बुधवार, 22 मई 2019

पूर्णिया डायरी-16 ( पांच दिनों में तीन हजार लोग काल-कलवित हुये)

पूर्णिया डायरी-15  से आगे ......
पूर्णिया  1887 ईस्वी 
पूर्णिया के "नेटिव" समाज के बड़े तबके का यूरोपीय चिकित्सा व्यवस्था में विश्वास नहीं रहने के बावजूद जितने लोग अस्पताल आ रहे थे उनके इलाज के लिए कम से कम बीस डॉक्टरों की आवश्यकता थी. फोर्ब्स ने आगे लिखा है कि नेटिव कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे थे. पांच दिनों के अन्दर तीन हजार लोग काल-कलवित हुए. जो गरीब थे जिनके परिवार में कोइ नहीं बचा था उनका अंतिम संस्कार भी नहीं हो सका. लाशों के सड़ने से 'नेटिव' बस्तियों में भयंकर बदबू फ़ैल रही थी. 
               श्मशान से रात -दिन धुंये का अम्बार उठकर आसमान में विलीन हो रहा था. मुसलमानों के कब्रिस्तान भी बिना दफ़न किये गए लाशों से भरे पड़े थे. इसके ऊपर चिल-गिद्ध ऐसे मंडराते रहते मानो काले बादल उमड़-घुमड़ रहे हों. 
  हिन्दुओं की जो भी खाली जमीन थी उसपर काली की पूजा हो रही थी. यह बात आम-आवाम के मन में घर कर गयी थी कि माँ काली के कोप से ही यह महामारी पूर्णिया में फैली है, जो रोज सैकड़ो लोगों को लील रही है. इधर मस्जिदों में शरण लेने वाले मुसलमानों की संख्या भी बढती जा रही थी. उनका विश्वास था कि इस पवित्र भवन की शरण में आकर वे उस मृत्यु से बच सकते हैं जो उनके घरों में इंतजार कर रही है. परन्तु जल्द ही मस्जिद मुक्ति धाम बन गया. बीमार व्यक्ति मस्जिद में आता प्रार्थना करता पर संक्रमण इतना होता कि वह प्रार्थना पर भारी पड़ता . बीमार आदमी मर जाता. मृत शरीर को मस्जिद से निकलने वाला कोइ नहीं था.लाशों की संख्या बढती, उसके सड़ने से भीषण बदबू फैलने लगती . मुल्ला और मोईजिन मस्जिद छोड़कर अन्यत्र चले जाते .

क्रमशः 

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