शनिवार, 25 मई 2019

पूर्णिया डायरी-18 ( दूध न देने की सजा पन्द्रह साल की जेल /When the punishment for not giving milk was fifteen years of imprisonment)

पूर्णिया डायरी-17  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
इस महामारी में पूर्णियावासियों के असह्य कष्ट और दरिद्रता का वर्णन नहीं किया जा सकता है. इलाके की सभी दूकानें धीरे-धीरे बंद हो गई. या तो दूकानदार मर गये या पलायन कर गये या उनके परिवार के ज्यादातर सदस्य का सफाया हो गया जिसके कारण वे दूकान खोलने की स्थिती में नहीं थे. अनाज और अन्य खाद्य सामग्रियां बैलगाङियों से दूर से लायी जा रही थी. 
 कई बार सामान लाने गया गाङीवान रास्ते पर हाथ में लगाम लिये मृत पाया जाता.परन्तु इस महामारी में भी कुछ लोग मौके का लाभ उठाना नहीं चुकते. एक सुबह फोर्ब्स कहीं जा रहे थे, रास्ते में तालाब पर कुछ महिलायें कमर भर पानी मे कपङे धो रही थी. ये कपङे उन बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे (न जाने फोर्ब्स ने किस आधार पर इतना विश्वास के साथ यह लिखा कि ये कपङे उन्हीं बच्चों के थे जो महामारी में मारे गये थे). एक ग्वाला उधर से दूध लेकर जा रहा था, वहाँ रुककर वह उनसे गप्प करने लगा. पूर्णिया में दूध का स्त्रोत गाँव से इसे लेकर आने वाले ग्वाले ही थे. अस्पताल में दूध की कमी रहती थी . गप्प खत्म होने के बाद  फोर्ब्स ने उस ग्वाले को अपना दूध बाजार में न बेचकर अस्पताल में लाकर बेचने को कहा . परन्तु ग्वाले ने उसकी बात सुनकर पुरा का पुरा दूध तालाब में बहा दिया. शायद भय और घृणा से. 
                                   फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि उसका दूध तो कभी अस्पताल नहीं पहुँच सका पर, वह पंदरह साल के लिये जेल जरूर चला गया.

                                           क्रमशः .......

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