सोमवार, 24 सितंबर 2018

पूर्णिया डायरी-10 (डुकारेल और डा० लक्ष्मीकांत सिंह/Ducarel and Dr Laxmikant Singh)

डुकारेल की कहानी ने नालंदा के डा०लक्ष्मीकांत को इतना प्रभावित किया कि "यह पत्र माँ को एक साल बाद मिलेगा" जैसी दो पन्ने की छोटी कहानी पढकर एक शोधपरक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उपन्यास लिखने का निर्णय ले लिया. गत दो वर्षों से इसपर काम कर रहे हैं. डा० लक्ष्मीकांत मूलतः सारण जिले के हैं. पूर्णिया कभी नहीं गये पर पूर्णिया को केन्द्र में रखकर ऐतिहासिक पात्रों की मदद से एक ऐसी रचना कर रहे हैं जिसमें 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का पूर्णिया जीवंत हो उठेगा.यहाँ हम इनकी तुलना  मैक्स मूलर से कर सकते हैं, जो कभी भारत नही आये थे पर विश्व के शिर्षस्थ भरतवीद् थे.
डा० लक्ष्मीकांत अलामा इकबाल कॉलेज नालंदा में पाली भाषा एवं साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष है. जिले पर संदर्भ ग्रंथ तैयार करने के सिलसिले में वर्ष 2016 में उनसे मिला था. यह संदर्भ ग्रंथ तो नही तैयार हो सका पर एक ऐतिहासिक उपन्यास के सृजन की पृष्ठभूमि जरूर तैयार हो गई.
ये विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकों की रचना कर चुके हैं. कुछ पुस्तकें हैं-
  शाबाश डैडी (बाल समस्या एवं निदान);
 भारतीय वनऔषधि धरोहर(आयुर्वेद);
पाली व्याकरण एवं रचना; 
अशोक के धर्म शिलालेख(प्राचीन भारत) .
                     उपन्यास के ताने-बाने और कथानक पर अक्सर उनसे बातचीत होती है. उनके अप्रकाशित उपन्यास का एक रोचक अंश 
        "अब डुकारेल चार कदम का फासला तय कर चारपाई के सिरहाने पूरब में खड़ा हो, लड़की के चेहरे को एकटक देखते रहे . वह शांत बेसुध पड़ी थी . गोलाकार मरमरी चेहरा और तीखे नयन-नक्श , रुक्म-ए-फरोग सा दिख रहा था.काले घुँघराले बालों का एक लट रूखसार पर अब्र सा चिपका था. नाजनीन पँखुरियों जैसे होठ कभी-कभी स्पंदित हो रहे थे.इस हालात मे भी जैदी का आलम चेहरे पर पसरा था. डुकारेल बार-बार आँखें खोलता और बंद करता . उसे अपने आँखों पर सहसा विशवास नहीं हो रहा था.हकिकत है या कोई सपना, उसका दिमाग फर्क नहीं कर पा रहा था.उसके तसव्वुर मे . ऐंजल और मोनालिसा का नाम बसा था. लेकिन क्या कोई इतना खूबसूरत हो सकता है, यह सोचकर परेशां हो रहा था. "यकीनन हकीम साहब सौ फिसदी वाजिब बोल रहे थे."
 डुकारेल बुदबुदाया . मैने कोई गलती नहीं की, शायद यही खुदा की मर्जी थी. इस हुश्न-ए-सरापा को बचाने के लिये ही उपरवाले ने वहाँ भेजा था.उपेक्षा का भाव विलुप्त हो,अब उसके मन के किसी कोने में स्नेहासक्ति का बीज अंकुरित होने लगा.भावनाओं के अथाह सागर में डूबता उतरता डुकारेल , किसी अनजाने पाश मे जकड़ता जा रहा था. कोई मायावी ताकत अपने वश में जिल्दबंद कर रही है, वह ऐसा महसूस कर रहा था.
             तभी देखा लड़की के चेहरे और शरीर में थोड़ी कंपन शुरू हुई. ओठ स्वतः खुलने बंद होने लगे. हाथों की अँगुलियाँ हिलते-हिलते मुठ्ठी बंध गयी. फिर जोर से
 "बचा  लो बाबू" 
बोल थोड़ी गर्दन उठा निढाल हो गयी. काँपते हाथ स्वतः उठ खड़े हो गये."

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