी चम्पारण के बेतिया शहर की सज्जाद लाईब्रेरी अपनी दुर्दशा पर रो रही है.  किताबों की तो बात ही छोड़ दीजिए, हक़ीक़त तो यह है कि यह पूरी लाईब्रेरी ही बिल्डिंग सहित ग़ायब है.
       आज़ादी की लड़ाई के इतिहास से जुड़ी ये ग़ायब लाईब्रेरी फ़िलवक़्त खुद ‘सियासत’ की बेड़ियों में जकड़ी हुई है. मुसलमानों के नाम पर नाइंसाफ़ी का रोना रोने वाले मुसलमानों के ठेकेदारों से लेकर सूबे के हुक्मरानों और तमाम बुद्धिजीवियों तक किसी को इसके हालात पर ग़ौर करने की फुर्सत नहीं है.
दरअसल, 1937 में मुस्लिम इंडीपेंडेंट पार्टी के गठन के साथ ही शहर के अहम दानिश्वरों के साथ मिलकर मौलाना अबुल मुहासिन मो. सज्जाद ने इस लाईब्रेरी की स्थापना की बात की. 1939 में बेतिया के इस सज्जाद पब्लिक उर्दू लाईब्रेरी को शुरू कर दिया गया. इस लाईब्रेरी की बुनियाद डालने वालों में मौलाना असदुल्लाह महमुदी और डॉक्टर रहमतुल्लाह का नाम ख़ास तौर पर लिया जाता है. सच पूछे तो इस लाईब्रेरी का एक बेहद समृद्ध इतिहास रहा है, जो अब वक़्त की धूल-गर्द के आगे बेबस होकर घुटने टेक चुका है. सबसे अफ़सोस की बात ये है कि यहां किसी को इस लाईब्रेरी को जीवित करने का ख़्याल तक नहीं है.
अब्दुल ख़ैर निश्तर बताते हैं कि आज़ादी से पहले ये लाईब्रेरी बुद्धिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल लोगों की वैचारिक बहसों का केंद्र हुआ करती थी. 1939 से यह लाईब्रेरी 1964 तक लगातार चलती रही. 1965 में यह लाईब्रेरी बंद हो गई. दुबारा 1972 में शहर के कुछ नौजवान डॉक्टर अब्दुल वहाब की सरपरस्ती में इस लाईब्रेरी को शुरू किया. उसके बाद 1995 तक यह लाईब्रेरी किसी तरह से चलती रही. 1996 में यह लाईब्रेरी पूरी तरह से ख़त्म हो गई.
वो बताते हैं कि ख़त्म होने की एक वजह यह भी है कि लाईब्रेरी के नीचे एक एक मुसाफिर खाना था. इसी मुसाफिर खाना को यहां के दुकानदारों ने अपना गोदाम बना दिया. इसी में जरनेटर रख दिया गया. इस जनरेटर के चलने की वजह से पूरी बिल्डिंग हिलने लगी. छत से बरसात के मौसम में पानी गिरने लगा. जिससे ज़्यादातर किताबें सड़ गई या धीमक लग गया.
इस लाईब्रेरी मजीद खान के मुताबिक़ मस्जिद कमिटी ने इस बिल्डिंग को यह कहकर तोड़ दिया कि इसे दुबारा से तामीर करवाया जाएगा. लेकिन आज मुसाफ़िर खाना तो बन गया, लेकिन लाईब्रेरी अभी तक नहीं बन सकी.
बताते चलें कि इस लाईब्रेरी में तक़रीबन 8 हज़ार से उपर उर्दू, हिन्दी, पाली, फारसी व अरबी में महत्वपूर्ण किताबें थी. सैकड़ों पाण्डुलीपियां भी यहां मौजूद थीं. उस समय के तमाम मशहूर अख़बार व रिसाले जैसे सर्च लाईट, इंडियन नेशन, आर्यावर्त, सदा-ए-आम, संगम, शमा, फूल आदि इस लाईब्रेरी में आते थे. दूर-दूर से लोग यहां पढ़ने आते थे. इब्ने शफ़ी की सभी सीरिज़ इस लाईब्रेरी में मौजूद थी. इसके अलावा जासूसी नॉवेल की यहां भरमार था. लेकिन बंद होने के बाद अधिकतर किताबें सड़ गईं. जो महत्वपूर्ण किताबें थी, शहर के दानिश्वर उसे अपने घर लेकर चले गए. हज़ारों किताबें ज़मीन खोदकर दफन कर दिया गया. कुछ किताबें अभी बगल के जंगी मस्जिद में सड़ रही हैं और उसे देखने वाला कोई नहीं है.
सच पूछे तो कारोबारियों ने पहले से ही इसकी शक्ल व सूरत तबाह करने की साज़िश तैयार कर ली थी. बाक़ायदा इस लाईब्रेरी के नीचे एक मुसाफ़िर-खाने में जनरेटर रखकर इसके दरों-दिवार को कमज़ोर किया गया और उसके बाद इसके ख़ात्मे में कारोबारी फ़ायदा पहुंचने की गुंजाईश ढ़ूंढ़ी गई.
अब फिर से इस लाईब्रेरी को ज़िन्दा करने के लिए शहर के कुछ नौजवान उठे हैं. लेकिन इन नौजवानों की शिकायत है कि इस वक़्फ़ प्रोपर्टी के मतवल्ली अपने व्यावसायिक फ़ायदे के लिए लाईब्रेरी के दुबारा स्थापित करने में रूकावट डाल रहे हैं.
वहीं इस संबंध जब मतवल्ली मो. रेयाजुद्दीन से बात की तो उनका कहना है कि उन्हें लाईब्रेरी बनने से उन्हें कोई समस्या नहीं है. लेकिन ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग उन्हें यह गारंटी दें कि वो लाईब्रेरी को हमेशा चलाएंगे, क्योंकि पिछला अनुभव काफी बुरा रहा है. लाईब्रेरी कमिटी के लोगों को सैकड़ों बार कॉल करने के बाद भी उन्होंने लाईब्रेरी की किताबों के बचाने की कोई पहल नहीं की.
वहीं यहां मस्जिद कमिटी से जुड़े युवा सामाजिक कार्यकर्ता आसिफ़ इक़बाल बताते हैं कि हम सब चाहते हैं कि यह ऐतिहासिक लाईब्रेरी फिर से स्थापित हो, ताकि क़ौम के अहम दस्तावेज़ों व धरोहरों को फिर से सहेजा जा सके.
वो बताते हैं कि मस्जिद कमिटी इसके तैयार है, लेकिन पुरानी लाईब्रेरी कमिटी को थोड़ा पहल करना होगा. इसके एक बैठक होनी चाहिए, ताकि एक नई कमिटी का गठन किया जा सके. इस बैठक के लिए हम प्रयासरत हैं.
उन्होंने यह भी बताया कि यहां के कुछ व्यवसायी इस कोशिश में लगे हैं कि यह लाईब्रेरी न खुले, बल्कि इसे व्यवसायिक कार्य में इस्तेमाल कर लिया जाए.


सच पूछे तो एक ज़माने में ईल्म और तालीम की केन्द्र रही ये जगह अब व्यावसायिक नफ़े-नुक़सान की पैमाईश बन कर रह गई है. क़ौम के झंडाबरदारों इसमें बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है. मुनाफ़ा कमाने और कारोबार बढ़ाने वाला तबक़ा यहां पर एक मलाईदार गोदाम की संभावना तलाश रहा है, जो उनके कारोबारी हितों की पुर्ति कर सके. यहां के तथाकथित क़ौमी रहनुमाओं व सियासतदानों को इस लाईब्रेरी का इतिहास क्या, बल्कि इसके वर्तमान नावाक़िफ़ है. कुल मिलाकर इतिहास की ये महान ईबारत अपनी आंखों के सामने ही अपने ख़ात्मे ईबारत की गवाह बन चुकी है.
(http://www.champaranpost.com/ पर Afroz Alam Sahil की टिपण्णी से साभार ) 

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