शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

पटना डायरी -1 (Patna diary-1)

अस्सी के दशक में पटना का मौर्या - लोक परिसर एक खुबसूरत बाज़ार बनकर उभरा . पटना की हृदय-स्थली डाक-बंगला के  समीप स्थित यह बाज़ार अब पटना की पहचान बन चुका है, जैसे गोलघर, गाँधी मैदान, अशोक-राजपथ और महावीर मंदिर .
  कॉलेज के दिनों में उत्तर बिहार के सुदूरवर्ती जिला सहरसा से पटना पढ़ने आये मेरे एक मित्र ने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया; उसके एक ग्रामीण जब पटना से लौटे तो बच्चों ने उत्सुक्तावश पटना के बारे में पुछा तो बड़ी सरलता से उन्होंने बताया की पटना में तीन घर गोलघर, चिड़ियाघर ,जादूघर, और तीन कुंआ अगमकुंआ, कदमकुंआ, मखनियांकुंआ है.
    नब्बे का दशक पटनावासियों के लिए रैलियों का दशक था. इस दौर की रैलियों का राजनीतिक फलाफल जो रहा हो पर ये सुदूरवर्ती ग्रामीण आवाम के लिए गंगा-स्नान एवम पटना दर्शन का एक अच्छा अवसर देती थी. एसे लोग जो इलाज तक के लिए पटना आ सकने में सक्षम नहीं थे उन्हें ये रैलियां मुफ्त आवागमन, भोजन , अपने गावों-घर के लोगों के साथ घुमने, बिना ठगी के पटना दर्शन कर लौटने की सुविधा मुहैया कराता है. इतना ही नहीं रैली-यात्रा के दौरान मृत्यु या दुर्घटना होने पर राजनितिक दल के नेता तत्क्षण पीड़ित परिवार के घर मुआवजा दे आते थे. एसे दर्शनीया के लिए मौर्या-लोक भी एक पर्यटन स्थल था.
मौर्या लोक ने पटना में फ़ास्ट-फ़ूड संस्कृति को विकसित किया , जो आज के.ऍफ़.सी से भी आगे निकल गया है. प्रारम्भ में इसके पूर्वी छोर पर उतर से  दक्षिण कियोस्क में फ़ास्ट-फ़ूड की दूकानें खुली, जो कालान्तर में छात्रों और शाम में फ़ाका-मस्ती करने वालों के लिये बैठकी का अड्डा बन गया. यंहा कम खर्च कर ज्यादा समय बिताया था .
        मै भी लगभग पच्चीस वर्षों से यंहा से गुजरता हूँ. कभी कभार मुगलई-पराठे, चाव्मिन, फ़ास्ट-फ़ूड या चिकेन-चिल्ली का आनंद लेता हूँ. आते-जाते इन फ़ास्ट-फ़ूड के दुकानों के बीच एक मैगजीन-कार्नर पर भी यदा-कदा रूकता हूँ. पहले यह मैगजीन-कार्नर दुकानों के बीच स्पष्ट दिखाई देता था. कालांतर में इसे ढूँढना पड़ता . पर इस बार तो गजब हो गया, मैं खड़ा होकर दस मिनट तक उसे ढूढ़ता रहा , मुझे लगा की दुकान बंद है. दुकान के बोर्ड को ढूढने के लिए नज़रें उपर उठाई पर कोई चिन्ह नहीं मिला . नज़रों से गहरी पड़ताल के बाद मैंने पाया कि वंहा अब कोई मैगजीन-कार्नर नहीं है, बल्कि वंहा भी एक फ़ास्ट फ़ूड की दुकान खुल गयी है.

  जिस तरह जिल्दसाज प्रूफ़-रीडर, पोस्ट-कार्ड, अन्तेर्देशीय, डाक-टिकट और ठोंघा हमारे बीच से गायब हो गया उसी तरह मैगजीन-कार्नर भी बिना आहट के हमारे बीच से चला गया. मन किया की दुकान के आगे खड़े होकर पांच मिनट खड़े होकर श्रधांजलि दे दूँ. 
  

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