शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

इस्लामपुर डायरी 3(Islampur Dayri-3)

जमींदारी तो अँग्रेजों के पहले भी थी. यह कोई नहीं जानता की अंग्रेजों ने स्थाई बंदोबस्त में पुराने जमींदार को ही बरकरार रखा या "सनसेट लॉ" के तहत जमींदार की नई पौध को इस्लामपुर गढ पर रोप दिया, जो उसके प्रति और ज्यादा वफादार था.
 जमींदार साहब ने यह सोच कर अपने इतिहास को लिपिबद्ध  करने का प्रयास नहीं किया कि उनकी हस्ती को कौन मिटा सकता है. लोगों की जुबान पर उनका और उनके परिवार का इतिहास है भला, इसको लिखने की क्या जरूरत. लोग बताते हैं कि चौधरी साहब के परदादा राजा मानसिंह के समय सूबा-ऐ-बिहार के मानिंदे मनसबदार  थे 500 जात औ सवार सैनिकों की मनसबदारी थी. गढ़ के गढ़वाल भी यही सोचते होंगे, पर उस अस्सी बीघे के गढ़ के नीचे कितने महल,कितने नाचघर, कितने खजाने. हाथी घोड़े और समय का सैलाब दवा है .
अकबर रहा ना रहा सिकंदर बादशाह ;
तख्ते जमीन पर सब आए आके चले गए.
  यह हवेली और कचहरी बनने से यहां बाजार बसने लगा. सुबा-ऐ-बिहार की सत्ता का एक प्रशासनिक इकाई बना.
गुमाश्ता, पहलवान, मुंशी, कानूनगो ,अमला-फैला भरा कचहरी, लाल बस्ता, ठेकेदार, मुकर्रीदार,दर-मुकर्रीदार, पत्नीदार, दर-पत्नीदार.रैयतों का आना-जाना और उनका नजराना, एक नया नजरान-घर बना था जहां रोज इसे लेने और रखने के लिए आमला बहाल थे. रैयतों से आम, बेल, जामुन, कटहल, सब्जी की पहली फसल और तालाब की सबसे बड़ी मछली नजर की जाती.
जमींदारी का स्वर्ण युग आने वाला था .वह रैयतों पर मनमानी लगान लगाता और माफ करता.  हवेली बनानी होती तो हवेलीयाना, मोटर खरीदनी होती तो मोटराना जैसे शेष लगाए जाते हैं छः महीने में हवेली खड़ी हो जाती. तब किसी ने कल्पना भी न किया होगा कि जमींदारी व्यवस्था का अंत हो जाएगा.
(इसमें वर्णित पात्र व घटनाये काल्पनिक हैं )

1 टिप्पणी: