शनिवार, 22 सितंबर 2018

पूर्णिया डायरी-9 (डुकारेल की कहानी/ Story of Gerard Gustavus Ducarel)

डुकारेल की कहानी 2007 में लिखने के बाद मैंने उसे छपने के लिये कहीं नहीं भेजी. वर्ष 2012 प्रो० रामेश्वर प्रसाद के बुलावे पर मैं पुर्णिया गया.वहाँ भारत के प्रख्यात साहित्यकार श्री चंद्रकिशोर जायसवाल जी से मिला.
 जायसवाल जी से मेरा पहला परिचय वर्ष 1991 में हँस मे प्रकाशित कहानी "मर गया दीपनाथ ..." से हुआ था .
दूसरा परिचय स्व० बच्चा यादव जी ने करवाया था. मुझे जब उनसे यह पता चला कि "मर गया दीपनाथ ..." के लेखक पूर्णिया में रहते हैं तो  मिलने की इच्छा व्यक्त की. तब वर्ष 2005 में एक शाम वे जायसवाल जी को लेकर मेरे आवास पर आ गये.
                                       इस बार मिला तो डूकारेल पर बात हुई , उस पर लिखी कहानी " यह पत्र माँ को एक साल बाद मिलेगा " के बारे मे बताया . सिकलीगढ पर भी चर्चा हुई. नवादा लौटकर मैंने कहानी स्कैन कर भेज दी. कहानी पढकर उन्होंने टंकित प्रति माँगी.  चार-पाँच दिनों बाद कहानी को टाईप कर मैंने फोन किया , तब तक जायसवाल साहब कहानी को स्वयं टंकित कर छपने के लिये राज राघव (परती पलार के संपादक) को भेज चुके थे. कहानी परती पलार के कथा-कोशी विशेषांक मे छपी थी. कहानी कुछ इस प्रकार है.

 यह पत्र मॉं को एक साल बाद मिलेगा
6 दिसंबर 1769 ई. लंदन
‘‘वेलकम, मि तालिब, हाउ आर यू?’’ चन्द्रावती अबू तालिब का अभिवादन करते हुए घर के अन्दर ले गयी।
‘‘आई एम फाइन।’’
‘‘हाउ डिड यू गेट माई एड्रेस?’’ 
चन्द्रावती ने जिज्ञासा प्रकट की।
प्रतिउतर  में अबू तालिब के होठों पर हल्की मुस्कुराहट पसर गयी। चन्द्रावती की अंग्रेजी तहजीब और भाषा देखकर उन्हें विश्वास करना कठिन हो गया कि वह ‘नेटिव’ है।
‘‘मिट माई सन एडिन एंड एलेक्जेंडर कोल्टी।’’
झक्क सफेद व लम्बी काया जिसके आगे अबू का तुर्की डील-डौल और गोरा रंग भी फीका लग रहा था।
लन्दन में चन्द्रावती के घर को ढूंढने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। ग्यारह महीने की उबाउ, परन्तु साहसिक यात्रा और इंतजार के बाद चन्द्रावती से मिलना उन्हें अच्छा लगा। चंद्रवती को हिन्दुस्तान छोड़े पंद्रह वर्ष और अपनों को छोड़े तीस वर्ष हो गये थे। हिन्दोस्तान से कोई उससे मिलने आयेगा, ऐसी न उसकी इच्छा थी, ना संभावान।
‘‘मैं लंदन में कई हिन्दोस्तानियों से मिला, पर आप सबसे अलहदा हैं।’’
‘‘यह मेरा सौभाग्य है।’’ 
बड़ी मुश्किल से हिन्दोस्तानी में जवाब दिया चन्द्रावती ने। अबू का उससे मिलने आना एक अप्रत्याशित घटना थी। वह न कभी उससे मिली थी, न पूर्व का कोई परिचय था, फिर भी घंटों बाते करती रही।

12 फरवरी 1770 ई. काढ़ागोला
‘‘हे रे, सुनलै छै की, ई फिरंगी बांस लेखा लम्हर होबै छै, और राती खनी चमकै छै?’’
 सुजन कहार ने अलाव से बीड़ी सुलगाते हुए अपने साथी से पूछा।
‘‘एते लम्हर ई पालकी में केना बैसतई?’’
 साथी का जवाब-सवाल बनकर आया।
‘‘ऐ लेल त फौजदार हाकिम सबसे बड़की पालकी औ हाथी लै ऐने छै।’’ सुजन ने फौजदार के तंबू की ओर देखते हुए जवाब दिया।
जब से अंग्रेज हाकिम के पुरैनियॉं आने की खबर मुर्शिदाबाद दरबार से मिली है, तब से फौजदार सफात खॉं को चैन नहीं है। कल रात से ही अपने लाव-लश्कर के साथ काढ़ागोला घाट पर अंगरेज साहब का इन्तजार कर रहे हैं। वे चाहते तो अपने कारिन्दों को भी भेज सकते थे, परन्तु न जाने क्या सोचकर स्वयं आ गये। उन्हें अच्छी तरह पता था कि गत पॉंच सालों से नायब दीवान अंग्रेज ही हैं। अंग्रेज साहेब का आना, इसे सफात खॉं न तो पचा पा रहे थे और न ही उपेक्षा करने का साहस जुटा सके थे। असमंजस में स्वयं काढ़ागोला आकर अगुवानी करने का निर्णय लिया। इसके पहले कभी फिरंगी को नहीं देखा था, हॉं, पलासी की लड़ाई के बारे में सुना जरूर था जिसे अग्रेजों ने जीता था।
कैसा होगा अंग्रेज साहेब, क्या खाता होगा, क्या पहनता होगा? इन सब प्रश्नों के जाल में उलझे फौजदार सर्द रात मे तंबू के अन्दर करवटें लेते रहे।
‘‘ एक महिना से ठीक से खाना नै भेटैत रहै।’’
 पीलवान फन्नै खॉं ने साथ आये कहारों की ओर मुखातिब होकर कहा।
‘‘हॉं भाई’’,
 किसी का जवाब आया,
 ‘‘अंग्रेजी हाकिम के चलते पॉंच रोज से ई अकालो में पेट भर जाई छै।’’
रात भर अलाव जलता रहा, आज भी अंग्रेज साहेब नहीं आये।

13 फरवरी 1770
तेईस-चौबीस साल के नवयुक को नौका से उतरते देख कारिन्दों की ऑंखे फटी रह गयी। सफेद मलमल जैसा चमकता चेहरा। क्या आदमी इतना गोरा भी हो सकता है? सभी हैरान थे। बॉंस जैसा लम्बा तो नहीं, पर सबकुछ उनसे अलग था। ऐसी देह-यष्टि का इन्सान यहॉं इससे पहले किसी ने नही देखा था। 
इस आदमी का नाम धोकरैल था।
दिन भर धोकरैल का कारवॉं चलता रहा। वे कभी हाथी तो कभी पालकी पर सवार होते। आधी रात के करीब कारवॉं पुरैनियॉं पहुॅंचा। एक अजीब-सी सड़ॉंध, असह्य दुर्गन्ध उनके नथुनों में प्रवेश कर गयी। वे तिलमिलाकर पालकी पर ही उठ बैठे। कारवॉं रूक गया। 
‘‘यह दुर्गन्ध कैसी?’’
 टूटी-फूटी फारसी के धोकरैल साहेब ने फौजदार से पूछा।फौजदार दुविधा में पड़ गये। अब तक तो बचते-बचाते साफ रास्ते से लेकर आये, परन्तु शहर में कैसे बचे? इत्रदॉं आगे बढ़ाते हुए। फौजदार ने जवाब दिया, ‘लाशों की दुर्गन्ध है, हुजूर।’’
कैसी लाशें?’’
‘आदमी और जानवरों की जो अकाल में मर गये।’’
धोकरैल सारी रात सो नहीं सके। सुबह उठकर शहर का मुआयनां किया। जिधर से पालकी गुजर रही थी, मनुष्य और पशुओं की सड़ती लाशें बिखरी पड़ी थीं। भुखमरी के इस मंजर ने उन्हें विचलित कर दिया। यदि किसी को भरपेट भोजन मिल रहा था, तो वे चील-गिद्ध ही थे
धोकरैल को पहले आभास होता था, अब विश्वास हो गया कि वह दुर्भाग्यशाली है। पिता का साया शैशवावस्था में ही सिर से उठ गया। नौकरी ने मॉं के वात्सल्य से दूर कर दिया। बतौर राइटर जब उन्होंने इस्ट इंडिया की नौकरी स्वीकार की, तो मॉं को सदमा सा लग गया था। अभी तो धोकरैल मात्र अठारह साल के थे।
नौकरी हिन्दोस्तान में...........।
अपने सबसे योग्य पुत्र को हजारों मील दूर जाने नहीं देना चाहती थी मॉं। ‘साउथ सी’ सदमें में जब पति की मृत्यु हुई थी, तब धोकरैल ढ़ाई महीने का था। उसी समय से मॉं उसे पति के प्रतिरूप और आलबंन के रूप में देखती आयी थी। धोकरैल के हिन्दोस्तान जाने के बाद कई रात तकिये में सिर छुपाकर एकांत विलाप करती रही थी।
महीनों धोकरैल की कोई खबर नहीं मिलती। कभी-कभार बंदरगाह पर ‘गुड होप’ होकर लौटते यात्रियों से धोकरैल की नौका सुरक्षित होने की सूचना भर मिलती।
मॉं से भी दूर हो गये धोकरैल।
पुरैनियॉं जाने से पहले उन्होंने मॉं को एक पत्र लिखा...
मुर्शिदाबाद
  18-12-1769
मॉं,
मेरी प्रन्नोति हो गयी है। साहब ने मुझे डिस्ट्रिक्ट सुपरवाइजर बना दिया है। इस पद पर मुझे बंगाल के किसी जिले में जाकर वहॉं की न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था का पर्यवेक्षण करना है।
तुम्हारा
पुत्र
पुत्र जानता था कि यह पत्र मॉं को एक साल बाद मिलेगा। फिर भी उसे संतोष था कि पत्र पढ़कर मॉं खुश होगी।
शहर की स्थिति देख धोकरैल विचलित थे। शहर में वही बचे थे जिनके पास खाने को कुछ था। आधी से अधिक आबादी काल कवलित हो चुकी थी। अब वे यहॉं से न तो मुर्शिदाबाद जा सकते थे और न ही लंदन। उन्होंने शहर को लाशों की दुर्गन्ध से मुक्त करने का फैसला लिया। फौजदार और उसके मातहतों की मदद से लाशों को हटवाया जाने लगा। सौरा नदी के किनारे लाशें जलाने एवं दफनाने की व्यवस्था की गयी। एक फिरंगी युवक के उत्साह को देख बचे लोग भी घरों से निकल लाशों का हटाने लगें।
नदी तट से थोड़ी दूर पर धोकरैल ने एक आश्रय बना लिया उन्हें तब यह मालूम नहीं था कि सौरा तट पर वे एक ऐसी व्यवस्था की नींव रख रहे हैं जो सैकड़ों साल तक हिन्दोस्तान पर नौकरशाही बनकर शासन करेगी।
‘‘आधी से अधिक रियाया मारी जा चुकी है, हुजूर’’ 
दारोगा सरवर अली ने अपना मत व्यक्त किया,
 ‘‘दस महीनों से पानी की एक बूॅंद तक नहीं गिरी। नदी, तालाब और कुएॅं सूख गये। दीवानगंज और सैफगंज के अनाज गोदाम खाली हो गये हैं। किसान अपने हल-बैल को बेच रहे हैं, बीचड़े के लिए रखे अनाज को भी खा गये। हालात यहॉं तक पहुॅंच गये हैं, हुजूर, कि अनाज के लिए बेटे-बेटियों को भी बेच रहे हैं।’’
धोकरैल ने दारोगा से पूछा कि अब अनाज किस-किस जमींनदार के पास बचे हैं। देवी सिंह, कीर्ति सिंह एवं शेख इमामउद्दीन को बुलवाकर अकाल में भूखों को देने के लिए अनाज मॉंगा। जमींनदार हैरान थे कि रियाया दैवी प्रकोप से मर रही है, तो उसमें उनका क्या दोष? यह तो ‘सठ्जुगिया’ है, जाने वाले को कौन रोक सकता है? काजी, मुंसीफ, फौजदार, सभी के पास गये, पर बिल्ली के गले में घंटी बॉंधे कौन? अनाज धीरे-धीरे रामबाग पहुॅंचने लगा।
धोकरैल जहॉं जाते, उनकी पालकी के पीछे अनाज से लदी बैलगाड़ी होती। वे जरूरतमंद भूखों को अनाज बांटते हुए आगे बढ़ जाते। गॉंव-गॉंव घूमने में उन्हें दारोगा, काजी, मुंसीफ वगैरह की कारगुजारियों का पता चला। उन्हें पता चला कि न्याय-निर्णय बिकते थे, आज इसके पक्ष में तो कल उसके पक्ष में। सजा-मुक्ति और सजा दिलाने के लिए दर निर्धारित थी। दारोगा भी भ्रष्ट जमींदार, काजी और मुंसीफ की तिकड़ी में शामिल थे। रियाया त्राहि-त्राहि कर रही थी।
धोकरैल ऐसी व्यवस्था को देखकर दंग थे। वे जहॉं कहीं जाते उन्हें शिकायतें सुनने को मिलतीं। पुरैनिया में वे भूखों के लिए ईश्वर से कम नहीं थें। आम-अवाम में चर्चा थी कि अकाल में ऐसे दरियादिली नवाब क्या, तुरकों और मुगलों ने भी कभी नही दिखी थी।
महीनों बाद आकाश में बादल मंडराये, वर्षा-जल से धरती से सोंधी महक उठी। बुझती ऑंखों में चमक लौटने लगी। सठ्युगिया का काला साया खत्म हो रहा था। धोकरैल साहब आम लोगों को काफी लोकप्रिय हो गये थे। काजी, मुंसीफ, दारोगा, जमींदार, अमीन, फौजदार, सभी उनके रामबाग कार्यालय में अक्सर हाजिरी लगाते और उनके आदेश पालन को हमेशा आतुर रहते।

15 मार्च, 1772 ई. जलालगढ़
शाम ढल रही थी। धोकरैल अपने कारवाँ के साथ मोरंग जा रहे थे। जलालगढ़ के समीप रियाया ने उनकी पालकी को घेर लिया। गोधूलि बेला में इस अप्रत्याशित घटना से वे चौंक गये।
‘‘क्या बात है? उन्होंने पूछा।
स्थानीय जमींदार जूदेव सिंह के अत्याचार से परेशान रैयतों ने लगान न दे पाने की मजबूरी बतलायी।
उनका कारवाँ जूदेव सिंह की हवेली की ओर मुड़ गया। मोरंग जाने का इरादा छोड़ और रैयतों की शिकायत सुनकर जमींदार के यहॉं रात्रि विश्राम का निर्णय लिया। साठ वर्षीय जूदेव सिंह धोकरैल साहेब को अपने दरवाजे पर देखकर आश्चर्यचकित और आक्रांत था। वह उन्हें हवेली के आरामदायक बैठकखाने में ले गये। रैयतों को वहीं बुलवाया गया।
आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जमींदार के सामने रैयत उसकी शिकायत करे। मशाल की रोशनी में धोकरैल साहेब का चेहरा चमक रहा था। तभी उन्होंने देखा कि चिलमन के पीछे से दो ऑंखें लगातार उन्हें निहार रही हैं। वे सचेष्ट हो गये। युवा मन में बिल्कुल नयी अनुभूति हुई। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, न मुर्शिदाबाद में, न ही लन्दन में। लन्दन की सड़कों पर निहारने वाली नजरों ने कभी उन्हें इतना परेशान नहीं किया था।
रात में वे रैयतों को कोई निर्णय नहीं सुना सके। जूदेव सिंह भी रात भर असमंजस में रहे कि न जाने सुबह क्या फैसला सुनने को मिले। रैयत फैसले का इन्तजार करते रहे। सुबह धोकरैल साहब ने रैयतों से इस साल का लगान आधा कर वसूलने का निर्णय सुनाया। रैयतों में जैकार हो गयी। जूदेव सिंह ने राहत की सॉंस ली। 
यह गॉंव उसी दिन से ‘धोकरैल’ पुकारा जाने लगा।
धोकरैल साहब जूदेव सिंह से विदा हुए और मोरंग न जाकर वापस रामबाग लौट आये।
उन्हें लगा कि षोडशी की मोनालीसा सदृश दो ऑंखें जाते हुए उन्हें देख रही हो और उसका अक्स उनकी पीठ पर अंकित हो गया हो।
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गरमी की एक सुहानी शाम को धोकरैल रामबाग से टहलते हुए सौरा नदी के तट पर चले गये। नदी के उस पार भारी भीड़ थी। ढोल-नगाड़े बज रहे थे। एक ऊँची चिता जल रही थी जिस पर एक स्त्री को जबरदस्ती बैठाया जा रहा था। ढोल-नगाड़े की आवाज में उसके चीत्कार को दबाने की कोशिश की जा रही थी।
‘‘रोको, रोको।’’
 धोकरैल लगभग चिल्ला उठे। चिता धधक रही थी। जिन्दा स्त्री को जलाते देख वे चिल्लाते हुए नदी में कूद पड़े, उस पार पहुँचकर चिता से खींचकर स्त्री को नीचे उतारा।
धोकरैल साहब को देखकर भीड़ ठिठक गयी। उनमें से एक ने बताया कि जूदेव सिंह की मृत्यु हो गयी है और उनकी पत्नी सती हो रही है। धाकरैल ने मुड़कर देखा-अरे, ये तो वही ऑंखें हैं जो एक अरसे से उसका पीछा कर रही हैं! और आज...आज ये ऑंखें कह रही हैं, 
‘‘मुझे बचा लो।’’
धोकरैल उन ऑंखों को साथ लिय नदी में कूद पड़े। भीड़ अवाक् देखती रह गयी। 
उस रात धोकरैल ने नम ऑंखों से मॉं को पत्र लिखा.....
पुरैनियॉं
18.06.1772
मॉं,
मैंने तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध हिन्दोस्तान में विवाह कर लिया है। मुझे माफ कर देना।
तुम्हारा
जी.जी. डुकारेल
डुकारेल जानता था कि यह पत्र उसकी मॉं को एक साल बाद मिलेगा।
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चन्द्रवती उर्फ मिसेज डुकारेल ने अबू तालीब को अपनी कहानी सुनाते हुए धोकरैल साहेब उर्फ जी.जी. डुकारेल का यह पत्र भी मॉं की संदूक से निकालकर दिखलाया था।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छे,रोचक इससे आनेवाली पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी।

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  2. इतिहास के एक अनछुए पहलू का मार्मिक चित्रण।संवेदना और भाव के स्तर पर उत्कृष्ट।

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  3. न जाने क्यों कहानी में अधूरापन महसूस हुआ..कही-न-कहीं कुछ छूट सा गया है!

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