बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

गया डायरी-2

  6 फरवरी 2023- गया से लौटकर 

श्री शैवाल उन कथाकारों में से है जिन्होंने अपने पात्रों के साथ जीवन जिया है ,उनके साथ समय बिताया है । फणीश्वर नाथ रेणु भी अपने पात्रों के साथ ही जिए । अपनी कहानियों का पात्र बनाया और ये कहानियां कथा जगत का पैमाना साबित हुई। ऐसे कम ही कथाकार है जो अपने सृजन का उत्स जीवन के जटिल संघर्षों से निकालकर सामने लाते है। उन्हें पाठकों के रू-ब-रू खड़ा कर देते हैं कई प्रश्नों के साथ। एक अदना सा पात्र जिसका सामान्य जन-जीवन में कोई नोटिस नहीं लेता उसे इतना व्यापक और मर्मस्पर्शी बना देते हैं कि पाठक कहानीकार का नाम भूल जाए पर पात्र का नाम नहीं भूल पाता। परंतु कभी-कभी ये पात्र कथा जगत से बाहर निकल कर फिल्मों के माध्यम से जनमानस में स्थानी ठिकाना बना कर लोक-कथा का रूप ले लेते हैं।

 कल गया, गया तो शैवाल जी से मिला  5-6 वर्षों बाद मुलाकात हो रही थी। अक्सर उनसे कहानी के पात्र फिल्म और रचनाओं पर बात होती है । आज भी उन्होंने कई कथा पात्रों के बारे में बताया जिसमें एक जेहल था जो उनकी कहानी का नायक है .


  एक बार जब वे अपने कार्यक्षेत्र में अकेले रह रहे थे तो जेहल ने उनसे पूछा था कि

 "तोरो औरतिया छोड़ के चल गलो हे का?"

 बिखरे दांपत्य जीवन के समग्र बिरह की पीड़ा इस एक वाक्य से ही व्यंजित हो गई। आगे उन्होंने बताया कि जब एक बार उसने सुना कि उसकी पत्नी बगल के गांव में चादर चढ़ाने आई है तो बरसात में भरी नदी को पार करने के लिए उसने कूद गया। हम प्रेम के वर्गीय चरित्र पर बात कर रहे थे । कहानी धर्म युग में छपी थी।

 दूसरा वाकय इससे ज्यादा हृदयस्पर्शी है। 1981 में श्री शैवाल अतरी (गया) में जनगणना के कार्य में लगे थे। उन्हें एक व्यक्ति मिला जो उनकी कहानी का पात्र बना । प्रचंड गर्मी में ताड़ के पेड़ के पास खगड़े (तार के सूखे पत्ते ) की झोपड़ी में वह रहता था । कहानी लिखकर छपने के लिए भेजी गई। धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने कुछ सत्य घटनाओं की स्वीकार्यता पर संदेह व्यक्त करते हुए कथाकार से उस अंश को हटा देने का अनुरोध किया । 'आदिम राग ' कहानी संपादित कर धर्मयुग में छपी।


     फिर दशकों बाद केतन मेहता श्री शैवाल से मिलने गया आये वो और उनकी पत्नी दीपा मेहता इसी बरामदे में बैठी थी जहां मैं आज बैठा हूं। बिजली नहीं थी , गया के प्रचंड गर्मी में ताड़ के सूखे पत्ते के बने हाथ-पंखे से सभी हवा झल रहे थे। कहानी के उसी अंश पर बात हो रही थी जिसे धर्मवीर भारती ने हटा दिया था। केतन मेहता उस पर फिल्म बनाना चाह रहे थे। उनके अनुरोध पर श्री शैवाल दशरथ मांझी पर बनने वाली फिल्म के स्क्रिप्ट कंसलटेंट बने। वह डायलॉग जो इस फिल्म का पंचलाइन बना 


"भगवान के भरोसे मत बैठो क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो।" शैवाल जी की ही देन है।

   फिर बात 'मृत्युदंड' तक पहुँची। प्रकाश झा एनo एफo डीo सीo से अनुदानित एक फिल्म बनाना चाह रहे थे। इसके लिए जरूरी था कि समय से फिल्म की कहानी एनoएफoडीoसीo में जमा कर दी जाए । कहानी इतनी सशक्त हो की अस्वीकृत ना होने पाए। तब उन्होंने शैवाल जी को मुंबई बुलाया जल्द से जल्द अच्छी कहानी लिखने का अनुरोध किया। यदि कहानी एक-दो दिन में एनoएफoडीoसीo में जमा नहीं होती तो प्रकाश झा को अनुदान नहीं मिल पाता। होटल के कमरे में कहानी लिखना प्रारंभ किया प्रकाश झा वहां से निगरानी करने लगे थे कि कहानी लिखने में कोई व्यवधान न हो । यहां तक की होटल वाले को भी हिदायत दे रखी थी कि खाना दरवाजे के नीचे से सरका कर दे दिया जाए। 18 घंटे में कहानी लिख दी गई। ससमय इसे एनoएफoडीoसीo में जमा कर दिया गया। इस कहानी पर एक छोटे बजट की फिल्म बनाने की योजना थी। कुछ दिनों बाद बॉलीवुड के बौद्धिक जगत में इस कहानी की चर्चा होने लगी। कहानी माधुरी दीक्षित तक पहुंची। कहानी पसंद आई। उन्होंने इस कहानी पर बनने वाली फिल्म में काम करने की इच्छा व्यक्त की। तब कई लोग आगे आए और एक बड़े बजट की सफल फिल्म बनी जिसमें शबाना आजमी, ओम पुरी, माधुरी दीक्षित, शिल्पा शिरोडकर हार मोहन आगाशे जैसे कलाकारों ने काम किया। यह फिल्म 1997 में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई।


माधुरी दीक्षित ने इस फिल्म में कार्य के अनुभव को साझा करते हुए एक साक्षात्कार में कहा था कि मैंने अपने जीवन में मृत्युदंड की पात्र 'केतकी ' से बेहतर चरित्र का अभिनय नहीं किया है।

 तीन बजने वाले थे और मुझे पटना लौटना था। गया की व्यस्त सड़कों से गुजरता हुआ मैं टावर चौक पहुंचा।  गणिनाथ भारती के प्रसिद्ध ईमरती दुकान से ही ईमरती ले एनoएचo 82 के निर्माणाधीन धूल'धूसरित सड़कों पर पटना की ओर बढ़ गया।






 


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