शनिवार, 16 मई 2015

दरभंगा डायरी ( Darbhnga dayri)


जब  भी लोग दरभंगा के बारे में विमर्श करते हैं, एकपक्षीय हो जाते हैं। राजा और जमींदार के बारे में इतिहासकारों ने जो छवि 'पेंट' की है, उसी का यह असर है। लेकिन इसकी बहुत बड़ी क्षति हुई है कि हम राजा के अच्‍छी चीजों से भी घृणा करने लगते हैं। न हम राजतंत्र के समर्थक हैं और न राजा द्वारा किए गए गलत कार्यों का। लेकिन हम उनमें से नहीं हैं जो आंख मूंदकर इतिहास पढ़े। 1885 में बंगाल टेनेन्‍सी एक्‍ट पर जब चर्चा हो रही थी, दरभंगा महाराजा भी भाग ले रहे थे। पहली बार उन्‍होंने प्रस्‍ताव रखा कि जमीन का सेट्लमेंट उसके नाम कर दिया जाए जो जमीन जोतता है। तत्‍कालीन सरकार हिल गई थी उनके प्रस्‍ताव पर। नहीं माना गया उनका प्रस्‍ताव। सदन में संख्‍या बल की कमी थी। बंगाल टेनेन्‍सी एक्‍ट तो अंग्रेज सरकार ने पारित करवा लिया लेकिन वह भाषण आंदोलनकारियों के लिए गुरुमंत्र साबित हो गया। जो लोग बिहार के काश्‍तकारी आंदोलन को नजदीक से जानते हैं वे लोग भी स्‍वामी सहजानंद के किसान आंदोलन को ही बिहार में इसकी शुरूआत मानते हैं और बोधगया महंथ घटना पर आकर रुक जाते हैं। उन्‍हें राजा रामगढ़ और के.बी.सहाय एपिसोड में मसाला मिलता है। लेकिन किन्‍हें याद है महाराज दरभंगा का वह 'विजनरी' भाषण। के.बी.सहाय के जमींदारी उन्‍मूलन बिल और लैंड सिलिंग बिल के बाद ऐसा कौन सा मुख्‍यमंत्री बना जिन्‍होंने महाराज दरभंगा की बातों को याद रखा है। बिहार की जनता ने कई लोकप्रिय मुख्‍यमंत्री देखे हैं। उस श्रेणी में समाजवादी आंदोलन के मिथिलांचल के सपूत कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी आते हैं। आखिर क्‍या कारण है कि महाराज दरभंगा की दलील आज भी जनता की अदालत में अनिर्णीय है। 'क्रोमेटिक दरभंगा' में इस पर चर्चा नहीं हो तो क्‍या हो।
(भैरव लाल दास जी ने यह टिपण्णी अपने फेसबुक पर दर्ज कि है . जिसे यथावत रख रहा हूँ.)

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